गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय

प्राचीन हिंदी विश्वविद्यालय

गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय भारत के उत्तराखण्ड राज्य के हरिद्वार शहर में स्थित है। इसकी स्थापना सन् 1902 में स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी। विश्वविद्यालय, हरिद्वार रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। लार्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी माध्यम की पाश्चात्य शिक्षा नीति के स्थान पर हिन्दी के माध्यम से भारतीय साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के साथ-साथ आधुनिक विषयों की उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन तथा अनुसंधान के लिए यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था।

गुरुकुल काँगड़ी समविश्वविद्यालय

आदर्श वाक्य:ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत
(ब्रह्मचर्य-रूपी तप के द्वारा विद्वान्, ज्ञानी मृत्यु को दूर भगा देते हैं।)
स्थापित1902
प्रकार:सार्वजनिक विश्वविद्यालय
कुलाधिपति:श्री सत्यपाल सिंह
कुलपति:डॉ. हमेलता
विद्यार्थी संख्या:6000 से अधिक
अवस्थिति:हरिद्वार, उत्तराखण्ड, भारत
परिसर:ग्रामीण, नगरीय
मुख्य रंग:केसरिया   और सफेद  
उपनाम:जीकेवी
सम्बन्धन:विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
जालपृष्ठ:www.gkv.ac.in

इस विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य जाति और छुआ-छूत के भेदभाव के बिना गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत् अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के मध्य निरन्तर घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर छात्र-छात्राओं को प्राचीन एवं आधुनिक विषयों की शिक्षा देकर उनका मानसिक और शारीरिक विकास कर चरित्रवान आदर्श नागरिक बनाना है।

जून 1962 में भारत सरकार ने इस शिक्षण संस्था के राष्ट्रीय स्वरूप तथा शिक्षा के क्षेत्र में इसके अप्रतिम् योगदान को दृष्टि में रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक्ट 1956 की धारा 3 के अन्तर्गत् समविश्वविद्यालय (डीम्ड यूनिवर्सिटी) की मान्यता प्रदान की और वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शन, हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी, मनोविज्ञान, गणित तथा प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विषयों में स्नातकोत्तर अध्ययन की व्यवस्था की गई। उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त वर्तमान में विश्वविद्यालय में भौतिकी, रसायन विज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान, अभियांत्रिकी, आयुर्विज्ञान व प्रबन्धन के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्थापित स्वायत्तशासी संस्थान ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद्’ (NACC) द्वारा मई 2002 में विश्वविद्यालय को चार सितारों (****) से अलंकृत किया गया था। परिषद् के सदस्यों ने विश्वविद्यालय की संस्तुति यहां के परिवेश, शैक्षिक वातावरण, शुद्ध पर्यावरण, बृहत् पुस्तकालय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय आदि से प्रभावित होकर की थी। विश्वविद्यालय की सभी उपाधियां भारत सरकार/विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्य हैं। यह विश्वविद्यालय भारतीय विश्वविद्यालय संघ (A.I.U.) तथा कामनवैल्थ विश्वविद्यालय संघ का सदस्य है।

इस विश्वविद्यालय के चार परिसर हैं-

  1. मुख्य परिसर (हरिद्वार) - केवल लड़कों के लिए
  1. अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संकाय (बहारदराबाद,हरिद्वार) - केवल लड़कों के लिए
  1. कन्या गुरुकुल महाविद्यालय हरिद्वार - केवल कन्याओं के लिए
  2. कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, देहरादून - केवल कन्याओं के लिए

महात्मा गांधी और गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय

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जब मै पहाड़ से दीखने वाले महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन करने और उनका गुरुकुल देखने गया, तो मुझे वहाँ बड़ी शांति मिली। हरिद्वार के कोलाहल और गुरुकुल की शांति के बीच का भेद स्पष्ट दिखायी देता था। महात्मा ने मुझे अपने प्रेम से नहला दिया। ब्रह्मचारी मेरे पास से हटते ही न थे। रामदेवजी से भी उसी समय मुलाकात हुई और उनकी शक्ति का परिचय मैं तुरन्त पा गया। यद्यपि हमे अपने बीच कुछ मतभेद का अनुभव हुआ, फिर भी हम परस्पर स्नेह की गाँठ से बँध गये। गुरुकुल मे औद्योगिक शिक्षा शुरु करने की आवश्यकता के बारे मै रामदेव और दूसरे शिक्षकों के साथ मैने काफी चर्चा की। मुझे गुरुकुल छोड़ते हुए दुःख हुआ।

