अशोक के अभिलेख
मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक द्वारा प्रवर्तित कुल ३३ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें अशोक ने स्तंभों, शिलाओं (चट्टानों) और गुफाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बांग्लादेश, भारत, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं।[1]
अशोक के अभिलेख | |
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सामग्री | चट्टानें, खंभे, पत्थर की पटिया |
कृति | दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व |
अवस्थिति | नेपाल, भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश |
इन शिलालेखों के अनुसार अशोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इनमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर ज़ोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मागधी में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अपने आप को "प्रियदर्शी" (प्राकृत में "पियदस्सी") और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में "देवानम्पिय") की उपाधि से बुलाते हैं।
शाहनाज गढ़ी एवं मानसेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं। तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं। इसके अतिरिक्त अशोक के समस्त शिलालेख, लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं। अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है।
अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। सर्वप्रथम १८३७ ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी।
अभिलेखों में वर्णित विषय संपादित करें
बौद्ध धर्म को अपनाने का वर्णन संपादित करें
सम्राट बताते हैं कि कलिंग को 261 ईसापूर्व में पराजित करने के बाद उन्होंने पछतावे में बौद्ध धर्म अपनाया:
- देवों के प्रिय सम्राट प्रियदर्शी ने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद कलिंगों को पराजित किया। डेढ़ लाख लोगों को बंदी बनाया, एक लाख लोग मारे गए और अन्य कारणों से और बहुत से मारे गए। कलिंगों को अधीन करके देवों-के-प्रिय को धर्म की ओर खिचाव हुआ, धर्म और धर्म-शिक्षा से प्रेम हुआ। अब देवों-के-प्रिय को कलिंगों को परास्त करने का गहरा पछतावा है। (शिलालेख संख्या १३)
बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अशोक ने भारत-भर में बौद्ध धार्मिक स्थलों की यात्रा की और उन स्थानों पर अक्सर शिलालेख वाले स्तम्भ लगवाए:
- अपने राज्याभिषेक के बीस वर्ष बाद, देवों के प्रिय सम्राट प्रियदर्शी इस स्थान पर आए और पूजा की क्योंकि यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध पैदा हुए थे। उन्होने एक पत्थर की मूर्ति और एक स्तम्भ स्थापित करवाया और, क्योंकि यह भगवन का जन्मस्थान है, लुम्बिनी के गाँव को लगान से छूट दी गई और फसल का केवल आठवाँ हिस्सा देना पड़ा। (छोटा स्तम्भ, शिलालेख संख्या १)
प्रसिद्ध भारतविद ए एल बाशम का मत है कि अशोक ने स्वयं बौद्ध धर्म अपना लिया और बौद्घ धर्म का उन्होने प्रचार-प्रसार किया। [3] उनके संरक्षण के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का उनके साम्राज्य में तथा अन्य राज्यों में खूब प्रसार हुआ।
धम्म विजय संपादित करें
