प्रतिनिधिक लोकतंत्र
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के लिए उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (जनवरी 2021) स्रोत खोजें: "प्रतिनिधिक लोकतंत्र" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
प्रतिनिधिक लोकतंत्र वह लोकतन्त्र है जिसके पदाधिकारी जनता के किसी समूह द्वारा चुने जाते हैं। यह प्रणाली, प्रत्यक्ष लोकतंत्र के विपरीत है और इसी लिए इसे अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र और प्रतिनिधिक सरकार भी कहते हैं। वर्तमान समय के लगभग सभी लोकतन्त्र प्रतिनिधिक लोकतंत्र ही हैं।
प्राचीन भारत में प्रतिनिधिक शासन
संपादित करेंयद्यपि 26 जनवरी 1950 के दिन भारत के नए गणराज्य के संविधान का शुभारम्भ किया गया और भारत अपने लंबे इतिहास में पहली बार एक आधुनिक संस्थागत ढाँचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना, किन्तु लोकतंत्र एवं प्रतिनिधिक प्रणाली भारत के लिए पूर्णतया नयी नहीं हैं।
कुछ प्रतिनिधि निकाय तथा लोकतंत्रात्मक स्वशासी संस्थाएँ वैदिक काल में भी विद्यमान थीं (3000-1000 ईसा पूर्व)। ऋग्वेद में 'सभा' तथा 'समिति' नामक दो संस्थाओं का उल्लेख है। वहीं से आधुनिक संसद की शुरुआत मानी जा सकती है। समिति एक आम सभा या लोकसभा हुआ करती थी और सभा अपेक्षतया छोटा और चयनित वरिष्ठ लोगों का निकाय, जो मोटे तौर पर आधुनिक विधानमंडलों में उपरि सदन के समान है।
वैदिक ग्रंथों में ऐसे अनेक संकेत मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ये दो निकाय राज्य के कार्यों से निकट का संबंध रखते थे और इन्हें पर्याप्त प्राधिकार, प्रभुत्व एवं सम्मान प्राप्त था। ऐसा ज्ञात होता है कि आधुनिक संसदीय लोकमत के कुछ महत्वपूर्ण तत्व जैसे निर्बाध चर्चा और बहुमत द्वारा निर्णय, तब भी विद्यमान थे। बहुमत से हुआ निर्णय अलंघनीय माना जाता था जिसकी अवहेलना नहीं हो सकती थी क्योंकि जब एक सभा में अनेक लोग मिलते हैं और वहाँ एक आवाज़ से बोलते हैं, तो उस आवाज़ या बहुमत की अन्य लोगों द्वारा उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
वास्तव में प्राचीन भारतीय समाज का मूल सिद्धान्त यह ही था कि शासन का कार्य किसी एक व्यक्ति की इच्छानुसार नहीं बल्कि पार्षदों की सहायता से संयुक्त रूप से होना चाहिए। पार्षदों का परामर्श आदर से माना जाता था। वैदिक काल के राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार धर्म को वास्तव में प्रभुत्व दिया जाता था और धर्म अथवा विधि द्वारा शासन के सिद्धांत को राजा द्वारा माना जाता था और लागू किया जाता था।
आदर्श यह था कि राजा की शक्तियाँ जनेच्छा और रीति-रिवाजों, प्रथाओं और धर्मशास्त्रों के आदेशों द्वारा सीमित होती थीं। राजा को विधि तथा अपने क्षेत्र के विधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और अपनी जनता के भौतिक तथा नैतिक कल्याण के लिए राज्य को न्यास अथवा ट्रस्ट के रूप में रखना होता था।
यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्राचीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था मुख्यतया राजतंत्रवादी हुआ करती थीं, फिर भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ राजा का चुनाव हुआ करता था। जो भी हो, कुछ लोकतंत्रात्मक संस्थाएँ तथा प्रथाएँ प्रायः हमारी राजतंत्रीय प्रणाली का सदा अभिन्न अंग रहीं।
ऐतरेय ब्राह्मण, पाणिनि की अष्टाध्यायी, कौटिल्य की अर्थशास्त्र, महाभारत, अशोक स्तंभों के शिलालेखों, समकालीन यूनानी इतिहासकारों तथा बौद्ध एवं जैन विद्वानों द्वारा लिखित ग्रंथों तथा मनुस्मृति में इस तथ्य के पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि वैदिकोत्तर काल में अनेक गणराज्य भी थे। उन गणराज्यों में जो 'समधा' अथवा 'गणराज्य' के नाम से जाने जाते थे, प्रभुसत्ता एक बहुत बड़ी सभा में निहित रहती थी और उसी सभा के सदस्य न केवल कार्यपालिका के सदस्यों को, बल्कि सैनिक प्रमुखों को भी चुना करते थे।