-- महात्मा गांधी, सत्य के प्रयोग, आत्मकथा

भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली में मुख्य तीन तत्व माने जा सकते हैं -

  1. गुरु और शिष्य का आध्यात्मिक सम्बन्ध,
  2. सत्य, तप, दम और शम आदि साधनों द्वारा दृढ़ चरित्र का निर्माण,
  3. स्वाध्याय अर्थात् अपरा विद्या की प्राप्ति।

यही गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली का मूल रूप है।

19वी सदी के अन्धकारमय भारत में जिन महानुभावों ने जागृति की ज्योति जगाई उनमें ऋषि दयानन्द का सन्देश बहुत व्यापक था। वे युग-प्रवर्तक ऋषि थे, जिन्होंने शिक्षा, राजनीति, समाज-संगठन आदि सब क्षेत्रों में नए विचारों का संदेश दिया। उन्होने अपने समय में प्रचलित शिक्षा-पद्धति में अनेक दोष अनुभव कर प्राचीन आर्य शिक्षा-प्रणाली का प्रतिपादन किया। ऋषि ने उसे 'गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली' का नाम दिया।

उनके समय भारत में शिक्षा की मुख्यतया दो प्रणालियाँ प्रचलित थीं - एक भारत के ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रारम्भ की गई थी, और दूसरी पुरानी परम्परा के अनुसार पण्डित-मण्डली में प्रचलित थी। सरकार द्वारा प्रचलित प्रणाली भारत के राष्ट्रीय तथा धार्मिक आदर्शों के प्रतिकूल थी। उसमें भारत की भाषा, धर्म, सभ्यता, साहित्य तथा संस्कृति की सर्वथा उपेक्षा की गई थी। पण्डित मण्डली की शिक्षा-पद्धति समय की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करती थी, उसमें वर्तमान युग के ज्ञान-विज्ञानों को कोई स्थान प्राप्त नहीं ही था ,वह पाखंडों का पोषण करती थी। चरित्र निर्माण के लिए ब्रह्मचर्य, त्याग, तपस्या आदि जिन आदर्शों का पालन आवश्यक है, उनका दोनों प्रणालियों में महत्व न था।

ऋषि दयानन्द ने अनुभव किया कि भारत में प्राचीन गुरुकुल प्रणाली का पुनरुद्धार कर इन दोषों को दूर किया जाना चाहिए। उन्होंने शिक्षा के आदर्शों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन ‘सत्यार्थ प्रकाश' के तीसरे समुल्लास में किया -निःसन्देह ऋषि दयानन्द के विचार शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त क्रान्तिकारी विचार थे। ऋषि दयानन्द के एक प्रमुख शिष्य महात्मा मुन्शी राम (जो बाद में सन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए) ने 1897 में गुरुकुल को प्रारम्भ करने की आवश्यकता के निम्नलिखित कारण बताए -

वेद आर्य जाति के प्राण है। विशाल संस्कृत साहित्य का मूल स्रोत वेद ही हैं। संस्कृत का अध्ययन तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक अंगों और उपांगों के साथ वेद का अध्ययन न किया जाए। अत: ऐसे शिक्षण संस्थानों की आवश्यकता है, जहाँ संस्कृत साहित्य के साथ-साथ वैदिक साहित्य का भी अध्ययन हो। भारत की शिक्षा सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय तभी हो सकती है जब यहाँ के शिक्षण संस्थानों में संस्कृत का अध्ययन हो। अत: आवश्यकता इस बात की है कि हम आर्य-जाति के लिए शिक्षा की एक ऐसी योजना तैयार करें जो सच्चे अर्थों में ‘राष्ट्रीय' हो, जो आर्य जाति की ‘राष्ट्रीय शिक्षा' की आवश्यकता को पूर्ण करें। अर्थात् हमें विदेशी ज्ञान-विज्ञानों को पढ़ते हुए अपनी राष्ट्रीयता की रक्षा करनी चाहिए।

