चकवा (Ruddy shelduck), जिसे चक्रवाक और ब्राह्मणी बत्तख (Brahminy duck) भी कहा जाता है, बत्तख के टडोरना वंश की एक जाति है, जो गर्मियों में यूरोप और एशिया के उत्तरी भाग में प्रजनन करती है और फिर सर्दियों में प्रवास कर इन से दक्षिणी क्षेत्रों में जाती है, जिनमें भारतीय उपमहाद्वीप भी शामिल है। यह एक सुनहरे-नारंगी रंग का पक्षी है, जो भारतीय साहित्य में चिरपरिचित है। इसका उल्लेख कालिदास ने भी किया था और "चकवा-चकवी" के जोड़े के बारे में भारत में किंवदंतियाँ हैं।[2][3] इस पक्षी के बारे में कबीरदास ने कहा - सांझ पड़े, बीतबै, चकवी दीन्ही रोय। चल चकवा व देश को जहां रैन नहिं होय

चकवा
Ruddy shelduck
दो चकवा
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: जंतु
संघ: रज्जुकी (Chordata)
वर्ग: पक्षी (Aves)
गण: ऐन्सरीफोर्मीस (Anseriformes)
कुल: अनैटिडाए (Anatidae)
वंश: टडोरना (Tadorna)
जाति: टडोरना फेरुगिनेया
T. ferruginea
द्विपद नाम
Tadorna ferruginea
पालास, 1764
भौगोलिक वितरण
  प्रजनन
  निवास
  निष्प्रजनन
पर्यायवाची

Casarca ferruginea
Anas ferruginea
Casarca rutila

चक्रवाक का रंग गाढ़ा नारंगी या हलका कत्थई होता है, लेकिन इसकी गरदन ओर सिर बदामी होता है। गरदन के चारों ओर एक काला कंठा रहता हैं, लेकिन मादा इस कंठे से रहित होती है। डैने और पर के कुछ पंख काले और सफेद रहते हैं और डैने का चित्ता (Speculum) हरा होता है। चकवा से मिलती-जुलती एक अन्य जाति भी है, शाह चकवा, जो काले और सफेद रंग का बहुत ही सुंदर चितकबरा पक्षी है, जिसका कद और आदतें चक्रवाक जैसी ही होती हैं।

चक्रवाक दो फुट लंबा पक्षी है, जिसके नर ओर मादा करीब करीब एक जैसे ही होते हैं। मादा नर से कुछ छोटी होती है और उसका रंग भी नर से कुछ हलका रहता है। चक्रवाक सारे दक्षिणी पूर्वी यूरोप, मध्यएशिया और उत्तरी अफ्रीका के प्रदेशों में फैले हुए हैं, जहाँ यह झीलों, बड़ी नदियों तथा समुद्री किनारों पर अपना अधिक समय बिताते हैं। यह बहुत ढीठ पक्षी हैं। इनकी कर्कश बोली आबादी के निकटवर्ती जलाशयों में सुनाई पड़ती रहती है। हमारे कवियों ने इसी कारण शायद इनके बारे में यह कल्पना की है कि रात में नर पक्षी मादा से विलग हो जाता है और उसका मिलन सूर्योदय के पूर्व नहीं होता, लेकिन केवल साहित्यिक मान्यता के अतिरिक्त इसमें कोई तथ्य नहीं है।

चक्रवाक जोड़े में रहते हैं, लेकिन कभी कभी सैकड़ों का झुंड बना लेते हैं। ये अंडा देने के लिये घोंसला नहीं बनाते। इनकी मादा पहाड़ के सूराखों में अथवा जमीन पर ही थोड़ा घास फूस रखकर अपने अंडे देती है। इनका मुख्य भोजन घास पात, सेवर तथा अन्न के दाने आदि हैं, लेकिन छोटी छोटी मछलियाँ और घोंघे, कटुए आदि भी ये खा लेते हैं। इनका मांस साधारण तथा बिसैधा होता है। (सु.सिं.)

चक्रवाक (साहित्य)

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नामकरण उसके बोलने के ढंग पर हुआ है। चकवा इसका अपभ्रंश हिंदी शब्द है। इस पक्षी का प्राचीनतम उल्लेख अश्वमेघ के अंतर्गत बलिजीवों की सूची में ऋग्वेद (2.39,3) तथा यजुर्वेद में हुआ है। इसके संबंध में प्रचलित किंवदंती, जो कविसमय के रूप में प्रसिद्ध होकर भारतीय प्राचीन और अर्वाचीन काव्यों में प्रयुक्त हुई है तथा जिसका इस अर्थ में सबसे पुराना प्रयोग अथर्ववेद (4.2.64) में दंपति की परस्पर निष्ठा और प्रेम जैसी चारित्रिक विशेषता के संदर्भ में हुआ है, यह है कि इसके जोड़े दिन में तो प्रेमपूर्वक साथ साथ विचरते हें किंतु सूर्यास्त के बाद बिछुड़ जाते हैं ओर रात भर अलग रहते हैं। अत्यंत प्राचीन काल से कवियों की संयोग तथा वियोगसंबंधी कोमल व्यंजनाएँ इस प्रसिद्धि से संबद्ध हैं। यह पक्षी मिलन की असमर्थता के प्रतीक रूप में अनेक उक्तियों का विषय रहा है। अंधविश्वास, किंवदंती और काल्पनिक मान्यता से युक्त इस पक्षी की तथाकतित उपर्युक्त विशेषता ने इसे कविसमय तथा रूढ़ उपमान के रूप में प्रसिद्ध कर दिया है।

चित्रदीर्घा

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इन्हें भी देखें

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  1. BirdLife International (2012). "Tadorna ferruginea". अभिगमन तिथि 26 November 2013. Cite journal requires |journal= (मदद)
  2. Todd, Frank S. (1991). Forshaw, Joseph (ed.). Encyclopaedia of Animals: Birds. London: Merehurst Press. p. 87. ISBN 1-85391-186-0.
  3. Madge, Steve & Burn, Hilary (1987): Wildfowl: an identification guide to the ducks, geese and swans of the world. Christopher Helm, London. ISBN 0-7470-2201-1