छायावाद

द्विवेदी युगोपरांत हिन्दी काव्य का काल ( लगभग. 1918 -1938 ईस्वी)

छायावाद हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही।

[1] जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, पंडित माखन लाल चतुर्वेदी इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है।

[2] मुकुटधर पाण्डेय ने श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया | प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद ब्रजभाषा हिंदी काव्य धारा से बाहर हो गई। इसने हिंदी को नए शब्द, प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए। इसके प्रभाव से इस दौर की गद्य की भाषा भी समृद्ध हुई। इसे 'साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग' कहा जाता है।

छायावाद के नामकरण का श्रेय 'मुकुटधर पांडेय' को दिया जाता है। इन्होंने सर्वप्रथम 1920 ई में जबलपुर से प्रकाशित श्रीशारदा (जबलपुर) पत्रिका में 'हिंदी में छायावाद' नामक चार निबंधों की एक लेखमाला प्रकाशित करवाई थी।[3] मुकुटधर पांडेय जी द्वारा रचित कविता "कुररी के प्रति" छायावाद की प्रथम कविता मानी जाती है । मुकुट धर पांडेय की रचनाएं:-

  • पूजा फूल
  • कानन कुसुम
  • आंसू
  • प्रेम बंधन ।

हिंदी कविता में छायावाद का युग द्विवेदी युग के बाद आया। द्विवेदी युग की कविता नीरस उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी। छायावाद में इसके विरुद्ध विद्रोह करते हुए कल्पनाप्रधान, भावोन्मेशयुक्त कविता रची गई। यह भाषा और भावों के स्तर पर अपने दौर के बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजली से बहुत प्रभावित हुई। यह प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और श्रृंगार की कविताओं) से भी प्रभावित हुई। इसमें बौद्ध दर्शन और सूफी दर्शन का भी प्रभाव लक्षित होता है। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था।

वस्तुजगत् अपना घनत्व खोकर इस जग में
सूक्ष्म रूप धारण कर लेता, भावद्रवित हो।

कवि के केवल सूक्ष्म भावात्मक दर्शन का ही नहीं, 'छाया' से उसके सूक्ष्म कलाभिव्यजंन का भी परिचय मिलता है। उसकी काव्यकला में वाच्यार्थ की अपेक्षा लाक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता है। अनुभूति की निगूढ़ता के कारण अस्फुटता भी है। शैली में राग की नवोद्बुद्धता अथवा नवीन व्यंजकता है।

द्विवेदी युग में कविता का ढाँचा पद्य का था। वस्तुत: गद्य का प्रबंध ही उसमें पद्य हो गया था, भाषा भी गद्यवत् हो गई थी। छायावाद ने पद्य का ढाँचा तोड़कर खड़ी बोली को काव्यात्मक बना दिया। पद्य में स्थूल इतिवृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अतंर्वृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अंतर्वृत्त आ गया। भाव के अनुरूप ही छायावाद की भाषा और छंद भी रागात्मक और रसात्मक हो गया। ब्रजभाषा के बाद छायावाद द्वारा गीतकाव्य का पुनरुत्थान हुआ। छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं- प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार। पूर्वानुगामी सहयोगी हैं- माखनलाल और 'नवीन'।

गीतकाव्य के बाद छायावाद में भी महाकाव्य का निर्माण हुआ। तुलसीदास जैसे 'स्वांत:' को लेकर लोकसंग्रह के पथ पर अग्रसर हुए थे वैसे ही छायावाद के कवि भी 'स्वात्म' को लेकर एकांत के स्वगत जगत् से सार्वजनिक जगत् में अग्रसर हुए। प्रसाद की 'कामायनी' और पंत का 'लोकायतन' इसका प्रमाण है। 'कामायनी' सिंधु में विंदु (एकांत अंतर्जगत्) की ओर है, 'लोकायतन' विंदु में सिंधु (सार्वजनिक जगत्) की ओर।

विभिन्न आलोचकों की दृष्टि में छायावाद

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  • रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि- "संवत् १९७० के आसपास मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कवि खड़ीबोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए।[4] यह स्वच्छन्द और नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल रही थी कि रवीन्द्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई। और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और प्रतीकवाद अथवा चित्रभाषावाद को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही बाकी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलनेवाले काव्य ने छायावाद नाम ग्रहण किया।

छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम का अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में होता है’ छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मक (कथात्मकता) की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। जैसे, "धूल की ढेरी में अनजाने, छिपे हैं मेरे मधुमय गान।""

  • नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि- "प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास में लिखा है कि- "द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते सारे देश में नई चेतना की लहर दौड़ गई। सन् १९२९ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतवर्ष विदेशी गुलामी को झाड़-फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गया। इसे सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं समझना चाहिये। यह संपूर्ण देश का आत्म स्वरूप समझने का प्रयत्न था और अपनी गलतियों को सुधार कर संसार की समृद्ध जातियों की प्रति- द्वंद्विता में अग्रसर होने का संकल्प था। संक्षेप में, यह एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। चित्तगत उन्मुखता इस कविता का प्रधान उद्गम थी और बदलते हुए मानो के प्रति दृढ आस्था इसका प्रधान सम्बल। इस श्रेणी के कवि ग्राहिकाशक्ति से बहुत अधिक संपन्न थे और सामाजिक विषमता और असामंजस्यों के प्रति अत्यधिक सजग थे। शैली की दृष्टि से भी ये पहले के कवियों से एकदम भिन्न थे। इनकी रचना मुख्यतः विषयि प्रधान थी। सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख।"
  • नगेन्द्र ने लिखा है कि- "1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई।"
  • नामवर सिंह ने छायावाद में लिखा है कि- "छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।"

छायावादी कवियों की दृष्टि में

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  • जयशंकर प्रसाद ने लिखा कि- "काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।" वे यह भी कहते हैं कि- "छायावादी कविता भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।"
  • सुमित्रानंदन पंत छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं।
  • महादेवी वर्मा छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन। उनके छायावाद ने मनुष्य के ह्रृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी।’ इस प्रकार महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कराके हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। वे रहस्यवाद को छायावाद का दूसरा सोपान मानती हैं।

छायावाद की मुख्य विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)

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छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का विभाजन हम तीन या दो शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं।

आत्माभिव्यक्ति

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छायावाद में सभी कवियों ने अपने अनुभव को मेरा अनुभव कहकर अभिव्यक्त किया है। इस मैं शैली के पीछे आधुनिक युवक की स्वयं को अभिव्यक्त करने की सामाजिक स्वतंत्रता की आकांक्षा है। कहानी के पात्रों अथवा पौराणिक पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति की चिर आचरित और अनुभव सिद्ध नाटकीय प्रणाली उसके भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः समर्थ नहीं थी। वैयक्तिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति की मुक्ति से संबद्ध थी। यह वैयक्तिक अभिव्यक्ति भक्तिकालीन कवियों के आत्मनिवेदन से बहुत आगे की चीज है। यह ऐहिक वैयक्तिक आवरणहीन थी। इसपर धर्म का आवरण नहीं था। सामंती नैतिकता को अस्वीकार करते हुए पंत ने उच्छवास और आँसू की बालिका से सीधे शब्दों में अपना प्रणय प्रकट किया है:- "बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।" वैयक्तिक क्षेत्र से आगे बढ़कर निराला ने अपनी पुत्री के निधन पर शोकगीत लिखा और जीवन की अनेक बातें साफ-साफ कह डालीं। संपादकों द्वारा मुक्त छंद का लौटाया जाना, विरोधियों का शाब्दिक प्रहार, सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए एकदम नए ढंग से सरोज का विवाह करना आदि लिखकर सामाजिक क्षेत्र के अपने अनुभव सीधे-सीधे मैं शैली में अभिव्यक्त किए। इसी तरह वनबेला में निराला ने अपनी कहानी के माध्यम से पुरानी सामाजिक रूढ़ियों पर और आधुनिक अर्थ पिशाचों पर प्रहार किया है।

नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण

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इसके आगे चलकर छायावाद अलौकिक प्रेम या रहस्यवाद के रूप में सामने आता है। कुछ आचार्य इसे छायावाद की ही एक प्रवृत्ति मानते हैं और कुछ इसे साहित्य का एक नया आंदोलन।

नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण छायावादी कवियों ने नारी को प्रेम का आलंबन माना है। तथा छायावादी कवियों ने नारी के रूप रंग वा सौंदर्य का आदुतीय वर्णन किया है। और नारी के प्रेम को आलौकिक माना है।उन्होंने नारी को प्रेयसी के रूप में ग्रहण किया जो यौवन और ह्रृदय की संपूर्ण भावनाओं से परिपूर्ण है। जिसमें धरती का सौंदर्य और स्वर्ग की काल्पनिक सुषमा समन्वित है। अतः इन कवियों ने प्रेयसी के कई चित्र अंकित किये हैं। कामायनी में प्रसाद ने श्रद्धा के चित्रण में जादू भर दिया है। छायावादी कवियों का प्रेम भी विशिष्ट है।

    • इनके प्रेम की पहली विशेषता है कि इन्होंने स्थूल सौंदर्य की अपेक्षा सूक्ष्म सौंदर्य का ही अंकन किया है। जिसमें स्थूलता, अश्लीलता और नग्नता नहींवत है। जहाँ तक प्रेरणा का सवाल है छायावादी कवि रूढ़ी, मर्यादा अथवा नियमबद्धता का स्वीकार नहीं करते। निराला केवल प्राणों के अपनत्व के आधार पर, सब कुछ भिन्न होने पर अपनी प्रेयसी को अपनाने के लिए तैयार हैं।
    • इन कवियों के प्रेम की दूसरी विशेषता है - वैयक्तिकता। जहाँ पूर्ववर्ती कवियों ने कहीं राधा, पद्मिनी, ऊर्मिला के माध्यम से प्रेम की व्यंजना की है तो इन कवियों ने निजी प्रेमानुभूति की व्यंजना की है।
    • इनके प्रेम की तीसरी विशेषता है- सूक्ष्मता। इन कवियों का श्रृंगार-वर्णन स्थूल नहीं, परंतु इन्होंने सूक्ष्म भाव-दशाओं का वर्णन किया है। चौथी विशेषता यह है कि इनकी प्रणय-गाथा का अंत असफलता में पर्यवसित होता है। अतः इनके वर्णनों में विरह का रुदन अधिक है। ह्रृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओं को साकार रूप में प्रस्तुत करना छायावादी कविता का सबसे बड़ा कार्य है।

प्रकृति प्रेम

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प्रकृति सौंदर्य का सरसतम वर्णन और उससे प्रेम का वर्णन भी छायावादी कवियों की उल्लेखनीय विशेषता है।

    • छायावाद के प्रकृतिप्रेम की पहली विशेषता है कि वे प्रकृति के भीतर नारी का रूप देखते हैं, उसकी छवि में किसी प्रेयसी के सौंदर्य-वैभव का साक्षात्कार करते हैं। प्रकृति की चाल-ढाल में किसी नवयौवना की चेष्टाओं का प्रतिबिंब देखते हैं। उसके पत्ते के मर्मर में किसी बाला-किशोरी का मधुर आलाप सुनते हैं। प्रकृति में चेतना का आरोपण सर्व प्रथम छायावादी कवियों ने ही किया है। जैसे,

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर पनघट में डूबो रही
तारा घट उषा नागरी। (प्रसाद) या

दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से
उतर रही

वह संध्या सुंदरी परी-सी धीरे-धीरे। (निराला)

    • प्रकृति सौंदर्य की दूसरी प्रवृत्ति है- मुग्धता की। जहाँ कवि प्रकृति में चेतनता आरोप करता है तो प्रकृति उसे सप्राण लगती है। इससे कवि विस्मय प्रकट करता है। जैसे पंत की मौन निमंत्रण कविता।
    • कवि मानव-जीवन की समस्त भावनाओं और अनुभूतियों को प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। छायावादी कवियों में प्रधान रूप से महादेवी में यह प्रवृत्ति विशेष लक्षित होती है। जैसे, मैं बनी मधुमास आली।

राष्ट्रीय / सांस्कृतिक जागरण

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छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त किया है। इस युग में वीरों को उत्साहित करने वाली कविताएँ लिखी गईं। देश के वीरों को संबोधित करते हुए जयशंकर प्रसाद लिखते है़ं-

'हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती'

इतना ही नहीं आम जनता को जागृत करने के भाव से ही 'जागो फिर एक बार' जैसी कविताएँ लिखीं गईं।

