गिरिधर कविराय, हिंदी के प्रख्यात कवि थे। इनके समय और जीवन के संबंध में प्रमाणिक रूप से कुछ भी उपलब्ध नहीं है। अनुमान किया जाता है कि वे अवध के किसी स्थान के निवसी थे और जाति के ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण थे। शिवसिंह सेंगर के मतानुसार इनका जन्म 1770 ई. में हुआ था।

गिरिधर कविराय के जीवन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। श्री शिव सिंह ने उनका जन्म संवत् 1770 दिया है। उनका कविता-काल संवत् 1800 के उपरांत ही माना जा सकता है।

गिरिधर कवि ने नीति, वैराग्य और अध्यात्म को ही अपनी कविता का विषय बनाया है। जीवन के व्यावहारिक पक्ष का इनके काव्य में प्रभावशाली वर्णन मिलता है जिसकी पैठ जनमानस में बहुत गहरी है। इसीलिए इनकी नीति-संबंधी कुंडलियाँ जनमानस में बहुत लोकप्रिय हैं। इस लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है बिलकुल सरल, सहज, व्यावहारिक तथा सीधी-सादी भाषा में गंभीर तथा नीतिपरक तथ्यों का कथन। कुंडलियों में ही इन्होंने अपने समस्त काव्य की रचना की। गिरिधर कविराय ग्रंथावली में इनकी पाँच सौ से अधिक कुंडलियाँ संकलित हैं।

गिरिधर के समय तथा जीवन के संबंध में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है, क्योंकि अंतःसाक्ष्य या बहिःसाक्ष्य, किसी से भी कोई आधार प्राप्त नहीं है। इनकी कुंडलियाँ अधिकतर अवधी भाषा में मिलती हैं। इससे अनुमान होता है कि ये अवध प्रदेश के रहनेवाले थे। नाम के साथ 'कविराय' या 'कविराज' लगे होने से ये भाट जाति के प्रतीत होते हैं। इलाहाबाद के आस-पास के भाटों से पूछने पर भी इसी की पुष्टि होती है। ये भाट इनकी कुंडलियाँ तथा इसी प्रकार के अन्य छंद गा-गाकर भीख माँगते फिरते हैं। शिवसिंह सेंगर के अनुसार इनका जन्म सन् 1713 में हुआ था। इस आधार पर इनका रचनाकाल 18 वीं सदी का मध्य माना जा सकता है।

इनके संबंध में एक जनश्रुति प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि एक बढ़ई से किसी कारण इनकी अनबन हो गयी। बढ़ई ने इनसे बदला लेने के बारे में सोचा और उसने एक ऐसी चारपाई बनाकर वहाँ के राजा को दी, जिसकी विशेषता थी कि उस चारपाई पर ज्यों ही कोई सोता था, उसके चारों कोनों पर लगे चार पंखे चलने लगते थे। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उन्होंने उसी प्रकार की कुछ और चारपाइयाँ बनाने की आज्ञा दी। बढ़ई ने राजा से कहा कि इसे बनाने के लिए बेर की लकड़ी चाहिए, गिरिधर कविराय के आँगन में एक बेर का अच्छा पेड़ है, वह मुझे दिलवा दीजिये। राजा ने गिरिधर से कहा। गिरिधर ने बहुत अनुनय-विनय की, किंतु कोई फल न हुआ और उनके आँगन का पेड़ काट लिया गया। गिरिधर को बहुत बुरा लगा और वे पत्नी को साथ लेकर राज्य छोड़कर निकल गए। वे फिर कभी उस राज्य में नहीं लौटे और आजीवन पत्नी के साथ घूमते तथा अपनी कुंडलियाँ सुनाकर माँगते-खाते रहे। कहा जाता है कि उनकी जिन कुंडलियों में 'साईं' शब्द की छाप है, वे उनकी पत्नी द्वारा पति को अर्थात् (स्वामी या साईं) को संबोधित करके लिखी गयी हैं। यदि यह बात ठीक है तो उनके नाम से प्रचलित काफी कुंडलियाँ उनकी स्त्री की भी लिखी हुई हैं।

गिरिधर की कुंडलियों के छोटे-बड़े लगभग दस संस्करण निकल चुके हैं, जिनमें ‘कुंडलियाँ’, मुस्तफ़ा-ए-प्रेस, लाहौर (1874 ई.); ‘कुंडलियाँ’, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ (1833 ई.); ‘गिरिधर कविराय’, गुलशन-ए-पंजाब प्रेस, रावलपिंडी (1896 ई.) और ‘कुंडलियाँ’, भार्गव बुक डिपो बनारस (1904) प्रमुख हैं। सबसे बड़ा संग्रह ‘कविराय गिरिधरकृत कुंडलियाँ’, खेमराज श्रीकृष्णदास, बंबई (1953 ई.) है, जिसमें 457 कुंडलियाँ हैं। इन कुंडलियों के अतिरिक्त इनके लिखे कुछ दोहे, सोरठे और छप्पय भी मिलते हैं।

उत्तरी भारत की हिंदी जनता में गिरिधर की कुंडलियों का बहुत अधिक प्रचार है। इस प्रचार का कारण है, इनकी कुंडलियों में दैनिक जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण बातों का सरल और सीधी भाषा-शैली में वर्णित होना। इनके नीति-काव्य के प्रमुख विषय जाति, पिता, पुत्र, युग, यश, नारी, गृहिणी, चिंता, बैर, विश्वास, बनिया, सत्य, संग, शत्रु, धन, गुण-व्यवहार, राजा, चुगली, धर्म, भाग्य, मन, दान, होनहार, मूर्ख तथा ईश्वर आदि हैं। इनमें नीति की परंपरागत बातें भी हैं और अपने अनुभव पर आधारित नई बातें भी। इनमें काव्यत्व का प्रायः अभाव है और इस रूप में इन्हें कवि या सूक्तिकार न कहकर पद्यकार कहना अधिक उचित है। हाँ, इनकी कुछ अन्योक्तियाँ अवश्य मिलती हैं, जिन्हें काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है, किंतु ऐसे छंद सामान्य होने के साथ-साथ संख्या में भी अधिक नहीं है। पर्याप्त मात्रा में नीति-काव्य लिखनेवाले थोड़े ही कवि हैं और उनमें गिरिधर भी हैं, किंतु मात्रा को छोड़ यदि कविता पर ध्यान दिया जाए तो नीतिकारों में भी इनका स्थान बहुत सामान्य है।

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