विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान
विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान वैदिक साहित्य से सम्बद्ध शोध-संस्थान (research Institute) है, जिसका कार्य मुख्य रूप से वैदिक कोश के निर्माण पर केन्द्रित है। इसके अतिरिक्त वैदिक संहिताओं एवं भाष्यों के प्रामाणिक रूप से प्रकाशन तथा संस्कृत साहित्य के अन्य क्षेत्रों में भी शोध एवं प्रकाशन का कार्य यहाँ से होता है। इसकी स्थापना स्वामी विश्वेश्वरानन्द एवं स्वामी नित्यानन्द द्वारा शान्तकुटी, शिमला में हुई, फिर लाहौर में आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री द्वारा इसका पोषण हुआ तथा भारत-विभाजन के बाद होशियारपुर, पंजाब में साधु आश्रम में आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री के द्वारा ही पल्लवित होकर यह आश्रम विकसित रूप में वैश्विक स्तर पर प्रमाण एवं प्रशंसा का केन्द्र बन गया।
स्थापना
संपादित करेंइस शोध संस्थान की स्थापना सर्वप्रथम नवंबर 1930 ईस्वी में स्वामी विश्वेश्वरानन्द एवं स्वामी नित्यानन्द द्वारा शिमला के शांतकुटी नामक स्थान में 'वैदिक शोध संस्थान' के नाम से हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य ऐसे वैदिक कोश का निर्माण करना था जिसमें वैदिक व्याकरण के अनुसार प्रत्येक पद का अलग-अलग अर्थ दिया जाए तथा उसके मूल धातु, प्रत्यय आदि का भी स्पष्टीकरण किया जाए और उस समय तक प्राप्त सभी भाष्यकारों या अन्य विद्वानों के द्वारा किये गये अर्थ भी दिये जाएँ।[1] इस प्रकार के कोश बनाने के लिए पहले अकारादि वर्णानुक्रम से सभी वेदों की पदानुक्रमणिका तैयार करने की आवश्यकता महसूस हुई। इन कार्यों के लिए संस्थान की स्थापना हेतु धन का प्रबंध बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ के द्वारा किया गया तथा पटियाला एवं क्योंथल के महाराजाओं ने भूमि प्रदान की। स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं स्वामी नित्यानंद के द्वारा सर्वप्रथम चारों वेदों की पदानुक्रमनिकाएँ तैयार करके 1908 से[2] 1910 ईस्वी तक प्रकाशन किया गया।
शिमला से लाहौर
संपादित करेंइस संस्थान के दो मुख्य संस्थापकों में से एक तथा वैदिक अनुक्रमणिकाओं के मुख्य सम्पादक स्वामी नित्यानन्द का 8 जनवरी 1914 को असामयिक देहावसान हो जाने के कारण स्वामी विश्वेश्वरानन्द ने इस कार्य हेतु किसी सुयोग्य युवा विद्वान की आवश्यकता महसूस की तथा इस संबंध में विभिन्न विद्वानों से चर्चा करने के बाद लाहौर के रायबहादुर मूलराज, जो उस समय आर्य समाज के प्रधान थे, के द्वारा आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री से परिचय हुआ। आचार्य विश्वबन्धु उस समय डीएवी कॉलेज सोसायटी द्वारा चलाये जा रहे दयानंद महाविद्यालय में आचार्य पद पर कार्य कर रहे थे। स्वामी विश्वेश्वरानंद द्वारा कोष का कार्य सौंप दिये जाने पर वे सन् 1924 ईस्वी से कोष का कार्य भी करने लगे। संस्थान का यह कार्य 1 जून 1934 तक दयानंद ब्राह्म महाविद्यालय, लाहौर में ही चलता रहा। 23 नवंबर 1925 को स्वामी विश्वेश्वरानंद का निधन हो गया। वे कोश-कार्य हेतु अपने पास एकत्रित डेढ़ लाख रुपए की वसीयत कोश निर्माण के लिए बना गये थे।[3]
