खरतरगच्छ, जैन धर्म का एक पंथ है।

इस गच्छ की उपलब्ध पट्टावली के अनुसार महावीर के प्रथम शिष्य गौतम हुए एवं उनके सहित 11 गणधर अर्थात मुख्य शिष्य बने। महावीर स्वामी के निर्वाण से पूर्व 9 गणधर केवलज्ञानी हो चुके थे एवं महावीर स्वामी के निर्वाण के तुरंत बाद गौतम स्वामी भी केवलज्ञानी हो गये अतः महावीर स्वामी के बाद पाट परम्परा सुधर्मा स्वामी से प्रारंभ हुई।पाटन में चैत्यवासी सुराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित करके श्री जिनेश्वर सूरि ने लगभग संवत 1075 में खरतर विरुद प्राप्त किया और उनके अनुयायी खरतरगच्छ समुदाय के कहलाने लगे। जिनेश्वर सूरि के पट्टधर जिनचंद्रसूरि उनके पट्टधर नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के पट्टाधर जिनवल्ल्भसूरि थे। इनके जिनदत्त सूरि नामक एक पट्टधर थे। ये सारे ही प्रकांड पंडित और चरित्रवान् थे। इन लोगों के प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, बागड़, सिंध, दिल्ली एवं गुजरात प्रदेश के १ लाख३० हजार परिवारों ने जैन धर्म की स्वीकार किया। उन लोगों ने इन स्थानों पर अपने पक्ष के अनेक जिन मंदिर और जैन उपाश्रय बनवाए और अपने पक्ष को सुविहितपक्ष नाम दिया। उनके शिष्यों ने जो जिन मंदिर बनवाए वे विधि चैत्य कहलाए। यही विधि पक्ष कालांतर में खरतरगच्छ कहा जाने लगा और यही नाम आज भी प्रचलित है।

इस गच्छ में अनेक गंभीर एवं प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। उन्होंने भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विषयों पर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश भाषा में हजारों ग्रंथ लिखे। उनके ये ग्रंथ केवल जैन धर्म की दृष्टि से ही महत्व के नहीं हैं, वरन समस्त भारतीय संस्कृति के गौरव माने जाते हें।

खरतरगच्छ के 82 वें वर्तमान पट्टधर आध्यात्मिक प्रमुख श्री जिनमणिप्रभसुरीश्वर महाराज है।