पंचायत

भारत में स्थानीय स्वशासन संगठन
(ग्राम पंचायत से अनुप्रेषित)

भारत मैं पंचायती राज व्यवस्था मौर्य साम्राज्य से उत्पन्न हुई जो आज भी कायम है।

मध्य प्रदेश में पंचायत का चित्र

भारत की पंचायती राज प्रणाली में गाँव या छोटे कस्बे के स्तर पर ग्राम पंचायत या ग्राम सभा होती है जो भारत के स्थानीय स्वशासन का प्रमुख अवयव है। सरपंच, ग्राम सभा का चुना हुआ सर्वोच्च प्रतिनिधि होता है। प्राचीन काल से ही भारतवर्ष के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में पंचायत का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सार्वजनिक जीवन का प्रत्येक पहलू इसी के द्वारा संचालित होता था।


प्राचीन काल

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वैदिक काल में भी पंचायतों का अस्तित्व था। ग्राम के प्रमुख को ग्रामणी कहते थे। उत्तर वैदिक काल में भी यह होता था जिसके माध्यम से राजा ग्राम पर शासन करता था। बौद्धकालीन ग्रामपरिषद् में "ग्राम वृद्ध" सम्मिलित होते थे। इनके प्रमुख को "ग्रामभोजक" कहते थे। परिषद् अथवा पंचायत ग्राम की भूमि की व्यवस्था करती थी तथा ग्राम में शांति और सुरक्षा बनाए रखने में ग्रामभोजक की सहायता करती थी। जनहित के अन्य कार्यों का संपादन भी वही करती थी। स्मृति ग्रंथों में भी पंचायत का उल्लेख है। कौटिल्य ने ग्राम को राजनीतिक इकाई माना है। "अर्थशास्त्र" का "ग्रामिक" ग्राम का प्रमुख होता था जिसे कितने ही अधिकार प्राप्त थे। अपने सार्वजनिक कर्तव्यों को पूरा करने में वह ग्रामवासियों की सहायता लेता था। सार्वजनिक हित के अन्य कार्यों में भी ग्रामवासियों का सहयोग वांछनीय था। ग्राम की एक सार्वजनिक निधि भी होती थी जिसमें जुर्माने, दंड आदि से धन आता था। इस प्रकार ग्रामिक और ग्रामपंचायत के अधिकार और कर्तव्य सम्मिलित थे जिनकी अवहेलना दंडनीय थी। गुप्तकाल में ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई था जिसके प्रमुख को "ग्रामिक" कहते थे। वह "पंचमंडल" अथवा पंचायत की सहायता से ग्राम का शासन चलाता था। "ग्रामवृद्ध" इस पंचायत के सदस्य होते थे। हर्ष ने भी इसी व्यवस्था को अपनाया। उसके समय में राज्य "भुक्ति" (प्रांत), "विषय" (जिला) और "ग्राम" में विभक्त था। हर्ष के मधुबन शिलालेख में सामकुंडका ग्राम का उल्लेख है जो "कुंडघानी" विषय और "अहिछत्र" भुक्ति के अंतर्गत था। ग्रामप्रमुख को ग्रामिक कहते थे।

नवीं और दसवीं शताब्दी के चोल और उत्तर मल्लूर शिलालेखों से पता चलता है कि दक्षिण में भी पंचायत व्यवस्था थी। ग्राम्य स्वशासन का विकास चोल शासन की मुख्य विशेषता थी। इन साम्य शासन इकाइयों को "कुर्रुम" कहते थे, जिनमें कई ग्राम सम्मिलित होते थे। कुर्रुम एक स्वायत्तशासी इकाई थी। शासनसत्ता एक महासभा में निहित होती थी जिले ग्राम के लोग चुनते थे सभा अपनी समितियों के माध्यम से शासन का काम चलाती थी। इस प्रकार की आठ समितियाँ थीं जो जनहित के विभिन्न कार्यों को करने के अतिरिक्त शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए उत्तरदायी थीं। ये न्याय संबंधी कार्य भी करती थीं। ग्राम पूरी तरह स्वायत्तशासी था और इस प्रकार केंद्रीय शासन अनेक दायित्वों से मुक्त रहता था। मुस्लिम और मराठा कालों में भी किसी न किसी प्रकार की पंचायत व्यवस्था चलती रही और प्रत्येक ग्राम अपने में स्वावलंबी बना रहा।

