केदारनाथ पाठक
केदारनाथ पाठक (जन्म -१८७० ई ; ) नवजागरण काल के महान हिन्दी सेवी थे जिन्होंने हिन्दी भाषा के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था। केदारनाथ पाठक की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें हिन्दी साहित्य का ‘जीवित विश्वकोश’ कहा जाता था। वे हिन्दी के अद्भुत विद्वान और महान हिन्दी सेवी थे। उन्होंने हिन्दी भाषा के प्रति लोगों को जागरुक किया। नवजागरणकाल की तमाम घटनाओं के गवाह रहे। नागरी प्रचारिणी पुस्तकालय के अध्यक्ष भी रहे। जब सभा पर कोई विपत्ति आई केदारनाथ पाठक जी ढाल बनकर खड़े रहे। वे एक गम्भीर शोधार्थी भी थे। इन्होंने कई दुर्लभ हिन्दी पुस्तकों की खोज भी की थी।
केदारनाथ पाठक का जन्म सन् 1870 में मिर्जापुर में हुआ था। इनकी शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई थी। इनके पिता का नाम पीताम्बर पाठक था। इनके पितामह गिरधारीलाल पाठक मेरठ से आकर प्रयाग में बस गए थे। इसके बाद जीविकोपार्जन के लिए काशी भी गए। काशी में कुछ दिन रहने के बाद इनके पूर्वज मिर्जापुर में स्थाई रुप बस गए थे।
केदारनाथ पाठक जब तीन साल के थे, तब इनके पिता का निधन हो गया था। केदारनाथ पाठक का विवाह काशी के प्रतिष्ठित व्यक्ति छेदीलाल तिवारी की कन्या सरस्वती से हुआ था। गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारी के कारण पाठक जी मिर्जापुर की जार्डिन फैक्टरी में काम करने लगे। इस फैक्टरी का वातावरण इनके मन के अनुकूल न होने के कारण नौकरी छोड़ दी। इसके बाद हिन्दी के प्रतिष्ठत साहित्यकार पंडित बदरीनारायण के यहां ‘आनन्द कादंबिनी’ प्रेस में काम करने लगे जहां इनका परिचय हिन्दी के अनेक विद्वानों और लेखकों से हुआ। इन लेखकों की संगति में इनके मन में हिन्दी सेवा का बीज अंकुरित हुआ।
सन् 1893 में केदारनाथ पाठक इटावा चले गए। वहां इनकी भेंट प्रसिद्ध लेखक गदाधर सिंह से हुई। गदाधरसिंह की सहायता से इटावा में इन्हे गंगालहर के आफिस में नौकरी मिल गई। इस समय देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ प्रकाशित होकर धूम मचा रहा था। सन् 1894 में केदारनाथ पाठक देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ की दिवानगी में इटावा छोड़कर काशी की तरफ चल दिए।
सन् 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई तथा सन् 1896 में सभा ने हिन्दी भाषा को अदालतों में लागू करने का प्रस्ताव ब्रिटिश शासन को भेजने पर विचार किया। नागरी-प्रचारिणी सभा के सभापतियों ने यह तय किया कि मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार को ‘कोर्ट-केरेक्टर नागरी मेमोरियल' भेजा जाए जिस पर हिन्दी समर्थकों के हस्ताक्षर हों। इस कार्य के लिए नागरी प्रचारिणी सभा को एक उपयुक्त व्यक्ति की तलाश थी। बाबू राधाकृष्ण दास ने केदारनाथ पाठक को इस काम के लिए उपयुक्त समझा। इस कठिन कार्य को पाठक जी ने अपने हाथ लेकर ‘कोर्ट-केरेक्टर नागरी मेमोरियल’ पर लोगों से हस्ताक्षर करवाने निकल पड़े।