संस्थान का विकास
संपादित करेंधीरे-धीरे संस्थान का आकार तथा कार्य बढ़ने के कारण सरकार तथा समाज से वैधानिक रूप से धन प्राप्ति हेतु संस्थान के पंजीकरण की आवश्यकता हुई और 1860 के अधिनियम 21 के अनुसार 9 मई 1935 को यह संस्थान विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान सभा के नाम से पंजीकृत कर दिया गया। 1 जुलाई 1936 से सारे कार्य इस संस्था के द्वारा संचालित होने लगे। मान्यता मिलने के कारण 1940-41 से नियमित रूप से संस्थान को सरकारी अनुदान भी प्राप्त होने लगे। कई प्रांतीय सरकारों, राजा-महाराजाओं तथा अनेक विश्वविद्यालयों ने भी सहायता देनी शुरू कर दी। आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री के संपादन में व्यापक पैमाने पर विशाल वैदिक-पदानुक्रम-कोष के निर्माण का कार्य चल रहा था। इस कार्य के सुचारु संपादन के लिए संस्थान ने अपना ही प्रेस खोल लिया। सन् 1935 ईस्वी में विशाल 'वैदिक पदानुक्रम कोष' का सर्वप्रथम ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रंथों से संबंधित पहला भाग प्रकाशित हुआ। 1936 में ब्राह्मण एवं आरण्यक भाग की दूसरी जिल्द भी प्रकाशित हो गयी। इसके बाद संहिता भाग पर कार्य प्रारंभ हुआ और 1942 तक संहिता भाग का प्रथम भाग प्रकाशित हो गया।[4] इसी बीच संस्थान से वाल्मीकीय रामायण (पश्चिमोत्तर शाखीय) का संपादन कर पाँच भागों में प्रकाशन किया गया। इसका प्रकाशन शोधविभाग, डीएवी कॉलेज, लाहौर के अन्तर्गत हुआ था। आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री द्वारा संपादित इसका पाँचवाँ काण्ड (सुन्दरकाण्ड) 1940 में प्रकाशित हुआ था।[5] छठा काण्ड (युद्धकाण्ड) उन्हीं के संपादन में लाहौर से ही 1944 में प्रकाशित हुआ।[6]
इसके बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एवं भारत विभाजन की अत्यधिक कठिन परिस्थितियों के कारण लाहौर में संस्थान का कार्य खतरे में पड़ गया। संस्थान के सामने सबसे बड़ी समस्या थी उसमें सुरक्षित हजारों भोजपत्र तथा ताड़पत्रों पर लिखित अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रंथों एवं हजारों दुर्लभ संदर्भ ग्रंथों तथा 'वैदिक पदानुक्रम कोष' के जो भाग छप चुके थे तथा जो तैयार की गयी अप्रकाशित सामग्री थी उसको किसी न किसी प्रकार बचाकर भारत भेजना। यह सामग्री इतनी बड़ी मात्रा में थी कि चार हजार बोरों में बड़ी कठिनाई से इन्हें व्यवस्थित किया गया।[7] पाकिस्तान सरकार से भारत भिजवाने में मदद करने हेतु अनुरोध करने पर उल्टे प्रतिबंध लगा दिया गया और कहा गया कि यह सम्पत्ति अब पाकिस्तान की है। ऐसी स्थिति में लाहौर से भारत आने वाले लोगों के द्वारा किसी प्रकार आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री ने यह विशाल सामग्री पंजाब भिजवायी।
स्वतन्त्र भारत में