एषे च मुखमुते विजये देवन प्रियस यो ध्रमविजयों [।] सो चन पुन लधो देवनं प्रियस इह च अंतेषु अषपु पि योजन शतेषु यत्र अंतियोको नम योरज परं च तेन अंतियोकेत चतुरे रजनि तुरमये नम अंतिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निज चोड पण्ड अब तम्बपंनिय [।]
- अनुवाद : अब धम्म विजय को ही देवों-के-प्रिय सबसे उत्तम जीत मानते हैं और इसी के द्वारा देवताओं के प्रिय ने यहाँ सीमाओं पर जीता है 600 योजन दूर तक, जहाँ यूनानी नरेश अम्तियोको (अन्तियोकस) का राज है और उस से आगे जहाँ चार तुरामाये (टॉलमी), अम्तिकिनी (अन्तिगोनस), माका (मागस) और अलिकसुदारो (ऐलॅक्सैन्डर) नामक राजा शासन करते हैं और उसी तरह दक्षिण में चोल, पांड्य और ताम्रपर्णी (श्रीलंका) तक।
हर योजन लगभग सात मील होता है, इसलिए 600 योजन का अर्थ लगभग 4200 मील है जो इस समय के लगभग समान है , जो भारत के केंद्र से लगभग यूनान के केंद्र की दूरी है। जिन शासकों का यहाँ वर्णन हैं, वह इस प्रकार हैं:
- अम्तियोको सीरिया के अन्तियोकस द्वितीय थेओस (Antiochus II Theos, Αντίοχος Β' Θεός, शासनकाल: २६१-२४६ ईसापूर्व)
- तुरामाये मिस्र के टॉलमी द्वितीय फ़िलादॅल्फ़ोस (Ptolemy II Philadelphos, Πτολεμαῖος Φιλάδελφος, शासनकाल: २८५-२४७ ईसापूर्व)
- अम्तिकिनी मासेदोन (यूनान) के अन्तिगोनस द्वितीय गोनातस (Antigonus II Gonatas, Αντίγονος B΄ Γονατᾶς, शासनकाल: २७८-२३९ ईसापूर्व)
- माका सएरीन (लीबिया) के मागस (Magas of Cyrene, शासनकाल: २७६-२५० ईसापूर्व)
- अलिकसुदारो इपायरस (यूनान और अल्बानिया के बीच का एक क्षेत्र) के ऐलॅक्सैन्डर द्वितीय (Alexander II of Epirus, शासनकाल: २७२-२५८ ईसापूर्व)
यूनानी स्रोतों से साफ़ ज्ञात नहीं होता की यह दूत इन राजाओं से वास्तव में मिले भी की नहीं और यूनानी क्षेत्र में इनका क्या प्रभाव हुआ। फिर भी, कुछ विद्वानों ने यूनानी क्षेत्रों में बौद्ध समुदाय की मौजूदगी (विशेषकर आधुनिक मिस्र में स्थित अल-इस्कंदरिया में) को अशोक के धर्म-दूतों की कुछ मात्रा में सफलता का संकेत माना है। सिकंदरिया के क्लॅमॅन्त (Clement of Alexandria, अनुमानित १५० ई॰ - २१५ ई॰) ने अपनी लेखनी में इनका ज़िक्र किया।[8] अल-इस्कंदरिया में टॉलमी काल की बौद्ध समाधियों पर धर्मचक्र-धारी शिलाएँ मिली हैं।[9]
बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अशोक ने भारत के सभी लोगों में और यूनानी राजाओं को भूमध्य सागर तक दूत भेजे। उनके स्तम्भों पर यूनान से उत्तर अफ़्रीका तक के बहुत से समकालीन यूनानी शासकों के सही नाम लिखें हैं, जिससे ज्ञात होता है कि वे भारत से हज़ारों मील दूर की राजनैतिक परिस्थितियों पर नज़र रखे हुए थे:
स्वदेश में धर्मप्रचार का वर्णन संपादित करें
अपनी शिलालेखों में सम्राट ने कई समुदायों का ज़िक्र भी किया जो उनके राज्य की सीमाओं के अन्दर रहते थे:
9. हिदा लाजविशवषि योनकंबोजेषु नाभकनाभपंतिषु भोजपितिनिक्येषु
10. अधपालदेषु षवता देवानंपियषा धंमानुषथि अनुवतंति यत पि दुता
— सम्राट अशोक का प्रमुख शिलालेख 13, कालसी चट्टान, दक्षिणी भाग[1]
अनुवाद : यहाँ राजा (अशोक) के क्षेत्र में, यवन और कम्बोज में, नभक और नभपांकित में, भोज और पितिनिक में, आंध्र और पुलिंद में, (साम्राज्य में) हर जगह (लोग) देवताओं-के-प्रिय (अशोक) के बताएं नैतिकता में निर्देशों का पालन कर रहे हैं।यूनानी समुदाय संपादित करें