यह गुरुकुल की स्थापना का अन्य कारण था। 'ब्रह्मचर्य ' शिक्षा का मुख्य आधार है। हमारी संस्थाएँ ऐसी होनी चाहिए जो नगरों के दूषित प्रभावों से दूर हो और जहाँ ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन होता हो। सरकारी विश्वविद्यालयों में परीक्षा की जो पद्धति प्रचलित है, वह वास्तविक विद्वता के मार्ग में बाधक है। अत: गुरुकुल इस परीक्षा पद्धति से दूर रहता। शिक्षण संस्थानों में शिक्षक को बालक के माता-पिता का स्थान लेना चाहिए। आज भारत के विद्यालयों में शिक्षक गण माता-पिता का स्थान नहीं ले पा रहे हैं। अतः गुरुकुल में इस कमी को दूर किया जाता है। यह एक ऐसा अनौपचारिक वातावरण होता है जहाँ शिक्षा के लिए कोई फीस नहीं होती। गुरुकुल जैसे विद्यालयों की आवश्यकता का अनुभव किया जाता है।

19वीं शताब्दी में भारत में दो प्रकार की शिक्षापद्धतियाँ प्रचलित थीं। पहली पद्धति ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित की गई सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों की प्रणाली थी और दूसरी संस्कृत, व्याकरण, दर्शन आदि भारतीय वाङ्मय की विभिन्न विद्याओं को प्राचीन परंपरागत विधि से अध्ययन करने की पाठशाला पद्धति। दोनों पद्धतियों में कुछ गंभीर दोष थे। पहली पद्धति में पौरस्त्य (पूर्वी) ज्ञानविज्ञान की घोर अपेक्षा थी और यह सर्वथा अराष्ट्रीय थी। इसके प्रबल समर्थक तथा 1835 ई. में अपने सुप्रसिद्ध स्मरणपत्र द्वारा इसका प्रवर्तन करानेवाले लार्ड मेकाले (1800-1859 ई.) के मतानुसार 'किसी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की आल्मारी के एक खाने में पड़ी पुस्तकों का महत्व भारत और अरब के समूचे साहित्य के बराबर' था। अत: सरकारी शिक्षा पद्धति में भारतीय वाङ्मय की घोर उपेक्षा करते हुए अंग्रेजी तथा पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान विज्ञान के अध्ययन पर बल दिया गया। इस शिक्षा पद्धति का प्रधान उद्देश्य मेकाले के शब्दों में 'भारतीयों का एक ऐसा समूह पैदा करना था, जो रंग तथा रक्त की दृष्टि से तो भारतीय हो, परंतु रुचि, मति और अचार-विचार की दृष्टि से अंग्रेज हो'। इसलिए यह शिक्षापद्धति भारत के राष्ट्रीय और धार्मिक आदर्शों के प्रतिकूल थी। दूसरी शिक्षा प्रणाली, पंडितमंडली में प्रचलित पाठशाला पद्धति थी। इसमें यद्यपि भारतीय वाङ्मय का अध्ययन कराया जाता था, तथापि उसमें नवीन तथा वर्तमान समय के लिए आवश्यक ज्ञान विज्ञान की घोर उपेक्षा थी। उस समय देश की बड़ी आवश्यकता पौरस्त्य एवं पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान का समन्वयय करते हुए दोनों शिक्षा पद्धतियों के उत्कृष्ठ तत्वों के सामंजस्य द्वारा एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना था। इस महत्वपूर्ण कार्य का संपन्न करने में गुरुकुल काँगड़ी ने बड़ा सहयोग दिया।

गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम पिछली शताब्दी के भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में असाधारण महत्व रखनेवाले आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद (1824-1883 ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। 30 अक्टूबर 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्यसमाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया और महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30,000 रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और अविचल निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई।

किन्तु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26.15) उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। इसी समय नजीबाबाद के धर्मनिष्ठ रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, 4 मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया।

गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तीव्र गति से होने लगा। 1907 ई. में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 ई. में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन १९१६ में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। आरम्भ से ही सरकार के प्रभाव से सर्वथा स्वतंत्र होने के कारण ब्रिटिश सरकार गुरुकुल कांगड़ी को चिरकाल तक राजद्रोही संस्था समझती रही। 1917 ई. में वायसराय लार्ड चेम्ज़फ़ोर्ड के गुरुकुल आगमन के बाद इस संदेह का निवारण हुआ। 1921 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। 1923 ई. में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया। देश के विभिन्न भागों में इससे प्ररेणा ग्रहण करके, इसके आदर्शों और पाठविधि का अनुसरण करनेवाले अनेक गुरुकुल स्थापित हुए।

24 सितंबर 1924 ई. को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए 1 मई 1930 ई. को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया। 1935 ई. में इसका प्रबन्ध करने के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अंतर्गत एक पृथक विद्यासभा का संगठन हुआ।

गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य

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  • 1. गुरु-शिष्य के मध्य पिता-पुत्र के सम्बन्धों के प्राचीन आदर्श को (ब्रह्मचर्य के आदर्श को) पुनः स्थापित करना और उसे बालक के विकास का आधार बनाना।
  • 2. बालक का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करना।
  • 3. विद्यार्थियों के चरित्र का विकास करना तथा उनके मन में प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था उत्पन्न करना।
  • 4. वैदिक साहित्य तथा संस्कृत साहित्य को उनके उपयुक्त स्थान दिलाना।
  • 5. प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान के साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन करवाना।
  • 6. प्रत्येक प्रकार की शिक्षा के हर स्तर पर मातृभाषा को माध्यम बनाना।
  • 7. प्रचलित दोषपूर्ण परीक्षा-पद्धति का विकल्प प्रस्तुत करना।
  • 9. प्राचीन संस्कृत साहित्य से सम्बन्धित साहित्य तथा आधुनिक विज्ञान का मातृभाषा में परिवर्तन।

गुरुकुल कांगड़ी शिक्षा की विशेषताएँ

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गुरुकुल शिक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ हैं- विद्यार्थियों का गुरुओं के संपर्क में, उनके कुल या परिवार का अंग बनकर रहना, बह्मचर्यपूर्वक सरल एवं तपस्यामय जीवन बिताना, चरित्रनिर्माण और शारीरिक विकास पर बौद्धिक एवं मानसिक विकास की भाँति पूरा ध्यान देना, शिक्षा में संस्कृत को अनिवार्य बनाना, वैदिक वाङ्मय के अध्ययन पर बल देना, शिक्षा का माध्यक मातृभाषा हिंदी को बनाना, संस्कृत, दर्शन, वेद आदि प्राचीन विषयों के अध्ययन के साथ आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान और अंग्रेजी की पढ़ाई तथा राष्ट्रीयता की भावना। आजकल ये विशेषताएँ सर्वमान्य हो गई हैं, किंतु इस शताब्दी के आरंभ में ये सभी विचार सर्वथा क्रांतिकारी, नवीन और मौलिक थे।

गुरुकुल शिक्षा की कतिपय विशेषताएँ निम्नलिखित है:

  • (1) प्रो॰ इन्द्र विद्यावाचस्पति ने गुरुकुल शिक्षा की विशेषता बताते हुए लिखा है कि गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता जो उसे अन्य प्रणालियों से भिन्न करती है, यह है कि जहाँ अन्य शिक्षा-पद्धतियों में अध्ययन पर अधिक बल दिया जाता है वहाँ गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में अध्ययन को केवल साधन मानकर चरित्र निर्माण को प्रमुखता दी जाती है। निःसन्देह यह प्रमुख विशेषता है।
  • (2) प्रत्येक प्रकार की और हर स्तर की शिक्षा का माध्यम हिन्दी है।
  • (3) बालक गुरु के कुल का अंग बनकर रहता है। बालक अपने घर या परिवार से केवल हटकर दूसरे परिवार में पहुँचता है। जन्म देने वाले अपने पिता के छोटे परिवार से हटकर आचार की शिक्षा देने वाले आचार्य के बड़े परिवार का सदस्य बन जाता है।
  • (4) बालक को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है।
  • (5) बालक के पिता का सामाजिक-आर्थिक स्तर क्या है - इसका कोई लिहाज गुरुकुल में नहीं रखा जाता है। अत: धनी-निर्धन, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव गुरुकुल में नहीं बरता जाता।
  • (6) बालकों में तपस्यापूर्ण जीवन का अभ्यास कराया जाता है।
  • (7) आश्रम का जीवन विद्यार्थियों को अस्वस्थकारी प्रभावों से बचाता है। व्रताभ्यास द्वारा उनका शतक प्रशिक्षण भी होता है।
  • (8) कठोर परिवीक्षण तथा निश्चित दैनिक कार्यक्रम द्वारा विद्यार्थियों में समय का सदुपयोग करने की प्रवृति विकसित की जाती है।
  • (9) विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों पर प्राचीन भारतीय तथा आधुनिक पश्चिमी विचारों का तुलनात्मक ज्ञान मिलता है।
  • (10) परीक्षाओं का आतंक नहीं रहता।
  • (11) कक्षा उत्तीर्ण करने के लिए केवल परीक्षा भवन में सम्पन्न हुई परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं, दैनिक जीवन के कार्यक्रमों को नियमित रूप से करना भी आवश्यक है।
  • (12) शिक्षा का स्तर अत्यन्त उच्च है।
  • (13) पुस्तकालय के प्रयोग पर बल दिया जाता है। पुस्तकालय में विभिन्न विषयों के अच्छेस्तर की लगभग एक लाख पुस्तकें हैं। भाषा की दृष्टि से हिन्दी, अंग्रेजी, सं स्कृत, उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त रूसी भाषा की भी पुस्तकें वहाँ है।
  • (14) समन्वित विकास पर ध्यान दिया जाता है। इसी का परिणाम है कि गुरुकुल के हर तीन स्नातकों में से एक प्रतिष्ठित लेखक है। गुरुकुल के छात्र 7 छात्राओं ने शारीरिक व्यायाम के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। छाती पर पत्थर तोड़ना बहुत से आदमियों से भरी गाड़ी छाती पर से निकालना, चलती मोटर को कमर में रस्सा बांध कर रोक देना आदि व्यायाम एक ओर है तो दूसरी ओर है हॉकी, वालीबॉल आदि की उनकी टीम जिन्होंने कलकत्ता, मेरठ, दिल्ली आदि में पुरस्कार प्राप्त किए है।

