ठाकुर विल्वमंगल (८वीं शताब्दी), "लीलाशुक" नामांतर से प्रसिद्ध दाक्षिणात्य ब्राह्मण तथा कृष्णभक्त कवि थे। ये मूलतः केरल निवासी थे।

परिचय संपादित करें

प्रवाद है कि बाल्यावस्था में धनी पिता की मृत्यु के बाद ये युवाकाल में विपुल संपत्ति के उत्तराधिकारी होने के कारण उच्छृंखल तथा अनुशासनहीन हो गए और चिंतामणि नामक वेश्या से प्रेम करने लगे। ये उसमें इतने आसक्त थे कि वर्षाकाल में घनी वृष्टि और भयंकर बाढ़ की परवाह न कर लकड़ी के भ्रम में अधजले मुर्दे के सहारे, इन्होंने कृष्णवेण्वा नदी को पार किया और द्वार बंद पाकर भवन के पीछे लटकते साँप की पूँछ को रस्सी समझ और उसके सहारे चढ़कर वेश्या का साक्षात्कार किया। सब कुछ जानने के बाद उसने इन्हें बहुत धिक्कारा जिससे इनके मन में कृष्ण के प्रति सख्य भाव के साथ विवेकपूर्ण वैराग्य उत्पन्न हुआ। यहाँ से लौटकर इन्होंने सोमगिरि से कृष्णमंत्र की दीक्षा ली और कृष्णप्रेम में उन्मत्त रहते हुए भगवद्दर्शन की इच्छा से वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में एक वणिक् सुंदरी को देख कामासक्त हुए और द्वार पर पहुँच इन्होंने उसके पति से उस स्त्री को आँख भर देखने की इच्छा प्रकट की। वणिक ने साधु की इच्छा पूरी की। तत्पश्चात् ग्लानिवश उस स्त्री से सुई लेकर इन्होंने अपनी आँखें फोड़ लीं और कृष्णप्रेम के गीत गाते हुए वृंदावन की राह ली। ये दोनों कथाएँ गोस्वामी तुलसीदास तथा सूरदास के संबंध में प्रचलित किंवदंतियों से मिलती-जुलती हैं। भक्तमाल के अनुसार कृष्ण ने इन्हें नेत्रदान देकर युगलरूप में दर्शन दिया था। कहते हैं वे इन्हें गोपवेश में भोजन कराते थे।

कृतियाँ संपादित करें

वे कृष्णकर्णामृत, कृष्णबालचरित, कृष्णाह्रिक कौमुदी, गोविंदस्तोत्र, बालकृष्ण क्रीड़ा काव्य, बिल्वमंगल स्तोत्र, गोविंद दामोदरस्तव आदि संस्कृत स्तोत्र एवं काव्यग्रंथों के प्रणेता हैं।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें