वत्स
वत्स या वंश या बत्स या बंश प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। यह आधुनिक इलाहाबाद केन्द्रित था। उत्तरपूर्व में यमुना की तटवर्ती भूमि इसमें सम्मिलित थी। इलाहाबाद से ३० मील दूर कौशाम्बी इसकी राजधानी थी।[1] वत्स को वत्स देश और वत्स भूमि भी कहा गया है। इसकी राजधानी कौशांबी (वर्तमान कोसम) इलाहाबाद से 38 मील दक्षिणपश्चिम यमुना पर स्थित थी। महाभारत के युद्ध में वत्स लोग पांडवों के पक्ष से लड़े थे। वत्स के आखिरी राजा विसंभर हुए और उनके बाद वत्स साम्राज्य का अंत हो गया,
उत्पत्ति एवं इतिहास
संपादित करेंवत्सदेश की उत्पत्ति का संबंध काशी के चंद्रवंशी कोलीय राजाओं से जोड़ा जाता है। काशी के राजा दिवोदास के पुत्र का नाम वत्स था। उसका मुख्य ग्राम द्युमात् था किंतु वह प्रतर्दन, ऋतुध्वज और कुवलयाश्व नामों से भी विख्यात था। ब्रह्मांड एवं वायु पुराणों में वत्स और प्रतर्दन को एक न कहकर वत्स को प्रतर्दन का पुत्र कहा गया है। वत्स ने काशी राज्य के प्रभाव में वृद्धि की और कौशांबी के समीप के प्रदेशों की विजय की, जो वत्स या वत्स भूमि के नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रसिद्ध सम्राट् अलर्क इसी वत्स का पुत्र था।
शतपथ ब्राह्मण में प्रोति कौशांबेय का नाम आता है जिसे टीकाकार हरिस्वामिन् ने कौशांबी का निवासी बतलाता है। यहीं वत्स राज्य की राजधानी का सर्वप्रथम उल्लेख है।
काशी के प्रभाव से पृथक् वत्सों का इतिहास कुरुवंशीय निचक्षु के समय से आरंभ होता है। अर्जुन के पौत्र और परीक्षित के पुत्र जनमेजय थे। जनमेजय के बाद वंशक्रम में शतानीक, अश्वमेधदंत्त, अधिसीम कृष्ण और निचक्षु हुए। गंगा की बाढ़ से हस्तिनापुर के नष्ट हो जाने पर जनमेजय ने कौशांबी में अपना राज्य स्थापित किया। इस प्रकार वत्स राज्य पर पौर व भारत राजवंश का अधिकार हुआ। पुराणों में निचक्षु के बाद 23 राजाओं के नाम आते हैं। इनमें से अधिकांश हमारे लिए नाममात्र हैं। यह संभव है कि इस तालिका में कुछ नाम उन राजकुमारों के भी हों जो सिंहासन पर नहीं बैठे थे; कुछ समकालीन नरेशों को अनुवर्ती बतलाकर और उपशाखाओं के कुछ राजाओं को भी मुख्य वंश में जोड़कर तालिका में वृद्धि की गई हो।
इन राजाओं में से प्रथम, जिसके विषय में हमें कुछ निश्चित बातें ज्ञात हैं, वह पुराणों का द्वितीय शतानीक है जो परंतप के नाम से भी विख्यात था। पुराणों में उसके पिता का नाम वसुदान, किंतु भास के अनुसार सहस्रानीक, था। उसने विदेह की एक राजकुमारी से विवाह किया था। उसने अंग के नरेश दधिवाहन की राजधानी चंपा पर आक्रमण किया था। स्पष्ट है कि शतानीक परंतप के समय में वत्स राज्य के प्रभाव और महत्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। शतानीक का राज्यकाल 550 ई. पू. के लगभग रखा जा सकता है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सोलह महाजनपदों की तालिका में वत्स या वंस का भी नाम आता है।
