पिठौरा पर्व भील,भिलाला तथा राठवा जनजाति में मनाया जाता हैं। यह समाज का सबसे बड़ा त्यौहार होता हैं जो लगभग 15-20 वर्षो में एक बार मनाया जाता हैं। पिठौरा पर्व पर एक परिवार मेले का आयोजन करता हैं जिसमे उसके नाती-रिश्तेदार अपने गाँव के लोगों के साथ बकरा तथा ढोल लेकर आते हैं और पिठौरा मेले में बलि देते हैं । चूंकि सभी नाती-रिश्तेदार के गाँव के लोग(लगभग 70-80 गाँव) भी इस उत्सव में शामिल होते है तो यह पर्व एक मेले का ही रूप ले लेता हैं। पिठौरा घर की सुख,शांति और समृद्धि के लिए आयोजित किया जाता हैं। पिठौरा पर्व पर ही पिथोरा चित्रकला भी दिवार पर बनायी जाती है जिसमे आदिवासी देवी देवताओं के चित्र अकिंत किये जाते हैं जिसमे राणी काजल,इंदि राजा, पीठी राजा आदि प्रमुख हैं।

पिथौरा भील चित्र परम्परा का सबसे सुंदर उदाहरण है। यह देवी-देवताओं के आह्वान और पूजा का सबसे पवित्र और प्रमुख अवसर होता है। वस्तुतः यह भील जनजाति का अनुष्ठानिक चित्रण है जो एक भित्ति चित्र के रूप में होता है। इसके आलेखन की परम्परा विशेषकर मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ और निमाड़ अंचल में है। गुजरात और राजस्थान के भीलों में भी यह प्रथा देखने को मिलती है।[1]