शिक्षा का माध्यम

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प्रारम्भ से ही गुरुकुल में सब विषयों की शिक्षा हिन्दी के माध्यम द्वारा दी जाती थी। विज्ञान, गणित, पाश्चात्य दर्शन आदि विषय भी हिन्दी में ही पढ़ाए जाते थे। जब सन् 1907 में महाविद्यालय विभाग खुला तो उसमें भी हिन्दी को ही माध्यम रखा गया। उस समय हिन्दी में उच्च शिक्षा देना एक असम्भव बात समझी जाती थी। गुरुकुल ने इसे कार्यरूप में परिणत करके दिखा दिया। उस समय आधुनिक विद्वानों की पुस्तकें हिन्दी में नहीं थी। गुरुकुल के उपाध्यायों ने पहले-पहल इस क्षेत्र में काम किया और गुरुकुल के अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थ प्रकाशित हुए। प्रो॰ महेशचरण सिंह की 'हिन्दी कैमिस्ट्री', प्रो॰ साठे का 'विकासवाद', श्रीयुत गोवर्धन की 'भौतिकी' और 'रसायन' प्रो॰ रामशरणदास सक्सेना का 'गुणात्मक विश्लेषण', प्रो॰ सिन्हा का 'वनस्पतिशास्त्र' प्रो॰ प्राणनाथ का 'अर्थशास्त्र', 'राष्ट्रीय आय-व्यय शास्त्र' और 'राजनीतिशास्त्र', प्रो॰ बालकृष्ण का 'अर्थशास्त्र' और 'राजनीतिशास्त्र', और प्रो॰ सुधाकर का 'मनोविज्ञान' हिन्दी में अपने-अपने विषय के पहले ग्रन्थ हैं। हिन्दी में वैज्ञानिक ग्रन्थों की रचना ही गुरुकुल द्वारा प्रारम्भ हुई। इन वैज्ञानिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से उच्चकोटि के ग्रन्थ गुरुकुल द्वारा प्रकाशित हुए। प्रो॰ रामदेव ने भारतीय इतिहास के संबंध में मौलिक अनुसंधान कर अपना प्रसिद्ध 'भारतवर्ष का इतिहास' प्रकाशित किया। महात्मा मुंशी रामजी ने भी विविध धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन कर मौलिक ग्रन्थ लिखे।

सन् 1918 में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष डॉ॰ सैडलर (जिनकेनाम से इस कमीशन को सैडलर कमीशन भी कहते है) सर आशुतोष मुखर्जी के साथ गुरुकुल पधारे। गुरुकुल का अवलोकन करके वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने एक पत्र में गुरुकुल के संबंध में विचार प्रकट किए -

मैं समझता हूँ कि जिस शिक्षा विधि में मातृभाषा को प्रथम और सबसे प्रमुख स्थान दिया जाए, वहीं यह संभव है कि मन का स्वतंत्र विकास होकर मानसिक वृत्तियों तथा भावों पर प्रभुत्व प्राप्त हो सके। मेरी हार्दिक इच्छा है कि गुरुकुल का विकास राज्य द्वारा स्वीकृत एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय के रूप में हो सके।

उस युग के एक प्रसिद्ध विद्वान श्रीनिवास शास्त्री उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के घोर समर्थक थे, पर गुरुकुल का कार्य संतोषप्रद पाने पर उन्होंने कहा -

मेरा अपना विचार यह रहा है कि विद्यालय विभाग में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएँ ही रहनी चाहिए, परन्तु महाविद्यालय विभाग की पढ़ाई अंग्रेजी के माध्यम द्वारा होनी चाहिए। परन्तु अब गुरुकुल को देखकर मैं अपने इस विचार से परे हट रहा हूँ।

इसी प्रकार, ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधानमंत्री रेम्जे मैक्डनॉल्ड ने कहा था कि मैकाले के बाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में जो सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक प्रयत्न हुआ, वह गुरुकुल है।

गुरुकुल कांगड़ी का सबसें बड़ा कर्तृत्व अपने क्रियात्मक परीक्षण द्वारा इन विचारों को सर्वमान्य बनाना था। पहले यह असंभव समझा जाता था कि हिंदी उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन अध्यापन का माध्यम बन सकती है। गुरुकुल ने सर्वप्रथम आधुनिक भारत में इस विचार को अपने परीक्षण द्वारा संभव बनाया। यहाँ अध्यापकों तथा प्राध्यापकों ने रसायन, भौतिक विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, मनोविज्ञान, विकासवाद आदि विषयों पर हिंदी में पहली पुस्तकें लिखीं। हिंदी के वैज्ञानिक लेखन को इस बात से बड़ा बल मिला कि गुरुकुल कांगडी (१९००) ने विज्ञान सहित सभी विषयों की शिक्षा के लिए हिंदी को माध्यम बनाया और तदनुरूप १७ पुस्तकों का प्रणयन भी किया।

मातृभाषा द्वारा शिक्षा के इस परीक्षण को देखने के लिए 1918 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग ने प्रधान डॉ॰ सैडलर, सर आशुतोष मुखर्जी, श्रीनिवास शास्त्री आदि महानुभाव यहाँ पर पधारे और महाविद्यालय विभाग की शिक्षा के लिए अंग्रेजी का माध्यम अनिवार्य रूप से बनाए रखने के संबंध में उनके एवं देश के अन्य शिक्षाशास्त्रियों के विचारों में मौलिक परिवर्तन हुआ। गुरुकुल ने सभी राष्ट्रीय और समाज सुधार के आंदोलनों में प्रमुख भाग लिया। हिंदी साहित्य को अनेक यशस्वी पत्रकार, लेखक और साहित्यिक प्रदान किए। संस्कृत एवं वैदिक वाङ्मय के अनुशीलन, अध्ययन अध्यापन को विलक्षण प्रोत्साहन दिया।

इस गुरुकुल से निकले हुए स्नातक हिन्दी के प्रथम श्रेणी के लेखक सिद्ध हुए और उन्होने हिन्दी को महामूल्यवान साहित्य दिया। इनमें प्रमुख रहे, इन्द्र विद्यावाचस्पति, प्राणनाथ विद्यालंकार, सत्यकेतु विद्यालंकार, जयदेव शर्मा विद्यालंकार, जयचन्द विद्यालंकार, चन्द्रगुप्त वेदालंकार तथा आचार्य रामदेव

वर्तमान स्थिति

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संप्रति गुरुकुल कांगड़ी में वेदवेदांग, संस्कृत, दर्शनशास्त्र, इतिहास, राजनीति, आयुर्वेद, कृषि तथा वैज्ञानिक विषयों की उच्च शिक्षा का प्रबन्ध है। इसके लिए वेद महाविद्यालय, आर्ट्‌स महाविद्यालय, आयुर्वेद महाविद्यालय, कृषि विद्यालय और विज्ञान महाविद्यालय व्यवस्थित हैं। विद्यालय का पाठ्यक्रम 10 वर्ष का है, इसमें आठ से 10 वर्ष तक के बालक लिए जाते हैं। जिन्हें विद्यालय आश्रम में रहना पड़ता है, उन्हें संस्कृत व्याकरण आदि ग्रंथ, प्राचीन विषयों के साथ गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि आधुनिक विषयों का अध्ययन करना पड़ता है। 10 वर्ष की शिक्षा और परीक्षा के उपरांत अधिकारी की उपाधि दी जाती है। इसे बाद महाविद्यालयों में स्नातक परीक्षा का चार वर्ष का पाठ्यक्रम है। वेद तथा आर्ट्‌स महाविद्यालयों में वेद, वेदांग और दर्शन के अध्ययन के साथ इतिहास, राजनीति, मनोविज्ञान और अर्वाचीन विषयों का अध्ययन कराया जाता है और स्नातक बनने पर वेदालंकार, विद्यालंकार, आयुर्वेदालंकार की उपाधियाँ दी जाती हैं। इसके बाद विभिन्न विषयों में दो वर्ष का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम है जिसे उत्तीर्ण करने पर वाचस्पति की उपाधि दी जाती है। विशिष्ट विषयों का अनुसंधान तथा विद्वानों को सम्मानित करने की उपाधि विद्यामार्तंड है।