केदरारनाथ पाठक ‘हंस’ में 1931 में प्रकाशित अपने आत्मकथ्य मे लिखते हैं : ‘‘सन् 1896 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से, एक प्रार्थना-पत्र पश्चिमोत्तर प्रदेश (वर्तमान में संयुक्तप्रान्त) की सरकार के पास, इस आशय से भेजने के लिए कि – हम लोग सरकार से देवनागरी जारी करने की प्रार्थना करते है, एक प्रतिनिधिमण्डल, प्रजा का हस्ताक्षर करने के लिए, वर्ष तक इस प्रान्त भर में पर्यटन करता रहा।” इस मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाने जब पाठक जी कानपुर पहुंचे तो इनकी मुलाकात हिन्दी के प्रसिद्ध सेवक और मर्चेन्ट प्रेस के मालिक बाबू सीताराम से हुई जिन्होने सन 1885 में ‘भारतोदय’ नामक एक दैनिक पत्र निकाला था। केदारनाथ पाठक ब्रिटिश सरकार के जुल्मों की परवाह किए बगैर कानपुर, लखनऊ, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, इटावा, अलींगढ़, मेरठ, हरदोई, देहरादून, फैजाबाद आदि इलाकों से मेमोरियल हस्ताक्षर प्राप्त कर नागरी प्रचारिणी के सभापतियों को सौंप दिया।
केदारनाथ पाठक ने नागरी प्रचारिणी सभा की बड़ी सेवा की थी। वे इसके प्रचार-प्रसार के लिए देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों में जाकर नागरी प्रचारिणी सभा के कार्य के बारे में लोगों को बताते और हिन्दी पढ़ने के लिए लगातार लोगों को उत्साहित करते थे। केदारनाथ पाठक सभा का प्रचार करने के लिए जब बिहार पहुंचे वहां अयोध्यासिंह उपाध्याय के गुरु सुमेर सिंह इनकी हिन्दी सेवा से काफी प्रभावित हुए। शिवनन्दन सहाय और गोपीकृष्ण को नागरी प्रचारिणी सभा का महत्व बताकर, केदारनाथ पाठक बांकीपुर के प्रसिद्ध विद्वान काशीप्रसाद जायसवाल को हिन्दी साहित्य की सेवा करने के लिए प्रेरित किया। केदारनाथ पाठक जी के कहने पर बाद में काशीप्रसाद जायसवाल नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी बने। नागरी प्रचारिणी सभा में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी केदारनाथ पाठक उनके साक्षी रहे जिसमें ‘हिन्दी शब्दसागर' का निर्माण भी शामिल था।
केदारनाथ पाठक का महावीरप्रसाद द्विवेदी से घनिष्ठ सम्बन्ध था। महावीरप्रसाद द्विवेदी 1903 में सरस्वती पत्रिका के संपादक बने। कुछ दिन निकालने के बाद ‘सरस्वती’ लगातार घाटे में जा रहा थी। इसके चलते चिन्तामणि घोष ने पत्रिका को बन्द करने का मन बना लिया था। केदारनाथ पाठक को जब यह बात पता चली तो उन्होंने विभिन्न प्रान्तों में घूम-घूम कर सरस्वती का प्रचार-प्रसार कर हजारों पाठकों को पत्रिका से जोड़कर ग्राहक बनाया।
केदारनाथ पाठक हिन्दी क्षेत्र के सार्वजनिक निर्माता थे। इन्होंने हिदी क्षेत्र में कई बड़े लेखक पैदा किए। बंग महिला को हिन्दी की लेखिका बनाने में केदारनाथ पाठक का अमूल्य योगदान है। बंग महिला के पिता रामप्रसन्न घोष केदारनाथ पाठक के यहां किराएदार बनकर रहते थे।
'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जितने केदारनाथ पाठक के आभारी हैं, उतना शायद किसी लेखक के नहीं होंगे। शुक्ल जी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आधुनिक काल लिखते समय अधिकांश सामग्री केदारनाथ पाठक से प्राप्त की थी। आचार्य शुक्ल को मिरजापुर से काशी लाने में केदारनाथ पाठक का अहम योगदान था।[1]