बहुत से यूनानी मूल के और यूनानी संस्कृति से प्रभावित लोग मौर्य राज्य के उत्तरपश्चिमी इलाक़े में बसे हुए थे, जिसमें आधुनिक पाकिस्तान का ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत और दक्षिणी अफ़्ग़ानिस्तान आते हैं। इनकी कुछ रीति-रिवाजों पर भी शिलालेख में टिप्पणी मिलती है:
- कोई देश ऐसा नहीं है, यूनानी को छोड़कर, जिनमें श्रमण (सन्यासी,जैन,बौद्ध भिक्षु) दोनों ही न मिलते हों, न ही ऐसा कोई देश है जहाँ लोग एक या दूसरे धर्म के अनुयायी न हों। (शिलालेख संख्या १३)
अशोक के दो आदेश अफ़्ग़ानिस्तान में मिले हैं, जिनमें यूनानी भाषा में लिखा हुआ है और जिनमें से एक यूनानी और अरामाई में द्विभाषीय है। कंदहार में मिला यह द्विभाषीय शिलालेख "धर्म" शब्द का अनुवाद यूनानी के "युसेबेइया" (εὐσέβεια, Eusebeia) शब्द में करता है, जिसका अर्थ "निष्ठा" भी निकलता है:
- दस साल का राज पूर्ण होने पर, सम्राट पियोदासॅस (Πιοδάσσης, Piodasses, प्रियदर्शी का यूनानी रूपांतरण) ने पुरुषों को युसेबेइया (εὐσέβεια, धर्म/निष्ठा) का ज्ञान दिया और इस क्षण से पुरुषों को अधिक धार्मिक बनाया और पूरे संसार में समृद्धि है। सम्राट जीवित प्राणियों को मारने से स्वयं को रोकता है और अन्य पुरुष को सम्राट के शिकारी और मछुआरे हैं वह भी शिकार नहीं करते। अगर कुछ पुरुष असंयम हैं तो वह यथाशक्ति अपने असंयम को रोकते हैं और अपने माता-पिता और बड़ों की प्रति आज्ञाकारी हैं, जो भविष्य में भी होगा और जो भूतकाल से विपरीत है और जैसा हर समय करने से वे बेहतर और अधिक सुखी जीवन जियेंगे।[10]
अन्य समुदाय संपादित करें
- कम्बोज या कम्बोह एक मध्य एशिया से आया समुदाय था जो पहले तो दक्षिणी अफ़्ग़ानिस्तान और फिर सिंध, पंजाब और गुजरात के क्षेत्रों में आ बसे। आधुनिक युग में इस समुदाय के लोग पंजाबियों में मिला करते हैं और इस्लाम, हिन्दू धर्म और सिख धर्म के अनुयायियों में बंटे हुए हैं।
- नाभक, नाभ्पंकित, भोज, पितिनिक, आंध्र और पुलिंद अशोक के राज्य में बसी हुई अन्य जातियाँ थीं।
साम्राज्य की सीमा संपादित करें
सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य की सीमाओं को चार बार विभिन्न शिलालेखों में परिभाषित किया एक जैसी पंक्ति के साथ , लेकिन उन्होंने कभी भी अपने साम्राज्य के अंदर किसी अविजित क्षेत्र का उल्लेख नहीं किया। इससे यह साफ है कि अशोक का साम्राज्य संभागीय था, जिसमें उसकी सीमाओं के अंदर कोई भी अजीत अविजित क्षेत्र नहीं था ।
3. सवरत्र विजिते देवनंप्रियस प्रियदर्शिस ये च अंत यथा चोड पंडिय सतियपुत्र केरडपुत्र तंबपंणी आंतियोको नाम योनराज ये च अंये तस आंतियोकस समंत राजनो
4. सवरत्र देवनंप्रियस प्रियदर्शिस राणो दुवि चिकिसा कृत मानुष-चिकिसा पशु-चिकिसा च
— शाहबाजगढ़ी: द्वितीय शिलालेख [2]
4. सवता विजितसि देवनम्पियस पियदसि लजिने ये च अम्त [अ]थ चोड पम्डिय सतियपुतो केललपुतो तम्बपनि
5. आंतियोगे नाम योन-लाजा ये च आंने तसां आंतियोगसा सामंत लाजनो सवता देवानंपियसा पियदसिसा लाजिने दुवे चिकिसका कटा मानुस-चिकिसा च पशु-चिकिसा च
6. सवत्र विजितसि देवनप्रियस प्रियद्रसिस राजिने ये च अत अथ चोड पंडिय सतियपुत्र केरलपुत्र तंबपणि आंतियोगे नाम योनराज ये च [अ] स ..... स गस समत रजने सवत्र ...... प्रियस प्रियद्रसिस राजने
7. दुवे चिकिस कट मानुस-चिकिस च पशु चिकिस च
1. सर्वत विजितम्हि देवानंप्रियस पियदसिनो राणो
2. एवमपि प्रचंतेषुयथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब-