ब्रिटिश काल

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अंग्रेजी शासनकाल में पंचायत-व्यवस्था को सबसे अधिक धक्का पहुँचा और वह यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। फिर भी ग्रामों के सामाजिक जीवन में पंचायतें बनी रहीं। प्रत्येक जाति अथवा वर्ग की अपनी अलग-अलग पंचायतें थीं जो उसके सामाजिक जीवन को नियंत्रित करती थीं और पंचायत की व्यवस्था एवं नियमों का उल्लंघन करनेवाले को कठोर दंड दिया जाता था। शासन की ओर से इन पंचायतों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। आरंभ से ही अंग्रेजों की नीति यह रही कि शासन का काम, यथासंभव, अधिकाधिक राज्य कर्मचारियों के हाथों में ही रहे। इसके परिणामस्वरूप फौजदारी और दीवानी अदालतों की स्थापना, नवीन राजस्व नीति, पुलिस व्यवस्था, गमनागमन के साधनों का विकास आदि कारणों से ग्रामों का स्वावलंबी जीवन और स्थानीय स्वायत्तता धीरे-धीरे समाप्त हो चली।

परंतु आगे चलकर अंग्रेजों ने भी यह अनुभव किया कि उनकी केंद्रीकरण की नीति से शासनभार दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है। दूसरी ओर राष्ट्रीय जाग्रति के कारण स्वायत्तशासन की माँग भी बढ़ रही थी। अतएव उन्हें विकेंद्रीकरण की दिशा में कदम उठाने को बाध्य होना पड़ा। प्रारंभ में जिला बोर्डों और म्युनिसिपल बोर्डों की स्थापना की गई। सन् 1907 के विकेंद्रीकरण संबंधी शाही कमीशन ने पंचायतों के महत्त्व को स्वीकर किया और अपनी रिपोर्ट में लिखा कि किसी भी स्थायी संगठन की नींव, जिससे जनता का सक्रिय सहयोग प्रशासन के साथ हो, ग्रामों में ही होनी चाहिए। कमीशन ने सिफारिश की कि कुछ चुने हुए ग्रामों में, जो पारस्परिक दलबंदी और झगड़ों से मुक्त हों, पंचायतें स्थापित की जाएँ और प्रारंभ में उन्हें सीमित अधिकार दिए जाएँ। तत्कालीन भारत सरकार ने 1915 ई. में कमीशन की सिफारिशों को सिद्धांतत: तो स्वीकर कर लिया परंतु व्यवहार में उनकी पूर्णतया उपेक्षा की गई। बहुत ही कम ग्रामों में पंचायतें बनी; जो बनीं, वे भी सरकार द्वारा पूरी तरह नियंत्रित थी।

भारत सरकार के 1919 में अधिनियम के अनुसार प्रांतीय सरकारों को स्वशासन के कुछ अधिकार दिए गए और 1920 के आसपास सभी प्रांतों में ग्राम पंचायत अधिनियम बनाए गए। संयुक्त प्रदेश (उत्तर प्रदेश) में 1920 के पंचायत ऐक्ट के अधीन लगभग 4700 ग्राम पंचायतें स्थापित की गईं। सभी प्रांतों में पंचायतों को सीमित अधिकार दिए गए। वे जनस्वास्थ्य, स्वच्छता, चिकित्सा, जलविकास, सड़कों, तालाबों कुओं आदि की देखभाल करती थीं। उन्हें न्याय संबंधी कुछ अधिकार भी प्राप्त थे। वे अधिकतम 200 रु. की चल संपत्ति से संबद्ध मुकदमे ले सकती थीं और फौजदारी के मुकदमों में 50 रु. तक जुर्माना कर सकती थीं। इनकी आय का मुख्य साधन जुर्माना या दान था। परंतु वास्तविकता यह रही कि प्राचीन पंचायतों की तुलना में ये पंचायतें पूर्णतया प्रभावहीन थीं, इनके पंच जनता द्वारा न चुने जाकर सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते थे तथा आय के साधन न होने के करण इनकी आर्थिक स्थिति शोचनीय थी। दूसरी ओर राष्ट्रीय आंदोलन के कर्णधार यह अनुभव करते थे कि गाँवों का आर्थिक और नैतिक पतन केवल पंचायतों की पुन: स्थापना द्वारा ही रोका जा सकता है। गांधी जी के ग्रामों के लिए दससूत्री कार्यक्रम में पंचायतों को सुदृढ़ बनाने की बात मुख्य थी। वे पंचायतों को स्वंतत्र भारत की शासनव्यवस्था की आधारशिला बनाना चाहते थे। 1937 में सात प्रांतों में स्थापित कांग्रेसी सरकारों के सामने भी यही आदर्श था। उत्तर प्रदेश में अनेक ग्रामों में जीवनसुधार समितियाँ (Better Life Societies) बनाई गई जिन्हें ग्रामविकास के कार्य सौंपे गए।

