मेवाड़ क्षेत्र में किया जाने वाला गवरी नृत्य भील जनजाति का प्रसिद्ध नृत्य है। इस नृत्य को सावन-भादो माह में किया जाता है। इस में मांदल और थाली के प्रयोग के कारण इसे राई नृत्य के नाम से जाना जाता है। इसे केवल पुरुषों के दुवारा किया जाता है। वादन संवाद, प्रस्तुतिकरण और लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की गवरी निराली है। गवरी का उदभव शिव-भस्मासुर की कथा से माना जाता है। इसका आयोजन रक्षाबंधन के दुसरे दिन से शुरू होता है। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इसमें भील संस्कृति की प्रमुखता रहती है। यह पर्व आदिवासी जाती पर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। गवरी में मात्र पुरुष पात्र होते हैं। इसके खेलों में नरसि मेहता,गणपति,खाडलिया भूत,काना-गुजरी, जोगी, लाखा बणजारा इत्यादि के खेल होते हैैं। इसमें शिव को "पुरिया" कहा जाता है।

गवरी

पात्र संपादित करें

गबरी में चार तरह के पात्र होते हैं- देवता, मनुष्य, राक्षस और पशु।

मनुष्य पात्र संपादित करें

  1. झामट्या (लोक भाषा मे कविता बोलता है)
  2. भूडिया
  3. राई
  4. खटकड़िया(कविता दोहराता है)
  5. कंजर-कंजरी
  6. मीणा
  7. बणजारा-बणजारी
  8. दाणी
  9. नट
  10. खेतूडी
  11. शंकरिया
  12. कालबेलिया
  13. कान-गूजरी
  14. भोपा
  15. फत्ता-फत्ती

दानव पात्र संपादित करें

गबरी के दानव पात्र क्रूर तथा दूसरों को कष्ट देने वाले होते हैं। इनके सिर पर सींग तथा चेहरा भयानक होता है। इनमें प्रमुख पात्र है:यह शिव-भस्मासुर की कहानी पर आधारित है!

हटिया दानव

बुढ़िया : गवरी का मुख्य पात्र होता है। यह शिव और भस्मासुर का प्रतीक होता ।

पशु पात्र संपादित करें

गबरी में कई पशु पात्र भी होते हैं। जैसे शेर, भालू, सियार आदि। ये हिंसक नहीं होते हैं। व हास्य कलाकार को झटपटिया कहते हैं

इन्हें भी देखें संपादित करें

गवरी के दौरान पुरुष जो होते हैं वह अपने घर पर नहीं जाते हैं।