इस राजवंश की सर्वोच्च उन्नति शतानीक के पुत्र उदयन के समय में हुई थी। कहा जाता है, उसका जन्म उसी दिन हुआ था जिस दिन गौतम बुद्ध का हुआ था। इतना तो निश्चित है कि वह बुद्ध का समकालीन था और अपने समय के प्रमुख व्यक्तियों में से एक था। उसकी राजधानी कौशांबी अपनी समृद्धि के कारण उत्तरी भारत के प्रमुख नगरों में गिनी जाती थी। इसी प्रकार वत्स राज्य उत्तरी भारत के चार बड़े राज्यों में से एक के रूप में प्रतिष्ठित हुआ था। उदयन के संबंध में प्रचलित अनेक अद्भुत कथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने समकालीन समाज पर उसके व्यक्तित्व की छाप गहरी थी। कालिदास ने अपने मेघदूत में अवंति के उदयन-कथा कोविद ग्रामवृद्धों का उल्लेख किया है।
उदयन संबंधी प्रेमकथाओं में उसकी कई रानियों के नाम मिलते हैं। ये वैवाहिक संबंध उसके राजनीतिक प्रभाव एवं कुशल नीति के परिचायक हैं। अवंति नरेश प्रद्योत की राजकन्या वासुलदत्ता (वासवदत्ता) के साथ उसके प्रणय एवं विवाह की कथा धम्मपद अट्ठकथा में दी गई है। उसकी अन्य रानियाँ थीं, सामावती, कुरु के एक ब्राह्मण की पुत्री मागंदिया तथा मगध नरेश दर्शक की बहन पद्मावती। हर्षकृत प्रियदर्शिका में अंगनरेश दृढ़वर्मन् की पुत्री आरण्यका के साथ उसके विवाह का उल्लेख है। रत्नावली में वासवदत्ता की परिचारिका सागरिका के साथ उसके प्रेम की कथा है।
उदयन के साम्राज्य की सीमाएँ ज्ञात नहीं हैं। किंतु संभवत: उसका राज्य गंगा और यमुना के दक्षिण में था और पूर्व में मगध तथा पश्चिम में अवंति से इसकी सीमाएँ मिली थीं। हर्ष की प्रियदर्शिका के अनुसार उदयन ने कलिंग की विजय करके अपने श्वसुर दृढ़वर्मन को पुन: अंग के सिंहासन पर स्थापित किया था। कथासरित्सागर में उसकी दिग्विजय का विशद वर्णन है। किंतु इन विवरणों में ऐतिहासिक सत्य को खोज निकालना कठिन है। एक जातक कथा से प्रतीत होता है कि सुंसुमारगिरि के भग्ग (भर्ग) लोगों का राज्य भी वत्स राज्य के अधीन था।
प्रारंभ में उदयन बौद्ध धर्म के विरुद्ध था। उसने नशे में क्रुद्ध में होकर एक बार पिंडोल नाम के भिक्षु को उत्पीड़ित किया था किंतु बाद में पिंडोल के प्रभाव के कारण ही वह बुद्ध का अनुयायी बना।
यह स्वाभाविक था कि वत्स और अवंती के राजवंश अपनी शक्ति की स्पर्धा में परस्पर शत्रु बनें किंतु उदयन के जीवनकाल में अवंतिनरेश प्रद्योत भी वत्सराज पर आक्रमण करने का साहस न कर सका। कालांतर में, ऐसा प्रतीत होता है कि वत्स राज्य अवंति राज्य के प्रभाव में आकर उसी में मिल गया।
पुराणों में उदयन के बाद वहिनर, दंडपाणि, निरमित्र ,क्षेमक और विसंभर के नामों के साथ वत्स के राजाओं की सूची समाप्त होती है। इन राजाओं के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। इनमें से वहिनर ही संभवत: बोधिकुमार के नाम से एक जातक में और विसंभर के नाम से कथासरितत्सागर में उल्लिखित है। पुराणों के अनुसार क्षेमक के साथ वत्स के राजवंश का अंत हुआ। कुछ कहानियों में मिलता है की उनके वंसज इधर उधर चले गये जिसमे से कुछ गोरखपुर जौनपुर चले गये जिसमे से एक विसंभर आज के जौनपुर के बोदरी क्षेत्र में गये और वह अपने प्रजा के साथ बस गये,विशम्भर के वंसज सूबेदार के वंशज अरुन का कही नाम आता है, मगध नरेश शिशुनाग के द्वारा अवंति की विजय के साथ ही वत्स राज्य भी मगध राज्य का अंग बन गया।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ नाहर, डॉ रतिभानु सिंह (1974). प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास. इलाहाबाद, भारत: किताबमहल. पृ॰ 112.
इन्हें भी देखें
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