पहला जौहर करने वाली रानी बाई

रानी बाई सिंध के राजा दाहिर की पत्नी थी। वीराङ्गना रानीबाई महाराज दाहिर की राजरानी थी । कुछ इतिहासकारों का कहना है कि दाहिर की राजपत्नी का नाम लाड़ी था , लेकिन 'चचनामा' का लेखक उसे रानीबाई लिखता है और दाहिर की राजमहिषी को इतिहास की दृष्टि से रानीबाई कहना अघिक युक्तिसङ्गत दीखता है ।[1] इस्लामिक खलीफाओं ने सिन्ध फतह के लिए कई अभियान चलाए। 712 ई० में इराकी अरब शासक अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिन्ध और बलूचिस्तान पर हमला किया । 10 हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिंध पर ब्राह्मण वंश के राजा चच के पुत्र राजा दाहिर का शासन था। मुहम्मद बिन कासिम से पूर्व खलीफा उमर के समय से ही अरबों के हमले होते रहे थे। मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने अब तक का सबसे भीषण हमला किया था। इस युद्ध में दाहिर के वीरगति प्राप्त करने का समाचार जब रानी बाई को मिला तो उसने दासियों के साथ किले के भीतर ही चिता में कुदकर प्राण दे दिये। यह भारतवर्ष के इतिहास में किसी हिन्दू रानी द्वारा किया गया पहला जौहर था।

युद्ध में रानीबाई संपादित करें

इतिहासकार लेनपूल लिखता है कि हिन्दुस्तान के इतिहास में अरबों को क्षणिक आधिपत्य एक कहानी और इस्लाम के इतिहास में एक असफल विजय थी , जिसका परिणाम स्थायी न रह सका । सन् ७१२ ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने बगदाद के खलीफा का आदेश पाकर हिन्दुस्तान पर हमला किया । देवल को उजाड़ कर उसने वीरान कर दिया , मन्दिर की पवित्रता नष्ट कर दी । उसके बाद नैरन पहुॅचा , एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार करवा कर उसने सिंध नदी पार करने की योजना बनायी ।

राजा दाहिर ने उसका सामना करने के लिये सेना तैयार की । उसकी राजधानी आलोर नगर में थी , लेकिन वह रावार के दुर्ग से हमला करना उचित समझता था । वह अपने पुत्र जयसिंह और पत्नी रानीबाई को लेकर रावार के किले में चला गया । राजपूत वड़ी वीरता से लड़े । जब रानी को पति की मृत्यु का समाचार मिला , तो उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया । उसने यवनों का अन्त कर देने के लिये म्यान से तलवार खींच ली । चाचनामा में लिखा है कि पंद्रह हजार सैनिकों को लेकर रानी ने यवनों को रौंदना आरम्भ कर दिया ।

भयङ्कर मार - काट होने लगी , लेकिन वह बहुत देर तक अरबों के सामने न ठहर सकी । रानी लड़ती जाती थी और वीर सैनिकों के हृदय में उत्साह भी भरती जाती थी कि ' वीरो ! आगे बढ़ते चलो। पहले तो ऐसा लगता था कि राजपूत मैदान मार ले गये , लेकिन अन्त में किले पर अरबों का आधिपत्य स्थापित हो गया । राजमहिषी वीरांगना रानीबाई ने देखा कि किला दुश्मनों के हाथ में पड़ चुका है , उसे अन्तिम कर्तव्य स्थिर करने में कुछ भी देर न लगी ।[1]

जौहर संपादित करें

रानीबाई किले की तमाम नारियों को सामने बुलाकर कहा कि गो-हत्यारों के हाथ में हमारी स्वाधीनता चली गयी है , हमें किसी भी हालत में उनकी दासता में नहीं रहना है । अपना सतीत्व भङ्ग करा कर पराधीन जीवन बिताना हमारे लिये कभी भी शोभन नहीं है । हम लोगों के पति स्वर्ग में राह देखते होंगे और प्रतीक्षा करते होंगे । हमें वीर - नारियों की तरह अपना धर्ममूलक कर्तव्य पालन कर वहाँ शीघ्र ही चलना चाहिये । यह विवरण कपोलकल्पित नहीं है , चाचनामा के लेखक ने इसे बड़े लंबे - चौड़े रूप में दिया है । हिन्दू रमणियों ने रानी को विश्वास दिलाया कि हम सब अग्निदेवता के हाथों में अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिये तैयार हैं ।

एक बहुत विशाल अग्निकुण्ड तैयार कराया गया । रक्त वस्त्र पहन कर राजपत्नी जलती चिता में ईश्वर और धर्म को साक्षी दे कर कूद पड़ी । आग दहक रही थी । उसकी शिखाएँ आकाश से बातें कर रही थीं । ज्वालामयी आर्यविजय की प्रतिनिधि की तरह रानीबाई पति से मिलने स्वर्ग चली गयी । सैकड़ों स्त्रियों ने उसी तरह अपने आपको होम कर रानी के सहगमन का आनन्द अनुभव किया ।आलोर और रावार दोनों नगर तेजस्विनी सती रानीबाई के स्वर्गगमन से श्मशान बन गये । वह मध्यकालीन भारतीय सतियों की पथ-प्रदर्शिका थी । वह आदर्श सती , वीर नारी , कुशल सेनासंचालिका और राजोचित गुणों से सम्पन्न राजरानी थी ।[1]

विमर्श संपादित करें

विराङ्गना रानीबाई का जौहर अनुकरणीय बन गया। इसी जौहर को कालांतर में अन्य हिंदू वीरांगनाओं ने भी अपनाया । विदेशियों को यह बता दिया कि वेदों के आदर्श केवल कोरी कल्पना ही नहीं हैं और ना ही ये इतने पुराने पड़ गये हैं कि अब इन्हें कोई अपनाने या मानने वाला ही नहीं रहा है । रानी की विवेकशीलता और बौद्धिक चातुर्य को देखकर शत्रु भी दांतों तले जीभ दबाकर रह गया । शत्रु ने भारतीय नारी से कभी ये अपेक्षा ही नहीं की होगी कि वह इतनी साहसी भी हो सकती है ।[2] रानीबाई के अद्भुत शौर्य , अप्रतिम साहस तथा युद्ध - कौशल की चचनामा तथा अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने प्रशंसा की है। [3]

संदर्भ संपादित करें

  1. Vayed, Mahalchand. Bharatiya Virangana Pratham Bhag. 1. पपृ॰ 8–10. अभिगमन तिथि 2017-01-15.
  2. Arya, Rakesh Kumar (2016-06-27). Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2: भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास - वह रुके नहीं हम झुके नहीं : भाग - 2. 2. Diamond Pocket Books Pvt Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5261-102-7.
  3. Chaturvedi, Dr A. K. (2021-12-06). भारत का इतिहास [650- 1550 ई.] Bharat Ka Itihaas (History of India) - SBPD Publications (ebook). SBPD Publications. पृ॰ 87. रानीबाई के अद्भुत शौर्य , अप्रतिम साहस तथा युद्ध - कौशल की चचनामा तथा अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने प्रशंसा की है।