संपादित करेंस्वतंत्र भारत में नवीन रूप से पंजाब के होशियारपुर में श्री धनीराम भल्ला द्वारा संचालित साधु आश्रम में 2 नवंबर 1947 को वैदिक पदानुक्रम कोष तथा उससे संबंधित कार्य का प्रारंभ हुआ। इससे पहले आचार्य विश्वबंधु एवं उनके सहयोगी पंजाब से भिजवायी गयी सामग्रियों को ढूँढ़ते रहे तथा 13 सितंबर 1947 को उस विशाल सामग्री का एक अंश 30 बोरे साधु आश्रम में पहुँचे। 1948 के मध्य तक सारा सामान साधु आश्रम में पहुंच पाया। यहां संस्थान को पुनः स्थापित करने में गोपीचंद भार्गव तथा पटियाला के महाराज ने भरपूर आर्थिक सहयोग किया और 1947 से 1949 तक विभिन्न कठिनाइयों के बीच यह संस्थान पुनः स्थिर रूप धारण करने लगा। धनीराम भल्ला जी के उत्तराधिकारियों ने साधु आश्रम की भूमि सभा के नाम रजिस्टर्ड करके उसका ट्रस्ट बना दिया और इस प्रकार यह संस्थान पुनः स्थापित हो गया।[8]
अब यह संस्थान विशाल रूप धारण कर चुका है। यहां छात्रों के लिए आधुनिक रूप से बने हुए छात्रावास हैं। बाहर से आने वाले शोधकर्ताओं के लिए विशेष कमरे बने हुए हैं। अभ्यागतों के लिए अतिथि भवन हैं। केंद्रीय कक्ष है, जहां वैदिक कोष पर कार्य करने वाले विद्वान बैठते हैं। इसके अलावा महासुभाषित कोश का कक्ष है, प्रशासन विभाग है, संस्थान के प्रांगण में आधुनिक रूप से निर्मित विशाल पुस्तकालय है। इसके अलावा प्रेस विभाग, बैंक, डाकखाना, कैंटीन इत्यादि सब कुछ इसके अंतर्गत हैं।
सन् 1957 में पंजाब विश्वविद्यालय ने दक्षिण भारत की लिपि में हस्तलिखित ग्रंथों का देवनागरी लिपि में प्रतिलेखन तथा उनके शोध के लिए संस्थान में 'हस्तलिखित ग्रंथ प्रतिलेखन एवं शोध विभाग' स्थापित किया।
सम्बद्ध विभाग
संपादित करेंइस संस्थान के अंतर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं:
शिक्षण विभाग
संपादित करेंआचार्य विश्वबंधु शास्त्री द्वारा स्थापित इस विभाग द्वारा 1959 से स्नातकोत्तर शिक्षण तक का कार्य प्रारंभ किया गया। इसमें एम ए संस्कृत तथा शास्त्री, आचार्य, हिन्दी प्रभाकर इत्यादि श्रेणियों को पढ़ाने का प्रबंध किया गया है।
पुस्तकालय
संपादित करेंसंस्थान की सबसे बड़ी संपत्ति है इसका पुस्तकालय। यह संस्थान के प्रांगण में विद्यमान पंजाब विश्वविद्यालय की देखरेख में संचालित अपने ढंग का अनोखा पुस्तकालय है। इसमें लगभग 250 पत्र-पत्रिकाएं नियमित रूप से आते हैं।
प्रकाशन-विभाग
संपादित करेंयह संस्थान अब तक वैदिक साहित्य से संबंधित लगभग 1000 ग्रंथों का संपादन, लेखन एवं प्रकाशन कर चुका है। संस्थान से प्रकाशित पद्मभूषण आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री द्वारा संपादित वैदिक पदानुक्रम कोष विश्व साहित्य में अपना विशेष स्थान रखता है। 16 खंडों में विभक्त यह विशाल कोष लगभग 11,000 पृष्ठों में प्रकाशित है। अर्थ सहित वैदिक कोश के निर्माण का कार्य संस्थान के प्रांगण में ही पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा निरंतर चल रहा है।
पत्रिकाएँ
संपादित करेंसन् 1952 ईस्वी से इस संस्थान के द्वारा हिन्दी मासिक 'विश्वज्योति' पत्रिका का प्रकाशन चल रहा है और यह पत्रिका 2002 ईस्वी में अपना स्वर्ण जयंती वर्ष बना चुकी है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार हेतु इस संस्थान के द्वारा 1963 ईस्वी से 'विश्वसंस्कृतम्' नाम की पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया। सन् 2002 ईस्वी से अंग्रेजी भाषा में 'वी वी आर आई' रिसर्च बुलेटिन का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया है।
प्रकाशन
संपादित करें- ऋग्वेद-मन्त्रानुक्रमणिका
- Indian riddles : a forgotten chapter in the history of Sanskrit literature
