के वी वेंकटेश्वर शर्म (1919–2005) भारत के विज्ञान-इतिहासकार, पाण्डुलिपि संग्रहकर्ता, लेखक एवं शोधकर्ता थे। उन्होने केरल गणित सम्प्रदाय एवं ज्योतिष के इतिहास पर विशेष कार्य किया। केरल गणित सम्रदाय के अनेकों उप्लब्धियों को प्रकाश में लाने का श्रेय के वी शर्म को जाता है। उन्होने पंजाब विश्वविद्यालय से १९७७ में पीएचडी की।

श्री के वी शर्म की विद्वता और उनके कार्यों को सम्मान देने के लिये सन २०१० में 'के वी शर्म अनुसन्धान फाउण्डेशन (चेन्नै)' की स्थापना की गयी।

प्रमुख कृतियाँ संपादित करें

कालक्रम संपादित करें

  • 1919 जन्म
  • 1940 विज्ञान में स्नातक
  • 1942 संस्कृत में एम ए
  • 1943 पाण्डुलिपि लाइब्रेरी में
  • 1951 मद्रास विश्वविद्यालय में
  • 1954 'ग्रहचार निबन्धनम्'
  • 1956 'वेण्वारोहम्' की खोज
  • 1957 'गोळदीपिक'
  • 1962 विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर में
  • 1963 'दृग्गणितम्' की खोज और उसका प्रकाशन
  • 1970 'गोळसारम्'
  • 1972 'ए हिस्ट्री ऑफ केरल स्कूल ऑफ हिन्दू अस्ट्रोनॉमी'
  • 1973 'चन्द्रस्फुटाप्ति'
  • 1979 सेवानिवृत्त
  • 1980 'डोक्टर ऑफ लेटर्स' की उपाधि
  • 2005 मरण

ग्रन्थावली संपादित करें

  • K.V. Sarma (1972), A history of the Kerala school of Hindu astronomy (in perspective), Hoshiarpur: Vishveshvaranand Institute, मूल से 15 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 26 जनवरी 2017
  • K.V. Sarma (1972), A bibliography of Kerala and Kerala-based astronomy and astrology, Hoshiarpur: Vishveshvaranand Institute
  • K.V. Sarma (1975), Līlāvatī of Bhāskarācārya with Kriyākramakarī of Śaṅkara and Nārāyaṇa. Being an Elaborate Exposition of the Rationale of Hindu Mathematics. Critically edited with Introduction and Appendices, Hoshiarpur: Vishveshvaranand Institute. Review
  • K.V. Sarma (1990), Observational astronomy in India, Dept. of Sanskrit, University of Calicut, मूल से 15 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 26 जनवरी 2017
  • Shukla, K.S.; Sarma, K.V. (1976), Āryabhaṭīya of Āryabhaṭa, New Delhi: the Indian National Science Academy, मूल से 15 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 26 जनवरी 2017

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

  1. Ludwik Sternbach (1978) Review: Lilavati, Journal of the American Oriental Society 98(3): 321