कौशाम्बी (प्राचीन नगर)

कौशाम्बी (संस्कृत) या कोसंबी (पाली) प्राचीन भारत में एक महत्वपूर्ण शहर था तथा प्राचीन भारत के छः प्रमुख नगरों में से एक था। इसका वर्णन कई ग्रन्थों में आता है। जैन धर्म के 6वें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ जी का जन्म हुआ था एवं ज्ञान प्राप्ति के पश्चात 6वें और 9वें वर्षों में महात्मा बुद्ध यहाँ आये थे यह यमुना नदी पर लगभग 56 किलोमीटर (35 मील) दक्षिणपश्चिमी के संगम के साथ गंगा के प्रयाग (आधुनिक इलाहाबाद) में स्थित था । भारत के महानतम शहरों में से एक वैदिक काल के अंत तक मौर्य साम्राज्य के अंत तक कब्ज़ा कर रहा था, जब तक कि गुप्त साम्राज्य तक नहीं रह जाता था। एक छोटे शहर के रूप में, इसे वैदिक काल के अंत में स्थापित किया गया था, कुरु साम्राज्य के शासकों ने अपनी नई राजधानी के रूप में स्थापित किया था।[1][2] प्रारंभिक कुरु राजधानी हस्तिनापुर बाढ़ से नष्ट हो गया था, और कुरु राजा ने अपनी पूरी पूंजी को एक नई राजधानी के रूप में स्थानांतरित कर दिया, जिसने गंगा-जमुमा संगम के पास बनाया, जो कुरु राज्य इलाहाबाद के दक्षिणी हिस्से से 56 किमी दूर था[3]

मौर्य साम्राज्य से पहले की अवधि के दौरान, कौशाम्बी वत्स के स्वतंत्र राज्य की राजधानी थी,जो 14 महाजनपदों में से एक था । कौशाम्बी गौतम बुद्ध के समय तक एक बहुत ही समृद्ध शहर था, जहां बहुत से धनी व्यापारियों का निवास था। यह उत्तर-पश्चिम और दक्षिण की ओर से सामानों और यात्रियों की एक महत्वपूर्ण परियोजना थी यह बुद्ध के जीवन के खातों में बहुत महत्वपूर्ण है।

कौशाम्बी के पुरातात्विक स्थल की खुदाई 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी आर शर्मा और फिर 1951 से 1956 में, मार्च 1948 में सर मोर्टिमर व्हीलर द्वारा अधिकृत होने के बाद की गई थी। उत्खनन ने सुझाव दिया है कि 12 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के रूप में शुरू की गई हो सकती है। इसकी सामरिक भौगोलिक स्थिति ने एक महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र के रूप में उभरने में मदद की। ढेर कीचड़ का एक बड़ा हिस्सा 7वीं से 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बनाया गया था, और बाद में ईंट की दीवारों और गढ़ों से मजबूत हुआ, जिसमें कई टावर, युद्धक्षेत्र और द्वार थे। लकड़ी का कोयला और उत्तरी काले पॉलिश वेयर की कार्बन डेटिंग ने ऐतिहासिक रूप से 390 BC से 600 AD तक अपने निरंतर कब्जे का दिनांकित किया है।[4]

उत्खनन कार्य संपादित करें

       कौशाम्बी के ऐतिहासिक महत्त्व एवं घरातलीय उपलब्धियों के आधार पर यहाँ उत्खनन कार्य कनिंघम जैसे पुरातत्त्ववेत्ताओं ने बहुत पहले ही आरम्भ किया था किन्तु उन्हें कोई सफलता न प्राप्त हुई। उसके उत्खनन का पूर्ण श्रेय प्रो० गोबर्द्धन राय शर्मा को है जिन्होंने वैज्ञानिक विधि से इन स्थल का उत्खनन करया प्रो० शर्मा को यहाँ तीन महत्त्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए हैं