रहस्यवाद

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आध्यात्मिक प्रेम-भावना या अलौकिक प्रेम-भावना का स्वरूप अधिकांश महादेवी जी की कविता में मिलता है। वे अपने को प्रेम के उस स्थान पर बताती हैं जहाँ प्रेमी और उसमें कोई अंतर नहीं। जैसे, तुममुझमें प्रिय फिर परिचय क्या ? रहस्यवाद के अंतर्गत प्रेम के कई स्तर होते हैं। प्रथम स्तर है अलौकिक सत्ता के प्रति आकर्षण। द्वितीय स्तर है- उस अलौकिक सत्ता के प्रति दृढ अनुराग। तृतीय स्तर है विरहानुभूति। चौथा स्तर है- मिलन का मधुर आनंद। महादेवी और निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। यद्यपि छायावाद और रहस्यवाद में विषय की दृष्टि से अंतर है। जहाँ रहस्यवाद का विषय - आलंबन अमूर्त, निराकार ब्रह्म है, जो सर्व व्यापक है, वहाँ छायावाद का विषय लौकिक ही होता है।

स्वच्छन्दतावाद

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इस प्रवृत्ति का प्रारंभ श्रीधर पाठक की कविताओं से होता है। पद्य के स्वरूप, अभिव्यंजना के ढंग और प्रकृति के स्वरूप का निरीक्षण आदि प्रवृत्तियाँ छायावाद में प्रकट हुई। साथ-साथ स्वानुभूति की प्रत्यक्ष विवृत्ति, जो व्यक्तिगत प्रणय से लेकर करुणा और आनंद तक फैली हुई है। आलोचकों ने छायावाद पर स्वच्छन्दता का प्रभाव बताया है तो दूसरी ओर इसका विरोध भी प्रकट है।

स्वच्छन्दतावाद की यह प्रवृत्ति देशगत, कालगत, रूढियों के विरुद्ध हमेशा रहती हैं। जहाँ कहीं भी बंधन हैं, समाज, राज्य, कविता और जीवन- तमाम स्तरों पर इन रूढियों का स्वच्छन्दतावादी कवि विरोध करता है। अंग्रेजी साहित्य में स्वच्छन्दतावादी काव्य से पहले कठोर अनुशासन था और उसका रूप धार्मिक, नैतिक और काव्यशास्त्रीय भी था। अतः अंग्रेजी कवियों ने इन बंधनों का तिरस्कार किया। लेकिन छायावादी कवियों से पूर्व द्विवेदीयुग में नैतिक दृष्टि की प्रधानता मिलती है और छायावादी में उसका विरोध भी दिखाई देता है। छायावादी प्रवृत्ति स्वच्छन्द प्रणय की नहीं किन्तु पुनरुत्थानवादी ज्यादा थी। क्योंकि रीतिकालीन श्रृंगार-चित्रण का उस पर प्रभाव है। जहाँ दार्शनिक सिद्धांतों का संबंध है छायावादी काव्य में सर्ववाद, कर्मवाद, वेदांत, शैव-दर्शन, अद्वैतवाद आदि पुराने सिद्धांतों की अभिव्यक्ति मिलती है। जहाँ तक भाषा-शैली का सवाल है, छायावादी की अभिव्यंजना पद्धति नवीन और ताज़ा है।

द्विवेदीयुगीन खड़ीबोली में स्थूलता, वर्णनात्मकता अधिक है। परंतु छायावादी काव्य में सूक्ष्मता के निरूपण के कारण उपचार-वक्रता और मानवीकरण की विशेषताएँ दिखाई देती हैं।

कल्पना की प्रधानता

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द्विवेदीयुगीन काव्य विषयनिष्ठ (वस्तुपरक), वर्णन- प्रधान और स्थूल है तो छायावादी काव्य व्यक्तिनिष्ठ और कल्पना-प्रधान है। द्विवेदीयुगीन कविता में सृष्टि की व्यापकता और अनेकरूपता को समेटा गया है। उसी प्रकार छायावाद की कविता में मनोजगत की वाणी को प्रकट करने का प्रयत्न है। मनोजगत के सूक्ष्म सत्य को साकार करने के लिए छायावादी कवियों ने ऊर्वरा कल्पनाशक्ति का उपयोग किया है। इन्होंने केवल कल्पना पर भी कई गीत लिखे हैं। कल्पना शब्द का इनके यहाँ बहुत प्रयोग हुआ है।

दार्शनिकता

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छायावाद में वेदांत से लेकर आनंदवाद तक का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसमें बौद्ध और गांधी दर्शन की भी झलक मिलती है।

अद्वैतवाद का एक उदाहरण देखिए-

"तुम तुंग हिमालय श्रृंग और मैं चंचल गति सुर सरिता। तुम विमल हृदय उच्छवास और मैं कान्त कामिनी कविता।" (निराला)