गुरुकुल की प्रबंध व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान मुख्याधिष्ठाता या उप कुलपति का है। यह विद्यासभा द्वारा पाँच वर्ष के लिए नियत किया जाता है। इसकी देख-रेख में विभिन्न महाविद्यालयों के प्रधानाचार्य या प्रिंसिपल अपना कार्य करते हैं। उप कुलपति की सहायता के लिए सहायक मुख्याधिष्ठाता या प्रस्तोता होता है। इसके अतिरिक्त गुरुकुल कांगड़ी के उद्योग विभाग के नियंत्रण के लिए एक व्यवसाय पटल है। गुरुकुल कांगड़ी का सबसे बड़ा उद्योग गुरुकुल फ़ार्मेसी है, जिसमें आयुर्वेद की दवाइयाँ शास्त्रोक्त एवं प्रामाणिक रूप से तैयार की जाती हैं। गुरुकुल की अर्थव्यवस्था के नियंत्रण के लिए एक वित्तसमिति है।

स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद गुरुकुल कांगड़ी द्वारा प्रदान की जानेवाली विद्यालंकार, वेदालंकार, आयुर्वेदालंकार आदि उपाधियों को केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों ने तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों ने मान्यता प्रदान की। 1961 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब से पृथक स्वतन्त्र संस्था के रूप में गुरुकुल कांगड़ी का संगठन बना और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इसे 'मानित विश्वविद्यालय' स्वीकार किया।

अध्ययनोपयोगी सुविधाएँ

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पुस्तकालय

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विश्वविद्यालय-पुस्तकालय का इतिहास भी गुरुकुल की स्थापना के साथ ही प्रारम्भ होता है। निरन्तर 112 वर्षों से भी अधिक पोषित यह पुस्तकालय आज वेद, वेदांग, आर्य साहित्य, तुलनात्मक धर्म एवं मानवीय ज्ञान, विज्ञान, प्रबन्धन, एवं प्रौद्योगिकी की विविध शाखाओं पर प्रकाश डालने वाले एक लाख से अधिक ग्रन्थों से अलंकृत है। सहस्त्रों दुर्लभ ग्रन्थों एवं अनेक अप्राप्य पत्रिकाओं से समृद्ध यह पुस्तकालय आर्य संस्कृति की धरोहर के रूप में विश्वविख्यात है। विश्वविद्यालय पुस्तकालय वैदिक एवं संस्कृत साहित्य, भारतीय दर्शन, आर्य साहित्य, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति तथा आधुनिक विषयों में भी अपने समृद्ध संग्रह के कारण देशव्यापी ख्याति प्राप्त पुस्तकालयों में से एक है। इसके अतिरिक्त सभी विभागों में स्नातकोत्तर कक्षाओं हेतु विभागीय पुस्तकालय की समुचित व्यवस्था है। कन्या गुरुकुल परिसर, हरिद्वार व कन्या गुरुकुल परिसर, देहरादून में अलग पुस्तकालय की व्यवस्था है जिनमें विभिन्न विषयों की पुस्तकें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के इन्फोनेट प्रोग्राम के अन्तर्गत पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की 400 से अधिक अन्तर्राष्ट्रिय शोध पत्रिकायें कम्प्यूटर नेटवर्क के माध्यम से उपलब्ध हैं। अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संकाय तथा आयुर्वेद एवं आयुर्विज्ञान संकाय के भी अपने-अपने समृद्ध पुस्तकालय हैं।अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संकाय के पुस्तकालय में प्रतिवर्ष ३०००० से अधिक पुस्तको का आदान प्रदान होता है वर्तमान में श्री शत्रुघन झा इसके प्रभारी के रूप में नियुक्त हैं .