(1) घोषिताराम (2) राज प्रासाद (3) सुरक्षा प्राचीर

घोषिताराम बिहार - कौशाम्बी से उपलब्ध अतीत के अवशेषों में घोषिताराम बिहार इसके प्राचीनतम बौद्ध स्थल होने को प्रमाणित करता है। हेनसांग के विवरण के अनुसार अशोक ने कौशाम्बी में एक स्तूप का निर्माण कराया था। इसके पूर्व छठीं शताब्दी ईषा पूर्व में जब बौद्ध बिहारों की निर्माण प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो कौशाम्बी ने भी बौद्ध भिक्षुओं का ध्यान आकृष्ट किया होगा। इस बिहार के प्राचीनतम स्तरों से उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। जिससे यह बिहार छठीं शताब्दी ईषा पूर्व तक प्राचीन ज्ञात है। ह्वेनसांग द्वारा इसके उल्लेख से यह कहा जा सकता है कि घोषिताराम बिहार में छठीं शताब्दी ईषा पूर्व से छठीं शताब्दी ईषा तक निरन्तर परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होता रहा। इस अन्तराल में इस बिहार में 16 निर्माण कालों की सूचना प्राप्त होती है। पूर्णरूप में यह बिहार वर्गाकार है। जिसके चतुर्दिक भिक्षुओं के निवासार्थ लघुकक्ष बने थे। अन्दर एक कक्ष में मुख्य स्तूप निर्मित था। इसके अतिरिक्त यहाँ अन्य स्तूपों के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं। मुख्य स्तूप का निर्माण काल प्रो० शर्मा ने पांचवीं शताब्दी ईषा पूर्व माना है। बिहार एक चहारदीवारी से घिरा है।

बिहार के प्रथम निर्माणकालों के विषय में कोई जानकारी नहीं प्राप्त होती क्योंकि ये अंश पूर्णतः विनष्ट हैं। छठे निर्माण काल में घोषिताराम बिहार का पूर्ण स्वरूप निर्धारित हो चुका था। इसकाल की दीवारें एक फीट लम्बी ईंटों से बनी हैं। अष्टम काल में बिहार के चारों ओर कक्ष तथा अन्तः भाग में बरामदें का निर्माण किया गया है। नवें काल में बिहार की दीवारों पर पलस्तर किया गया तथा उसे अलंकृत करने का प्रयास किया गया है। 11 वें काल में बिहार का अधिकतम विस्तार हुआ। इस समय यहाँ मघ शासक शासन कर रहे थे क्योंकि कुछ पात्रों में भद्रमघ के नाम प्राप्त होते हैं। त्रयोदश निर्माण काल में बिहार को चारों तरफ दीवारों से आवृत्त किया गया जो सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से प्रतीत होता है। उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व एवं दक्षिण-पश्चिम के कोनों पर 40 फीट लम्बे एवं 36 फीट चौड़े स्तूपों का भी निर्माण किया गया। उन स्तूपों के दोनों ओर दो समानान्तर दीवारें बनाई गई। जिनके मध्य 79 फीट की दूरी है। इस प्रकार घोषिताराम बिहार में वृद्धि की अन्तिम सीमा प्राप्त हुई। तदुपरान्त ह्रास का युग प्रारम्भ हुआ । 16वें चरण में हूण नरेश तोरमाण ने कौशाम्बी को आक्रान्त कर बिहार को ही पूर्णतः विनष्ट कर दिया।

राज प्रासाद-कौशाम्बी के उत्खनन से यमुना तट पर प्रो० शर्मा एक विशाल राज प्रासाद के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। जो पाषाण खण्डों से बनाया गया है इस राजप्रासादों को तीन चरणों में पूर्ण किया गया है। किन्तु उनकी शैली एवं योजना में कोई भिन्नता नहीं हैं। प्रथम चरण में विना तराशे गये अनगढ़ पाषाण खण्डों को जोड़ कर दीवारों का निर्माण

किय गया है। इन खण्डों को जोड़ने के लिए मसाले के रूप में चूने का प्रयोग किया गया है।

