चारभुजा मन्दिर, राजसमंद
चारभुजा जी एक ऐतिहासिक एवं प्राचीन हिन्दू मन्दिर है जो भारतीय राज्य राजस्थान के राजसमंद ज़िले की कुम्भलगढ़ तहसील के गढ़बोर गांव में स्थित है। [1] [2][3][4][5]
चारभुजा | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | गढ़ोर, कुम्भलगढ़ |
ज़िला | राजसमंद |
राज्य | राजस्थान |
देश | भारत |
वास्तु विवरण | |
निर्माता | bharat pandiya |
अवस्थिति ऊँचाई | [convert: invalid number] |
उदयपुर से 112 और कुम्भलगढ़ से 32 कि.मी. की दूरी पर यह मेवाड़ का जाना–माना तीर्थ स्थल है, जहां चारभुजा जी की बड़ी ही पौराणिक एवं चमत्कारिक प्रतिमा है। मेवाड़ के सांवलियाजी मंदिर, केशरियानाथ जी मंदिर, एकलिंगनाथ जी मंदिर, श्रीनाथजी मंदिर, द्वारिकाधीशजी मंदिर, रूपनारायणजी मंदिर व चारभुजानाथ मंदिर सुप्रसिद्ध हैं!यह मन्दिर जयपुर से 315 किलोमीटर स्थित है।
मंदिर के निकट एक बावड़ी भी बनी है। मंदिर के सामने हनुमानजी मंदिर भी है। चारभुजा जी के दर्शन कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर होते हैं। यहाँ सीढ़ियों के दोनों तरफ गोखड़ों पर विशाल हाथी बने हैं। जून, 2023 में मंदिर के बाहर जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है।
विवरण
संपादित करेंइस मन्दिर का निर्माण खरवड़ राजपूत शासक गंगदेव ने करवाया था। चारभुजा के शिलालेख के अनुसार सन् १४४४ ई. (वि.स. १५०१) में खरवड़ ठाकुर महिपालसिंह व उसके पुत्र राजकुमार लक्ष्मण ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। एक मन्दिर में मिले शिलालेख के अनुसार यहां इस क्षेत्र का नाम "बद्री" था जो कि बद्रीनाथ से मेल खाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव को हिमालय में तपस्या कर सद्गति प्राप्त करने का आदेश देते हुए स्वयं गौलोक जाने की इच्छा जाहिर की, तब उद्धव ने कहा कि मेरा तो उद्धार हो जाएगा परंतु आपके परमभक्त पांडव व सुदामा तो आपके गौलोक जाने की ख़बर सुनकर प्राण त्याग देंगे। ऐसे में श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से स्वयं व बलराम की मूर्तियां बनवाईं, जिसे राजा इन्द्र को देकर कहा कि ये मूर्तियां पांडव युधिष्ठिर व सुदामा को सुपुर्द करके उन्हें कहना कि ये दोनों मूर्तियां मेरी है और मैं ही इनमें हूं। प्रेम से इन मूर्तियों का पूजन करते रहें, कलियुग में मेरे दर्शन व पूजा करते रहने से मैं मनुष्यों की इच्छा पूर्ण करूंगा। इन्द्र देवता ने श्रीकृष्ण की मूर्ति सुदामा को प्रदान की और पांडव व सुदामा इन मूर्तियों की पूजा करने लगे। वर्तमान में गढ़बोर में चारभुजा जी के नाम से स्थित प्रतिमा पांडवों द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति और सुदामा द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति रूपनारायण के नाम से सेवंत्री गांव में स्थित है। कहा जाता है कि पांडव हिमालय जाने से पूर्व मूर्ति को जलमग्न करके गए थे ताकि इसकी पवित्रता को कोई खंडित न कर सके।
गढ़बोर के तत्कालीन राजपूत शासक गंगदेव को चारभुजानाथ ने स्वप्न में आकर आदेश दिया कि पानी में से निकालकर मूर्ति मंदिर बनाकर स्थापित करो। राजा ने ऐसा ही किया, उसने जल से प्राप्त मूर्ति को मंदिर में स्थापित करवा दी। कहा जाता है कि मुग़लों के अत्याचारों को देखते हुए मूर्ति को कई बार जलमग्न रखा गया है। महाराणा मेवाड़ ने चारभुजानाथ के मंदिर को व्यवस्थित कराया था। कहा जाता है कि एक बार मेवाड़ महाराणा उदयपुर से यहां दर्शन को आए लेकिन देर हो जाने से पुजारी देवा ने भगवान चारभुजाजी का शयन करा दिया और हमेशा महाराणा को दी जाने वाली भगवान की माला खुद पहन ली। इसी समय महाराणा वहां आ गए। माला में सफेद बाल देखकर पुजारी से पूछा कि क्या भगवान बूढे़ होने लगे है? पुजारी ने घबराते हुए हां कह दिया। महाराणा ने जांच का आदेश दे दिया। दूसरे दिन भगवान के केशों में से एक केश सफेद दिखाई दिया। इसे ऊपर से चिपकाया गया केश मानकर जब उसे उखाडा़ गया तो श्रीविग्रह (मूर्ति) से रक्त की बूंदें निकल पड़ी। इस तरह भक्त देवा की भगवान ने लाज रख दी। उसी रात्रि को महाराणा ने सपना देखा जिसमें भगवान ने कह दिया कि भविष्य में कोई भी महाराणा दर्शन के लिए गढ़बोर न आवे तब से पंरपरा का निर्वाह हो रहा है, यहां मेवाड़ महाराणा नहीं आते है। लेकिन महाराणा बनने से पूर्व युवराज के अधिकार से इस मंदिर पर आकर जरूर दर्शन करते है और फिर महाराणा की पदवी ली जाती है।
इसी गढ़बोर पर कभी चौहान नाम से पहचान रखने वाले क्षत्रियों के पूर्वज विहलजी चौहान के अनूठे शौर्य पर मेवाड़ के शासक रावल जैतसी ने विहलजी को रावत का खिताब व गढ़बोर का राज्य इनाम में दिया था। आज भी विहलजी चौहान का दुर्ग चारभुजा से सेवंत्री जाने वाले मार्ग पर खण्डहर हालात में विद्यमान है।
गढ़बोर में चारभुजानाथ का प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की एकादशी (जलझुलनी एकादशी) को विशाल मेला लगता है। चारभुजा गढ़बोर में हर वर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। यहां पर आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 26 अक्तूबर 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 दिसंबर 2021.
- ↑ http://www.ignca.nic.in/rjrsd0550001.html[मृत कड़ियाँ]
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 1 जनवरी 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 नवंबर 2015.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 25 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 नवंबर 2015.
- ↑ History of Merwara. Thakur Premsimgh Chouhan. 1990.
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