भक्ति काव्य
भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास के मध्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता को भक्ति आन्दोलन के रूप में पहचाना जा सकता है। साहित्य के क्षेत्र में यह भक्ति काव्य के विराट रस स्रोत के रूप में प्रकट हुआ। भक्ति काल में अधिक कार्य किया गया है।
भक्ति काव्य का स्वरूप
संपादित करेंभक्ति काव्य का स्वरूप अखिल भारतीय था। दक्षिण भारत में दार्शनिक सिद्धांतों के ठोस आधार से समृद्ध होकर भक्ति उत्तर भारत में एक आंदोलन के रूप में फैल गयी। इसका प्रभाव कला, लोक व्यवहार आदि जीवन के समस्त क्षेत्रों पर पड़ा। कबीर, जायसी, मीरा, सूर, तुलसी आदि कवियों के साथ रामानंद, चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के सिद्धांतों में भक्ति के इसी स्वरूप के दर्शन होते हैं।
भक्ति काव्य के भेद
संपादित करेंभक्ति काव्य के प्रधानतः दो भेद हैं निर्गुण और सगुण भक्ति काव्य। निर्गुण भक्ति काव्य की दो शाखाएं हैं ज्ञानमार्गी जिसके प्रतिनिधि कवि कबीर हैं और प्रेम मार्गी जिसके प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। सगुण भक्ति काव्य की भी दो शाखाएं हैं। कृष्ण भक्ति शाखा और राम भक्ति शाखा। इनके प्रतिनिधि कवि क्रमशः सूर और तुलसी दास हैं। इसके अतिरिक्त शैव, शाक्त, सिद्ध, नाथ जैन आदि कवि भी इस काल में रचना करते थे।
भारतीय राम काव्य
संपादित करेंभारतीय कृष्ण काव्य में भक्ति
संपादित करेंकृष्ण काव्य का उद्गम संपूर्ण भारतीय साहित्य में देखने को मिलता है।
हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्ति
संपादित करेंहिंदी में कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक वल्लभाचार्य हैं। उनके विशिष्टाद्वैत सिद्धांत के बारे में बताते हुए रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि- “श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है जो सब दिव्य गुणों से संपन्न होकर 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं। आनंद का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम-रूप में रहता है, अतः यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएँ नित्य हैं। वे अपने भक्तों को लिए 'व्यापी बैकुंठ में (जो विष्णु के बैकुंठ से ऊपर है) अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते हैं। गोलोक इसी 'व्यापी बैकुंठ' का एक खंड है जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृंदावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान् की इस 'नित्यलीला-सृष्टि' में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।”[1]
हिंदी में कृष्ण भक्ति के सबसे बड़े कवि सूरदास हुए हैं। इनका जन्म 1478 ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ था| यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही [2] नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते हैं। वे मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता, रामदास सारस्वत[3] प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में अनेक भ्रान्तिया है, प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई। [4] रामचंद्र शुक्ल इनके बारे में लिखते हैं कि- “जयदेव की देववाणी स्निग्ध पीयूष-धारा, जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोक-भाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल-कंठ से प्रकट हुई और आगे चलकर व्रज के करील कुंजोँ के बीच फैल मुरझाए मनों को सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला का कीर्त्तन करने उठीं, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदास की वीणा की थी।”[5] हिंदी में प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई भी कृष्ण भक्ति के लिए मशहूर हुई हैं। मीराबाई का जन्म सन 1498 ई॰ में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। चित्तौड़गढ़ के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तोड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ। पति की मृत्यु पर भी मीरा माता ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा, क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी।[6] अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ उनके बारे में लिखते हैं कि- “मीराबाई बहुत प्रसिद्ध महिला हैं। वे चित्तौड़ के राणा की पुत्रवधू थीं। परन्तु उनमें त्याग इतना था कि उन्हों ने अपना समस्त जीवन भक्ति भाव में ही बिताया। उनके भजनों में इतनी प्रवलता से प्रेम-धारा बहती है कि उससे आर्द्र हुए बिना कोई सहृदय नहीं रह सकता। वह सच्ची वैष्णव महिला थीं और उनके भजनों के पद पद से उनका धर्मानुराग टपकता है इसी लिये उनकी गणना भगवद्भक्त स्त्रियों में होती है।[7]
संस्कृत में
संपादित करेंसंस्कृत में कृष्ण-भक्ति सबसे पहले ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग हरिवंशपुराण में देखने को मिलती है। इसमें कृष्ण द्वारा माखन-चोरी, पूतना वध, यमलार्जुन का पतन, गोवर्धन पर्वत को धारण करना इसके अतिरिक्त कृष्ण के रूप-सौंदर्य का वर्णन भी किया गया है। कृष्ण के दिव्य स्वरूप का वर्णन पद्मपुराण में किया गया है। इसमें कृष्ण लीला-स्थलों जैसे- वृंदावन, गोकुल, मथुरा और द्वारिका आदि का मनोहारी चित्रण किया गया है। इसके अतिरिक्त पुराण, श्रीमद्भागवत, जयदेव की गीतगोविंद, गीता, महाभारत आदि में भी भक्ति का यह स्वरूप विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है। हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार "संस्कृत में राधा-कृष्ण सम्बन्धी प्रथम काव्यरचना जयदेव (बारहवीं शती) का गीतगोविन्द है, जो भक्ति और शृंगार का अनुपम माधुर्य-मण्डित गीतिकाव्य है।"[8]
तमिल में
संपादित करेंतमिल साहित्य में कृष्ण काव्य आलवार संतों की रचनाओं में देखने को मिलता है। आलवार संतों का नालायिर दिव्यप्रबंधम् सबसे उल्लेखनीय ग्रंथ है जिसे १२ तलवार संतों ने रचा है। इसका रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी के आसपास है। इसमें कुल ४००० छंद हैं। तमिल साहित्य में प्रसिद्ध भक्तिन और कवयित्री अंदाल हुई हैं। जहाँसिलप्पदिकारम् में कृष्ण और गोपियों की रासलीलाओं का वर्णन किया गया है वहीं मणिमेखलै में राधा के बजाय नायिका नप्पिने के साथ कृष्ण नृत्य का चित्रण किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि यह तमिल प्रदेश की राधा कही जाती है।
तेलुगु में
संपादित करेंतेलुगु भाषा में कृष्ण काव्य की प्रसिद्ध रचना भागवतम् है जिसकी रचना पोतना ने की है। वे पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए हैं। तेलुगु में गीत परंपरा सबसे पहले कृष्णमाचार्य तत्पश्चात् अन्नमाचार्य की पदावली में देखने को मिलती है। अन्नमाचार्य की रचनाओं में श्री वेंकटेश्वर की प्रणय लीलाओं और कृष्ण गाथा का वर्णन मिलता है। तमिल कवि नाम्मलवार ने तिरुमावाय में कृष्ण की आराधना गोपी भाव से की है जो उनसे प्रेम करती है।[9]
कन्नड़ में
संपादित करेंबारहवीं शताब्दी में रुद्रभट्ट ने कन्नड़ में चंपूकाव्य 'जगन्नाथ विजय' की रचना की। उसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन देखने को मिलता है। तत्पश्चात् कुमार व्यास नामक कवि ने भारत काव्य की रचना की।
मलयालम में
संपादित करेंमलयालम में कृष्ण काव्य मौखिक रूप से विद्यमान रहा जिसका लिखित रूप सर्वप्रथम चेरुश्शेरि की कृष्णगाथा में देखने को मिलता है। इस कृति में कृष्ण के जन्म से लेकर उनकी मृत्यु तक का वर्णन देखने को मिलता है। इस कृति का मूल आधार 'श्रीमद्भागवत' है विशेषकर कृष्ण की लीलाओं में इसका अनुकरण किया गया है। यह शृंगार प्रधान काव्य है। इसमें वात्सल्य का चित्रण भी अत्यंत मनोहारी ढँग से किया गया है। इस कृति के अतिरिक्त विभिन्न अट्टकथाओं की रचना इसमें की गई है।
मलयालम के मशहूर कृष्ण भक्त कवि पंटानम ने ज्ञान-पान के अलावा कृष्णकरणमरूटम् तथा संतनगपलम् जैसी रचनाएं लिखी। [10]
मराठी में कृष्ण काव्य