संभवतः इसी चरण में ही इन दीवारों पर पलस्तर भी किया गया रहा होगा। द्वितीय चरण में राजप्रासाद के सौन्दर्य पर बल दिया गया है। दीवार के बाह्य भाग को सुन्दर ढंग से गढ़े हुए पाषाण खण्डों से अलंकृत किया गया है। आवश्यकतानुसार पाषाण खण्डों के मध्य पक्के ईंटों का भी प्रयोग है। राजप्रासाद के कोणों पर बुर्ज या अहालक बनाए गये हैं। जिनके निमार्ण में अधः भाग ने पाषाण तथा ऊर्ध्व भाग में ईंटों का प्रश्रय लिया गया है। दीवार को चतुर्दिक चूने के मोटे पलस्तर से चमत्कृत किया गया है। इस चरण के निचले स्तरों से उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। इस युग की सबसे ऊपर की स्तर एक मुद्रा प्राप्त हुई है। जिस पर द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व की ब्राह्मी लिपि में “महाराजस्य संघों .. ." लेख अंकित है।

राजप्रासाद के तृतीय चरण में स्तरों से उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड लुप्त होने लगते हैं। तदुपरान्त ऊपरी स्तरों में रक्तवर्ण के भाण्डों के ठीकरे उपलब्ध होते हैं जो ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दी के प्रतीत होते हैं। प्रो० शर्मा ने इसे वत्सराज्य उदयन का राजमहल बतलाया है जो मित्र शासकों के पश्चात् खण्डहरों के रूप में परिवर्तित हो गया।

सुरक्षा प्राचीर-प्राचीन राजधानियाँ भी दुर्ग के नाम से सम्बोधित की जाती थीं क्योंकि दुर्गे की भांति इनकी सुरक्षा के लिए भी विशाल एवं विस्तृत प्राचीरें (दीवारें) बनाई जाती थीं । वत्स राज्य की राजधानी कौशाम्बी को भी दुर्गीकृत किया गया था। इसकी सुरक्षा प्राचीर के निर्माण में सर्वप्रथम 300 फीट ऊँचे बंधे का निर्माण किया गया है। जिसके चारों ओर पक्की ईंटों से चुनाई की गई है। यह दीवार ऊपर से नीचे की ओर ढलुआ है तथा इसके तोरण भी प्राप्त हुए हैं। ईंटों की जुड़ाई English Bond system से की गई है। जुड़ाई की यही विधि हड़प्पा की सुरक्षा प्राचीन में भी प्रयुक्त है। इस समानता के आधार पर प्रो० शर्मा ने हड़प्पा की संस्कृति को कौशाम्बी तक विस्तृत माना है प्रो० शर्मा के अनुसार उल्लुआ सुरक्षा प्राचीर को देखते ही हड़प्पा की प्राचीर का स्मरण होता है। बुर्ज हड़प्पा संस्कृति से पूर्णतः प्रभावित है। इसीलिए प्रो० शर्मा सुरक्षा प्राचीर का निर्माण काल छठीं शताब्दी ईसा पूर्व से पहले स्वीकार करते हैं। किन्तु सर डीलर ने प्रो० शर्मा के मत में सन्देह व्यक्त करते हुए यह बतलाया है कि सुरक्षा प्राचीर के निर्माण की यह एक लोकप्रिय विधि थी जिसका प्रयोग अधिकांश सुरक्षा प्राचीरों के निर्माण में किया गया है।

  1. A. L. Basham (2002). The Wonder That Was India. Rupa and Co. पृ॰ 41. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-283-99257-3.
  2. Ariel Glucklich (2008). The Strides of Vishnu. Oxford University Press. पृ॰ 46. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-531405-2.
  3. Rohan L. Jayetilleke (5 दिसंबर 2007). "The Ghositarama of Kaushambi". Daily News. मूल से 4 जून 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अक्टूबर 2008. नामालूम प्राचल |deadurl= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  4. S. Kusumgar and M. G. YadavaMunshi Manoharlal Publishers, New Delhi (2002). K. Paddayya (संपा॰). Recent Studies in Indian Archaeology. पपृ॰ 445–451. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-215-0929-7.