पुरातत्त्व संग्रहालय

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विश्वविद्यालय का संग्रहालय अत्यन्त प्राचीन काल के कला अवशेषों, शस्त्रों व सिक्कों आदि से सुसज्जित है। एन.सी.सी. अनुशासन एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए छात्रों को शिक्षित करने के उद्देश्य से एन. सी. सी. की सुविधा उपलब्ध है।

राष्ट्रीय सेवा योजना

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स्नातक स्तर पर भारत सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त अनुदान से विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय सेवा योजना की चार यूनिट हैं जो ग्रामीण अंचल के विकास में सतत् कार्यरत हैं।

विश्वविद्यालय में छात्रों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए शारीरिक शिक्षा विभाग स्थापित है। विश्वविद्यालय में आन्तरिक एवं बाह्य खेलों के लिए विस्तृत मैदान तथा सभी प्रकार की सुविधायें उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त विभाग में आधुनिकतम मशीनों से युक्त व्यायामशाला, कम्प्यूटर प्रयोगशाला, खेल मनोविज्ञान प्रयोगशाला, किन्सयोलॉजी प्रयोगशाला एवं विभागीय पुस्तकालय की सुविधायें भी उपलब्ध हैं। कन्या गुरुकुल परिसरों में शारीरिक शिक्षा की सुविधा छात्राओं के लिए अलग से उपलब्ध है।

आजीवन शिक्षा

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आजीवन शिक्षा के अन्तर्गत विश्वविद्यालय द्वारा विभिन्न व्यावसायिक प्रशिक्षण, लघु प्रशिक्षण एवं पुनश्चर्या कार्यक्रम ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में संचालित किये जाते हैं।

कम्प्यूटर केन्द्र

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विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रदत्त अनुदान से विश्वविद्यालय में कम्प्यूटर केन्द्र की स्थापना सत्र 1987-88 में की गई थी। यह केन्द्र व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ छात्रों के पठन-पाठन व विश्वविद्यालय के कार्यों के कम्प्यूटरीकरण में निरन्तर कार्यरत है। कम्प्यूटर केन्द्र में इन्टरनेट की सुविधा भी उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सभी विभागों एवं कन्या गुरुकुल परिसर देहरादून व हरिद्वार में छात्र-छात्राओं की आवश्यकतानुसार कम्प्यूटर प्रयोगशालाओं की स्थापना की गई है जिनमें आधुनिकतम तकनीक पर आधारित कम्प्यूटर सिस्टम उपलब्ध हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा यू.जी.सी.-इन्फोनेट प्रोग्राम के अर्न्तगत स्वीकृत वी सेट की स्थापना कम्प्यूटर केन्द्र में की गयी है। वी सेट के माध्यम से इण्टरनेट की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।

छात्रावास

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विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर व कन्या गुरुकुल परिसर, देहरादून में छात्रावास की सीमित सुविधा उपलब्ध है।

प्लेसमेन्ट सेल

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विश्वविद्यालय में प्लेसमेन्ट सेल स्थापित है। इस सेल द्वारा विभिन्न पाठ्यक्रमों के छात्र/छात्राओं के लिए प्रतिष्ठित कम्पनियों से सम्पर्क कर कैम्पस साक्षात्कार की व्यवस्था की जाती है।

अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ

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विश्वविद्यालय में दसवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ की स्थापना की गई है। इस प्रकोष्ठ का मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालय के विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु भारत सरकार की आरक्षण नीतियों को प्रभावी रूप से क्रियान्वयन कराना एवं अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के छात्र-छात्राओं की विभिन्न शैक्षणिक एवं प्रशासनिक समस्याओं के समाधान में आवश्यक सहयोग प्रदान करना है।

सेवा योजना एवं मन्त्रणा केन्द्र

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छात्रों को पठन-पाठन, विभिन्न पाठ्यक्रमों, प्रतियोगी परीक्षाओं, छात्रवृत्ति आदि की समग्र जानकारी देने हेतु सूचना एवं मंत्रणा केन्द्र प्रदेश सरकार के सेवा योजना एवं प्रशिक्षण निदेशालय द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में स्थापित है। यह केन्द्र सम्बन्धित विभागों के प्रशिक्षण एवं रोजगार प्रकोष्ठों की सहायता से एवं कन्या गुरुकुल परिसर, हरिद्वार व देहरादून के विभागीय उपकेन्द्रों के सहयोग से छात्र/छात्राओं को प्रशिक्षण व रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराता है।

== विभाग ==hindi sanskrit


इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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