3. पंणी अंतियको योनराजा ये वा पि तस अंतियकस सामीपं
4.राजानो सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता
5. मानुस-चीकिचा च पशु चिकिचा च
— जेम्स प्रिंसेप अनुवाद : राजा पियादसी (अशोक) के विजित प्रांत के भीतर हर जगह, जैसे कि चोल, पांड्या, सतियपुत्र, और केरलपुत्र, तंबपंणी (श्रीलंका) और, इसके अतिरिक्त, यूनानी राजा नामक आंतियोकस और उनके पड़ोसी प्रान्तों मे वहां देवप्रिय राजा पियदसि का द्विगुणा चिकित्सा प्रणाली (चिकित्सालय) स्थापित की है— मनुष्यों के लिए चिकित्सा, और पशुओं के लिए चिकित्सा के लिए ।[11]
— ई. हल्ट्स्च अनुवाद: देवानम्प्रिय प्रियदर्शन के साम्राज्य और उनके सीमाकारों में, जैसे कि चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र, तम्रपर्णी, ग्रीक राजा नामक आंतियोक, और इस आंतियोक के पड़ोसी अन्य राजाओं में, राजा देवानम्प्रिय प्रियदर्शन द्वारा दो प्रकार के चिकित्सा का स्थापन किया गया है , मनुष्यों के लिए चिकित्सा और पशुओं के लिए चिकित्सा।[12]
धम्म नीतियों को लागू करना संपादित करें
अभिलेख सुझाव देते हैं कि अशोक के लिए, धर्म का अर्थ "सक्रिय सामाजिक चिंतन की नैतिक शासन पद्धति, धार्मिक सहिष्णुता, पारिस्थितिक जागरूकता, सामान्य नैतिक सिद्धांतों का पालन, और युद्ध का त्याग" था।[13] उदाहरण के लिए:
अशोक के कार्य | अधिसूचना संदर्भ |
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मौत की सजा को समाप्त करना। | स्तंभ अभिलेख 4[14] |
बरगद और आम के बगीचे लगाना, और प्रत्येक 800 मीटर (1⁄2 मील) के रास्ते पर बारामदों और कुएं का निर्माण। | स्तंभ अभिलेख 7[15] |
राजशाही रसोई में पशुओं की हत्या पर प्रतिबंध लगाना; खुद शाकाहारी बनना और प्रजा से शाकाहार अपनाने की विनती करना। | प्रमुख शिलालेख 1[15], [14] |
मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सा सुविधाओं का प्रावधान तथा औषधीय पौधों को हर जगह प्रांतों में लगवाना , जो पौधे मौजूद नहीं उन्हे अन्य देशों से मंगवाना। | प्रमुख शिलालेख 2[15] |
माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होने, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति उदारता, और अनावश्यक खर्च न करने का प्रोत्साहन। | प्रमुख शिलालेख 3[15] |
गरीब और वृद्ध के कल्याण और खुशहाली के लिए अधिकारियों को काम करने का निर्देश देना। | प्रमुख शिलालेख 5[15] |
सभी प्राणियों के कल्याण को बढ़ावा देना ताकि उनके साथ उनका कर्ज चुका सकें और इस जीवन और अगले जीवन में उनकी खुशी के लिए काम कर सकें। | प्रमुख शिलालेख 6[15] |
अशोक के शिलालेख संपादित करें
अशोक के अभिलेखों में केवल तीन भाषाओं का उपयोग किया गया था – प्राकृत, अरामी और ग्रीक। अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं। उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम में अशोक के शिलालेख ग्रीक और अरामी में थे। अधिकांश प्राकृत शिलालेख ब्राह्मी लिपि में थे और कुछ उत्तर पश्चिम में खरोष्ठी लिपि में थे। अफगानिस्तान में शिलालेख ग्रीक और अरामी लिपि में लिखे गए थे। कंधार का शिलालेख द्विभाषी है, जो ग्रीक और अरामी दोनों भाषाओं में लिखा गया है।
१४ दीर्घ शिलालेख संपादित करें
अशोक के १४ दीर्घ शिलालेख (या बृहद शिलालेख) विभिन्न लेखों का समूह है जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-