संपादित करेंतमिल के आलवार संतों और कन्नड़ के दासकूट कवियों का प्रभाव मराठी भाषा के साहित्य पर पड़ा। मराठी में भासकराचार्य प्रमुख कृष्ण भक्त कवि हुए हैं। उन्होंने शिशुपाल-वध की रचना की थी। इस कृति में राधा के बजाय रुक्मिणी को नायिका के रूप में चित्रित किया गया है। कृति में कृष्ण और रुक्मिणी और कृष्ण की कथा का वर्णन ही देखने को मिलता है। मराठी साहित्य में अन्य कृष्ण भक्त कवि दामोदर पंडित हुए हैं। उन्होंने भागवत-दशम-स्कंध के आधार पर वत्सहरण की रचना की है। मराठी की प्रसिद्ध भक्त कवयित्री महदंबा हुईं जिन्होंने धवले तथा रुक्मिणी स्वयंवर नामक प्रसिद्ध रचनाएँ लिखीं।
ज्ञानदेव और संत तुकाराम भी मराठी के प्रसिद्ध रचनाकार हुए हैं जिनकी लेखनी ने कृष्ण भक्ति का विकास अपनी रचनाओं द्वारा किया। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं का गान भी किया तथा भक्ति में ज्ञान और कर्मयोग का समन्वय करके उसका प्रसार भी किया।
गुजराती में कृष्ण काव्य
संपादित करेंमराठी में कृष्ण भक्ति काव्य का आविर्भाव तेरहवीं शताब्दी से देखने को मिलने लगता है तथा गुजराती में इसका आविर्भाव कुछ देर में देखने को मिलता है। प्रसिद्ध कवि भालण ने दशमस्कंध नामक कृति में कृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण किया है। इस कृति में गुजराती के अतिरिक्त ब्रजभाषा के कुछ पद भी पाए गए हैं।
नरसी मेहता, विष्णुदास, प्रेमानंद तथा नाकर सरीखे प्रसिद्ध कवि गुजराती साहित्य को संपन्न कर रहे थे। नरसी मेहता, भालण तथा प्रेमानंद को सूरदास, नंददास को कोटि का कवि माना जाता है।
बांग्ला में कृष्ण काव्य
संपादित करेंबांग्ला के प्रथम कृष्ण भक्त कवि चंडीदास हुए हैं। उन्होंने चौदहवीं शताब्दी में गीत-संग्रह कृष्ण-कीर्तन में स्वानुभूति से प्रेरित राधा-कृष्ण की प्रणय लीलाओं का वर्णन किया है। इस कृति में गीतगोविंद की अभिजात शैली देखने को मिलती है। इसमें लोक-शैली भी देखने को मिलती है ख़ासकर ग्राम-गीतों में। महाप्रभु चैतन्य बांग्ला के प्रसिद्ध कवि हैं। उनके समसामयिक तथा अनुयायी मुरारीगुप्त, नरहरि सरकार, वासुदेव घोष तथा रामानंद बसु हुए हैं।
इनके पश्चात् बांग्ला में अनेक कृष्ण भक्त कवि हुए जैसे- ज्ञानदास, गोविंददास, लोचनदास, बलरामदास आदि।
बंगाल में सहजिया संप्रदाय हुआ जो मानता था कि प्रत्येक पुरुष के कायिक रूप के पीछे कृष्ण रूप है जो कि उसका वास्तविक स्वरूप है।[11] दूसरी ओर प्रत्येक स्त्री राधा स्वरूपा है। इन दोनों के साक्षात्कार तथा मिलन से प्रेम तथा आनंद की सिद्धि इस साधना के द्वारा होती है।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ रामचंद्र, शुक्ल (1941). हिंदी साहित्य का इतिहास. वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा. पृ॰ 156.
- ↑ चन्द्रकान्ता. "Surdas (Sur Jay Shankar Prasad) - Chandrakantha". chandrakantha.com. मूल से 19 अक्तूबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १० दिसम्बर २०१५.
- ↑ "क्या रामदास सारस्वत थे कृष्ण भक्त सूरदास जी के पिता?". Punjabkesari. 2021-06-13. अभिगमन तिथि 2021-06-14.
- ↑ "सूरदास भगवान कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे।". पंजाब केसरी.
- ↑ शुक्ल – “भ्रमरगीत-सार”, साहित्य-सेवा-सदन, बनारस, 1926, पृष्ठ10
- ↑ "मीराबाई के जीवन की महत्वपूर्ण बातें". भास्कर. मूल से 16 अक्तूबर 2019 को पुरालेखित.
- ↑ अयोध्या सिंह उपाध्याय, 'हरिऔध' (1934). हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास. पटना: पटना विश्वविद्यालय. पृ॰ 291.
- ↑ ब्र., व. (2000). हीरा, राजवंश सहाय (संपा॰). हिन्दी साहित्य कोश भाग-१. वाराणसी: ज्ञानमण्डल लिमिटेड. पृ॰ 206.
- ↑ D Muthukumaraswamy- “In Tamil lit, an erotic bhakti for Krishna”
- ↑ [https://www.thebookreviewindia.org/keralas-krishna-bhakti-the-classical-and-vernacular/T.K. Venkatasubramanian - "Kerala's Krishna Bhakti – the Classical and Vernacular"][मृत कड़ियाँ]
- ↑ डॉ., नगेन्द्र, संपा॰ (2013). भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास. दिल्ली विश्वविद्यालय: हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय. पृ॰ 256.
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- सन्तकाव्य की सामाजिक प्रासंगिकता (गूगल पुस्तक; लेखक - रवीन्द्र कुमार सिंह)
- सामाजिक विषमता के विरूद्ध भारतीय संत परंपरा (डॉ॰ कृष्ण गोपाल)