धर्म के क्षेत्र में रूढियों एवं बाह्याचारों से मुक्त व्यापक मानव हित वादः जैसे-

"औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ। अपने सुख को विस्मृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।" (कामायनी-प्रसाद)

समाज के क्षेत्र में समन्वयवाद। जैसे-

"ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की, दोनों मिल एक न हो सके, यही विडम्बना है जीवन की।" (कामायनी-प्रसाद)

ग्राहस्थ्य (पारिवारिक) एवं दांपत्य-जीवन के क्षेत्र में ह्रृदयवाद अथवा प्रेम-पूर्ण व्यवहार। जैसे-

"तप रे मधुर-मधुर मन, विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन, गंध हीन तू गंध युक्त बन।" (महादेवी)

शैलीगत प्रवृत्तियाँ

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  • 1.मुक्तक गीति शैली (गीति शैली के सभी तत्व -1.वैयक्तिक्ता 2.भावात्मकता 3.संगीतात्मकता 4.संक्षिप्तता 5.कोमलता छायावादी कवियों के काव्य में मिलते हैं।)
  • 2. प्रतीकात्मकता
  • 3. प्राचीन एवं नवीन अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग (मानवीकरण, विरोधाभास, विशेषण विपर्यय)
  • 4.कोमलकांत संस्कृतमय शब्दावली

जयशंकर प्रसाद की कुछ रचनाओं के उदाहरण देखें- प्रतीकों के द्वारा इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की मार्मिकता में वृद्धि की है। मूर्त को अमूर्त और अमूर्त को मूर्त रूप में चित्रित करने के लिए इन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं। जैसे,

1. मूर्त के लिए अमूर्त उपमान- बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल। (कामायनी)
2. अमूर्त के लिए मूर्त उपमान- कीर्ति किरण-सी नाच रही है। (कामायनी)
3. विशेषण विपर्यय- तुम्हारी आँखों का बचपन खेलता जग का अल्हड़ खेल।
4. विरोधाभास- शीतल ज्वाला जलती है। (आँसू - प्रसाद)
5. रूपकातिशयोक्ति- बाँधा था विधु के किसने, इन काली जंजीरों से। (आँसू - प्रसाद)
6. कोमलकांत पदावली- मृदु मन्द-मन्द मंथर-मंथर लघुतरिणी-सी सुंदर।

विश्वमानवतावाद‌-:

छायावाद के कवियो मे राष्ट्रप्रेम तो है लेकिन उनमे राष्ट्रवाद नही है। ये अपने काव्य मे विश्व कि ही अभिव्यक्ति करते है। प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ मे अखिल मानव- भावो के सत्य को हृदय पटल पर अंकित करने की कामना व्यक्त हुइ है।पंत जी ने ‘छायावाद: पुनर्मुल्यांकन’ मे इस बात पर बल दिया है की छायावाद विश्वद्रिस्टि से अनुप्राणित था और यही उसकी आधुनिकता थी।निराला ने एक कविता लिखि थी ‘सम्राट अश्टम एड्वर्ड’ के प्रति जिसने यह प्रमाणित कर दिया कि छायावाद के कवि की दृस्टि देश, धर्म, वर्ण आदि सभी दिवारो को तोड्कर मानवीय सम्बंधो और सम्वेदना के नाते किसी भी व्यक्ति या समाज के प्रति सहानुभुति रखने को तत्पर है। निराला की ये पंक्तिया दृश्टव्य है-

“मानव मानव से नही भिन्न

निश्चय, हो श्वेत, कृश्ण अथवा  वह नही क्लिन्न,

भेद कर पंक निकलता कमल जो

मानव का वह निश्कलंक्।“(5)  

  1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, प्रधान सम्पादक - धीरेन्द्र वर्मा, प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटिड वाराणसी, तृतीय संस्करण १९८५, पृष्ठ २५१
  2. हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डा॰ मोहन अवस्थी, संस्करण १९८३, प्रकाशक- सरस्वती प्रेस इलाहाबाद, पृष्ठ २५९
  3. नामवर, सिंह (२००६). छायावाद. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृ॰ ११.
  4. आचार्य रामचन्द्र, शुक्ल (२०१३). हिंदी साहित्य का इतिहास. इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन. पृ॰ ४५५.

बाहरी कड़ियाँ

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