- The Panjab as a sovereign state (1799-1839)
- ऋग्वेद-ऋषिदेवताछन्दोनुक्रमणिका
- Satyaloka in R̥gveda : a study
- अथर्ववेद-एक साहित्यिक अध्ययन
- A history of the Kerala school of Hindu astronomy : in perspective
- हिंदी ग्रंथ-सूची सारिणी : १८२८ से ले कर अप्रैल १९७२ तक प्रकाशित हिंदी ग्रंथ-सूचियों तथा सूचीपत्रों की विवरणात्मक सारिणी
- पाणिनीयव्याकरणेऽभिनववार्त्तिकानि
- A comparative and critical dictionary of Vedic interpretation : a specimen
- उपनिषदुद्धार-कोषः : स च वैदिक-वाङ्मयान्तर्गताभ्य उपनिषद्भ्यः भगवद्गीतायाश्च समुद्धृतानां वाक्य-विशेषाणां प्राचीन-भारतीय-विविध-विद्या-विज्ञान-विमर्शौपयिकानां सतां संग्रहात्मकस्सन्
- Yādava inscriptions from Ambe Jogai
- अथर्ववेद-ऋषिदेवताछन्दोऽनुक्रमणिका
- भर्तृहरिविरचितः पुरुषार्थोपदेशः
- अनुभवानन्दलहरी (केशवानन्दयति द्वारा रचित)
- Rājataraṅgiṇī of Jonarāja
- वैतान-श्रौत-सूत्रम् : सोमादित्यकृताऽऽक्षेपानुविधि-संज्ञकभाष्योपेतम्
- Rājataraṅgiṇī of Śrīvara and Śuka
- Ṛgveda and the Indus valley civilization
- Atharvavedīya-bṛhat-sarvānukramaṇikā
- शिवकवि-विरचितम् विवेकचन्द्रोदयनाटकम्
- Rājataraṅgiṇī of Śrīvara and Śuka
- ग्रहणन्यायदीपिका
- परमेश्वरविरचितम् ग्रहणमण्डनम्
- Cārvāka-samīkṣā
- दृग्गणितम्
- Śaṃkṣipta manusmṛti : mūl̲a pāṭha : śarala artha sahita
- स्वामी नित्यानन्द : जीवन और कार्य
- The Panjab as a sovereign state (1799-1839)
- वैदिक-पदानुक्रम-कोषः
- Vedāṅga-sūtras
- The religion of the Buddha and its relation to Upaniṣadic thought
- The theory of socialism : ancient and medieval
- Great thoughts of great men or ideas and ideals
- Spiritual talks
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान परिचय पुस्तिका (HISTORY IN HINDI) Archived 2019-04-06 at the वेबैक मशीन, पृष्ठ-2,13,21.
- ↑ ऋग्वेदपदानाम् अकारादिवर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानन्द एवं स्वामी नित्यानन्द, निर्णयसागर प्रेस, प्रथम संस्करण- सन् 1908 ई॰, मुख्य पृष्ठ एवं प्रस्तावना, पृष्ठ-2.
- ↑ विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान परिचय पुस्तिका (HISTORY IN HINDI) Archived 2019-04-06 at the वेबैक मशीन, पृष्ठ-3 एवं 16.
- ↑ वैदिक-पदानुक्रम-कोष, संहिता विभाग, खण्ड-४, संपादक- आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, द्वितीय संस्करण- सन् 1976, पृष्ठ-ii एवं iv (भूमिकादि से पूर्व)।
- ↑ वाल्मीकीय रामायणम् (सुन्दरकाण्डम्), शोधविभाग, डीएवी कॉलेज, लाहौर, प्रथम संस्करण-1940, पृष्ठ-i-iv.
- ↑ वाल्मीकीय रामायणम् (युद्धकाण्डम्), शोधविभाग, डीएवी कॉलेज, लाहौर, प्रथम संस्करण-1944, पृष्ठ-i-iv.
- ↑ विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान परिचय पुस्तिका (HISTORY IN HINDI) Archived 2019-04-06 at the वेबैक मशीन, पृष्ठ-5,6,30.
- ↑ विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान परिचय पुस्तिका (HISTORY IN HINDI) Archived 2019-04-06 at the वेबैक मशीन, पृष्ठ-6-7 एवं 31.