स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद

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इस प्रकार 1947 ई. तक ग्रामों में सही पंचायत व्यवस्था का अभाव ही रहा। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् इस व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के सक्रिय प्रयास आरंभ हुए। उत्तर प्रदेश में सन् 1947 में पंचायत राज अधिनियम बनाया गया। संविधान के अंतर्गत "राजनीति के निदेशक तत्वों" में राज्य का यह प्रमुख कर्तव्य बतलाया गया कि "वह ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर हो" तथा "उनको ऐसी शक्तियाँ और अधिकार प्रदान करे जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों"। इस निदेश के अनुसार प्रत्यक राज्य में पंचायत व्यवस्था लागू करने की दिशा में कदम उठाए गए और प्रत्येक ग्राम अथवा ग्रामसमूह में पंचायत की स्थापना की गई। पंचायत के सदस्यों का चुनाव गाँव के मताधिकारप्राप्त व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। ग्राम पंचायतें ग्राम की स्वच्छता, प्रकाश, सड़कों, औषधालयों, कुओं की सफाई और मरम्मत, सार्वजनिक भूमि, पैठ, बाजार तथा मेलों और चरागाहों की व्यवस्था करती हैं, जन्म मृत्यु का लेखा रखती हैं और खेती, उद्योग धंधों एवं व्यवसायों की उन्नति, बीमारियों की रोकथाम, श्मशानों और कब्रिस्तानों की देखभाल भी करती हैं। वृक्षारोपण, पशुवंश का विकास, ग्रामसुरक्षा के लिए ग्रामसेवक दल का गठन, सहकारिता का विकास, अकाल पीड़ितो की सहायता, पुलों और पुलियों का निर्माण, स्कूलों और अस्पतालों का सुधार आदि इनके ऐच्छिक कर्तव्य हैं। ग्रामों में पंचायत व्यवस्था का दूसरा अंग न्याय पंचायतें हैं। ग्रामों में मुकदमेबाजी कम करने तथा जनता को सस्ता न्याय सुलभ बनाने की दृष्टि से न्याय पंचायतों का निर्माण किया गया है। इन्हें दीवानी, फौजदारी और माल के मामलों में कुछ अधिकार प्रदान किए गए है। प्रत्येक राज्य में पंचायतों के अधिकार और दायित्व न्यूनाधिक रूप से समान है।

विकेंद्रीकरण व्यवस्था को पूरी तरह कार्यान्वित करने की दिशा में और भी कदम उठाए गए हैं। पंचायतों के अधिकारों और कर्तव्यों का क्षेत्र विस्तृत हो रहा है। इस प्रकार ग्राम पंचायतें पुन: हमारे देश के जनजीवन का अभिन्न अंग बन गई हैं। इस व्यवस्था की सफलता के लिए जनशिक्षा, सामूहिक चेतना, गुटबंदी का अभाव, राज्य द्वारा कम से कम हस्तक्षेप आदि बातें आवश्यक हैं।

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  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 23 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अप्रैल 2017.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 2 दिसंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अप्रैल 2017.
  3. "संग्रहीत प्रति". मूल से 29 अप्रैल 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अप्रैल 2017.
  4. "संग्रहीत प्रति". मूल से 15 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अप्रैल 2017.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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