कपिलदेव द्विवेदी
डॉ कपिलदेव द्विवेदी (०६ दिसम्बर, १९१८ - २८ अगस्त २०११) वेद, वेदाङ्ग, संस्कृत व्याकरण एवं भाषाविज्ञान के अप्रतिम विद्धान थे। उन्होंने इन विषयों पर ७५ से अधिक ग्रंथ लिखे। आपने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया था तथा ६ माह तक कठोर कारावास भोगा था। वे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ सम्मान से अलंकृत किया।
डॉ० द्विवेदी की गणना विश्व के प्रमुख प्राच्यविद्याविदों, भाषाविदों और वेदविदों में की जाती है। आप संस्कृत भाषा के सरलीकरण पद्धति के उन्नायक एवं प्रवर्तक माने जाते हैं। संस्कृत को लोकप्रिय बनाने में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान है। वेदों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए आपने वेदामृतम् ग्रन्थमाला के ४० भागों का प्रकाशन किया है।
जीवन परिचय
संपादित करेंडॉ० कपिलदेव द्विवेदी का जन्म ६ दिसम्बर १९१८ को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के गहमर में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। आपके पिता श्री बलरामदास जी और माता श्रीमती वसुमती देवी थीं। आपके पिता एक त्यागी, तपस्वी समाजसेवी थे जिन्होने अपना पूरा जीवन देशसेवा में लगाया। आपके बाबा श्री छेदीलाल जी प्रसिद्ध उद्योगपति थे। चौथी कक्षा तक अध्ययन के बाद १० वर्ष की आयु में गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर, हरिद्वार में संस्कृत की उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया। आपने १९२८ से १९३९ तक गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की। गुरुकुल में रहते हुए आपने शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की और आपको गुरुकुल की उपाधि विद्याभास्कर प्राप्त हुई। सभी परीक्षाओं में आप प्रम श्रेणी के साथ प्रथम स्थान पर रहे। यहाँ रहते हुए आपने दो वेद (यजुर्वेद और सामवेद ) कंठस्थ किए और उसके परिणामस्वरूप गुरुकुल से द्विवेदी की उपाधि प्रदान की गई। आपने गुरुकुल में रहते हुए बंगला और उर्दू भाषा भी सीखी। साथ ही आपने भारतीय व्यायाम, लाठी, तलवार, युयुत्सु और पिरामिड बिल्डिंग आदि की शिक्षा भी प्राप्त की। गुरुकुल में रहते हुए आप १९३९ में स्वतंत्रता संग्राम के अंग हैदराबाद आर्य-सत्याग्रह आन्दोलन में ६ मास कारावास में रहे।
पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से १९४६ में प्रथम श्रेणी में प्रथम रहते हुए एम०ए० संस्कृत की परीक्षा उत्तीर्ण की। वहीं से एम०ओ०एल० की उपाधि भी आपको प्राप्त हुई। तदनन्तर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में डॉ० बाबूराम सक्सेना के निर्देशन में भाषाविज्ञान विषय में १९४९ में डी०फिल्० की उपाधि प्राप्त की। अपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से व्याकरण विषय में आचार्य की उपाधि प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम रहते हुए उत्तीर्ण की। आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में प्रथम श्रेणी में एम०ए० (हिन्दी) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की । आपने अनेक भाषाओं में विशेष योग्यता प्राप्त की। प्रयाग विश्वविद्यालय से आपने जर्मन, फ्रेंच, रूसी, चीनी आदि भाषाओं में प्रोफिसिएन्सी परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके अतिरिक्त पालि, प्राकृत, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी और उर्दू में भी आपको विशेष दक्षता प्राप्त थी।
नारायण स्वमी हाईस्कूल रामगढ नैनीताल से आपने शिक्षण कार्य आरम्भ किया। तदन्तर सेंट एण्ड्रयुज कालेज, गोरखपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। नवम्बर १९५४ से १९६५ तक डीएसबी राजकीय महाविद्यालय नैनीताल में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। १९६५ में नैनीताल से ज्ञानपुर (भदोही) आये। काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ज्ञानपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य पद पर १९७७ तक कार्य किया। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय गोपेश्वर से प्राचार्य पद पर कार्य करते हुए यहीं से अवकाशप्राप्त हुए। आपने ज्ञानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाया और यही बस गये। १९८० से १९८२ तक गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के कुलपति रहे। आपने ज्ञानपुर में विश्वभारती अनुसन्धान परिषद की स्थापना की और उसके निदेशक रहे।
आपका विवाह १९५३ में चन्दौसी निवासी श्री रामशरणदास की पुत्री ओमशान्ति से हुआ। आपके पाँच पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं।
आपने संस्कृत और भारतीय संस्कृति की पताका फहराने के लिए अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड, जर्मनी, हालैण्ड, फ्रान्स, इटली, स्वीटजरलैण्ड, सूरीनाम, गुयाना, मारीशस, कीनिया, तंजानिया और सिंगापुर आदि देशों की कई बार यात्रा की।
ग्रन्थलेखन
संपादित करेंडा. कपिलदेव द्विवेदी ने 35 वर्ष की अवस्था मे ही ग्रन्थों का लेखन कार्य आरम्भ कर दिया था और देहान्त के एक वर्ष पूर्व तक आप निरन्तर लेखन कार्य करते रहे। आपने ८० से अधिक ग्रन्थो की रचना की। अपनी उत्कृष्ठ रचनाओं से आपने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया और अनेक सम्मान और पुरस्कार भी प्राप्त किये।
आपकी कृतियां से ५ लाख से अधिक व्यक्ति संस्कृत भाषा सीख चुके है। ये ग्रन्थ आज भी संस्कृत भाषा के प्रचार और प्रसार के महत्वपूर्ण माध्यम है। आपने अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक वेदामृत ग्रन्थमाला ४० के माध्यम से वेदों के दुरूह ज्ञान को सरल बनाकर सामान्य जन तक पहुचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। ज्ञानपुर की धरती पर रहकर आपने अपनी कृतियो के साथ ज्ञानपुर को भी अमर कर दिया है।
रचनाएँ
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सम्मान एवं पुरस्कार
संपादित करेंदेश-विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा आपको दो दर्जन से अधिक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।
- संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए आपको भारत सरकार ने सन् १९९१ में 'पद्मश्री' अलंकरण से विभूषित किया।[1]
- भारतीय विद्याभवन बंगलौर द्वारा गुरु गंगेश्वरानन्द वेदरत्न पुरस्कार (२००५)
- दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा महर्षि वाल्मीकि सम्मान (२०१०-२०११)
- भारत सरकार द्वारा १५ अगस्त २०१० को संस्कृत भाषा की सेवा के लिए राष्ट्रपति सम्मान
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "डॉ कपिलदेव द्विवेदी का जीवनपरिचय". मूल से 18 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 दिसंबर 2018.
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- विश्वभारती अनुसन्धान संस्थान, ज्ञानपुर, उत्तरप्रदेश
- डॉ कपिलदेव द्विवेदी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
- रचनानुवाद कौमुदी (डॉ कपिलदेव द्विवेदी कृत)