टाकरी लिपि
टाकरी लिपि गुरमुखी से मिलती-जुलती एक लिपि जो अटक के उस पार से लेकर सतलज और यमुना नदी के किनारे तक प्रचलित थी। इसके अक्षरों को "लुंडे" , "मुँडे" और "टांकरी" भी कहते हैं।
टाकरी अक्षर नागरी लिपि के समान नहीं, बल्कि नागरी का रूपभेद हो सकता है। सिन्धु नदी के पश्चिम तरफ और शतद्रु नदी के पूर्व भाग में तथा काश्मीर और काङ्गडा के ब्राह्मणों में इस लिपि का प्रचलन है। काश्मीर और काङ्गडा के शिलालेखों और सिक्कों में यही अक्षर देखने में आते हैं।
युसुफजाह और शिमला के बीच २६ स्थानों में यह लिपि दीख पड़ती है। इसमें कोई कोई स्थान ताकरो 'मुंडे' और 'लुंडे' नाम से परिचित है। इस लिपि में विशेषता इतनी है कि स्वरवर्ण व्यञ्जनवर्ण के साथ कभी भी संयुक्त नहीं होता, पृथक लिखना पड़ता है। इस लिपि के संख्याबोधक अक्षर हाल के प्रचलित अक्षरों के समान हैं। यह सहज में लिखी जा सकती है। इसमें केवल 'अ' व्यञ्जनवर्ण के साथ संयुक्त किया जाता है।
टांकरी लिपि, ब्राह्मी परिवार की लिपि है जो कश्मीर में प्रयोग होने वाली शारदा लिपि से निकली है। टाकरी लिपि, पहाड़ी भाषा समेत उत्तर भारत की कई अन्य भाषाओं को लिखने के लिए प्रयोग की जाने वाली लिपि है। पुराने समय में कुल्लू से लेकर रावलपिंडी तक पढ़ने-लिखने का हर तरह का काम टाकरी लिपि में ही किया जाता था। आज भी पुराने राजस्व रिकॉर्ड, पुराने मंदिरों की घंटियों या किसी पुराने बर्तन में टांकरी में लिखे शब्द देखे जा सकते हैं। जम्मू कश्मीर की डोगरी, हिमाचल प्रदेश की चम्बियाली, कुल्लुवी और उत्तराखण्ड की गढ़वाली समेत कई भाषाएं टाकरी में लिखी जातीं थीं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा, ऊना, मंडी, बिलासपुर, हमीरपुर में व्यापारिक व राजस्व रिकॉर्ड और संचार इत्यादि के लिए भी टाकरी का ही प्रयोग होता था।