जैन मुनि

जैन संन्यासी

जैन मुनि जैन धर्म में संन्यास धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों के लिए किया जाता हैं। जैन मुनि के लिए निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग भी किया जाता हैं। मुनि/ साधु शब्द का प्रयोग पुरुष संन्यासियों के लिए किया जाता हैं और साध्वी का प्रयोग स्त्री संन्यासियों के लिए किया जाता हैं। श्रमण शब्द का प्रयोग भी किया जाता हैं 

जैन मुनि/निर्ग्रंथ/साधु/श्रमण
व्रत नाम अर्थ
जैन मुनि/निर्ग्रंथ/साधु/श्रमण
महाव्रत-
तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है
१. अहिंसा किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना।
२. सत्य हित, मित, प्रिय वचन बोलना।
३. अस्तेय जो वस्तु नहीं दी जाई उसे ग्रहण नहीं करना।
४. ब्रह्मचर्य मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का पूर्ण त्याग करना।
५. अपरिग्रह पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का आसक्ति का त्याग

समिति-
प्रवृत्तिगत सावधानी [1]
६.ईर्यासमिति सावधानी पूर्वक चार हाथ जमीन देखकर चलना
७.भाषा समिति निन्दा व दूषित भाषाओं का त्याग
८.एषणासमिति श्रावक के यहाँ छियालीस दोषों से रहित आहार लेना
९.आदाननिक्षेप धार्मिक उपकरण उठाने रखने में सावधानी
१०.प्रतिष्ठापन निर्जन्तुक स्थान पर मल-मूत्र का त्याग
पाँचेंद्रियनिरोध ११.१५ पाँचों इंद्रियों पर नियंत्रण
छः आवश्यक
आवश्यक करने योग्य क्रियाएँ
१६. सामायिक (समता) समता धारण कर आत्मकेन्द्रित होना
१७. स्तुति २४ तीर्थंकरों का स्तवन
१८. वंदन भगवान की प्रतिमा और आचार्य को प्रणाम
१९.प्रतिक्रमण ग़लतियों का शोधन
२०.प्रत्याख्यान त्याग
२१.कायोत्सर्ग देह के ममत्व को त्यागकर आत्म स्वरूप में लीन होना
अन्य-
६ अन्य
२२. अस्नान स्नान नहीं करना
२३. अदंतधावन दातौन नहीं करना
२४. भूशयन चटाई, जमीन पर विश्राम करना
२५. एकभुक्ति दिन में एक बार भोजन
२६. स्थितिभोजन खड़े रहकर दोनो हाथो से आहार लेना
२७. केश लोंच सिर और दाड़ी के बाल हाथों से उखाड़ना
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प्रत्येक जैन संत और श्रावक को पांच व्रतों का पालन करना अनिवार्य हैं [2]

प्रत्येक जैन मुनि को केश-लोंच करना अनिवार्य हैं। वे नियमित अंतराल पर अपने बालों को अपने हाथों से उखाड़ लेते हैं। जिसकी समयसीमा उत्कृष्ट से 2 माह, मध्यम 3 माह और जघन्य 4 माह होती है।

बाईस परिषह

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जैन ग्रंथों के अनुसार मुनियों के लिए बाईस परिषह सहने होते हैं

१-भूख,२-प्यास,३-सर्दी,४-गर्मीं,५-दशंमशक,६-किसी अनिष्ट वस्तु से अरुचि,७-नग्नता,८-भोगों का आभाव,९-स्त्री — स्त्री की मीठी आवाज़, सौंदर्य, धीमी चाल आदि का मुनि पर कोई असर नहीं पड़ता, यह एक परिषह हैं। जैसे कछुआ कवछ से अपनी रक्षा करता हैं, उसी प्रकार मुनि भी अपने धर्म की रक्षा, मन और इन्द्रियों को वश में करके करता हैं। १०-चर्या,११-अलाभ,१२-रोग,१३-याचना,१४-आक्रोश,१५-वध,१६-मल,१७-सत्कार-पुरस्कार,१८-जमीन पर सोना१९-प्रज्ञा,२०-अज्ञान,२१-अदर्शन,२२-बैठने की स्थिति,

  • आचार्य: मुनि संघ के नेता एवं 36 मूलगुणों के धारी, शिक्षा एवं दीक्षा देने में कुशल।
  • उपाध्याय: संघ के नए मुनियों को ज्ञान-अर्जन में सहयोग करते हैं। 25 मूलगुणों के धारी।
  • मुनि या साधु: 27 मूल गुण धारी। संसार, भोग एवं शरीर से विरक्त।
  • साध्वी : साधु परमेष्ठि समान 27 मूलगुण धारी

चातुर्मास

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बारिश (मानसून) के ४ महीनों में (आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक कृष्ण अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन तक) धर्म की रक्षा के लिए जैन साधु विहार आदि  नहीं करते। क्योंकि बरसात के समय ब्रह्मांड जीवो की उत्पत्ति बढ़ जाती है प्रत्यक्ष में हमे बिजली के कीड़े ,झिंगर🐜, पंखी🐝 आदि रात के अंधेरे में तथा बरसात होते ही केंचुए🐛, मेंढक🐸, टिड्डे,बिच्छू🦂, चींटे🐜 अनेक प्रकार की वनस्पतियां🌱 जमीन पर प्रत्यक्ष में दिखाई पड़ती और इनमें भी जान पाई जाती है इसलिए उनके निमित्त से चींटी से लेकर बड़े से बड़े प्राणी के हिंसा के पात्र न बने क्योंकि अहिंसा जैनधर्म का और विश्व के लिए सर्वोत्कृष्ट गहना है।

इन्हें भी देखें

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संदर्भग्रंथ सूची

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  1. प्रमाणसागर २००८, पृ॰ १८९.
  2. Pravin Shah, Five Great Vows (Maha-vratas) of Jainism Archived 2014-12-31 at the वेबैक मशीन Jainism Literature Center, Harvard University Archives (2009)