(१) धौली- यह ओडिशा के [भुवनेश्वर]|खोरधा जिला]] में है।
(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है।
(३) मान सेहरा- यह पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित है।
(४) कालसी- यह वर्तमान उत्तराखण्ड (देहरादून) में है।
(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।
(६) सोपारा- यह महाराष्ट्र के पालघर जिले में है।
(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है।
(८) गिरनार- यह काठियावाड़ में जूनागढ़ के पास है। (१०) कंदहार-पाकिस्तान में है। (११) शिशुपालगर- ओडिशा में स्थित है।
- १४ दीर्घ शिलालेकों के वर्ण्य-विषय
- प्रथम शिलालेख : किसी भी पशु वध न किया जाए तथा राजकीय एवँ "मनोरंजन तथा उत्सव" न किये जाने का आदेश दिया गया है ।
- द्वितीय शिलालेख : मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाना और उनमें औषधि की व्यवस्था करना। मनुष्यों एवँ पशुओं के के कल्याण के लिए मार्गों पर छायादार वृक्ष लगवाने तथा पानी की व्यवस्था के लिए कुँए खुदवाए।
- तृतीय शिलालेख : राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिए गए हैं कि प्रति पाँच वर्षों के बाद धर्म प्रचार के लिए दौरे पर जायें।
- चतुर्थ शिलालेख : राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिए गए हैं कि व्यवहार के सनातन नियमों यथा - नैतिकता एवं दया - का सर्वत्र प्रचार प्रसार किया जाए ।
- पञ्चम शिलालेख : इसमें धर्ममहामात्रों की नियुक्ति तथा धर्म और नैतिकता के प्रचार प्रसार के आदेश का वर्णन है ।
- षष्ट शिलालेख : राजकीय पदाधिकारियों को स्पष्ट आदेश देता है कि सर्वलोकहित से सम्बंधित कुछ भी प्रशासनिक सुझाव मुझे किसी भी समय या स्थान पर दें ।
- सप्तम शिलालेख : सभी जाति, सम्प्रदाय के व्यक्ति सब स्थानों पर रह सकें क्योंकि वे सभी आत्म-संयम एवं हृदय की पवित्रता चाहते हैं ।
- अष्टम शिलालेख : राज्याभिषेक के दसवें वर्ष अशोक ने सम्बोधि (बोधगया) की यात्रा कर धर्म यात्राओं का प्रारम्भ किया। श्रमण के प्रति उचित वर्ताव करने का उपदेश दिया गया है ।
- नवम शिलालेख : दास तथा सेवकों के प्रति शिष्टाचार का अनुपालन करें, जानवरों के प्रति उदारता, बमण एवं श्रमण के प्रति उचित वर्ताव करने का आदेश दिया गया है ।
- दशम शिलालेख : घोषणा की जाए की यश और कीर्ति के लिए नैतिकता होनी चाहिए ।
- ग्यारहवां शिलालेख : घम्म निति की व्याख्या की गई है। विभिन्न अवसरों पर किए जानें वाले दान की चर्चा की गई हैं।
- बारहवां शिलालेख : किसी को भी अकारण अपने धम्म की बड़ाई,दूसरे की धम्म कि निंदा नहीं करनी चाहिए। एक–न–एक कारण से सभी धर्मों का आदर करना चाहिए। अर्थात् यह शिलालेख धार्मिक उदारता का परिचय भी देता है।
- तेरहवां शिलालेख : अशोक के राज्यविषेक के 8वें वर्ष कलिंग विजय का उल्लेख है, सीमावर्ती राज्यों और 5 यूनानी राजाओं का उल्लेख है, अशोक अपने उतराधिकारियों को धम्म विजय के लिए कहता है।
- चौदहवां शिलालेख : अशोक अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर शिलाओं के ऊपर धम्म लिपिबद्ध कराया,जिसमें धर्म प्रशासन संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाओं का विवरण है ।
लघु शिलालेख संपादित करें
अशोक के लघु शिलालेख, चौदह दीर्घ शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है। ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-
(१) रूपनाथ - ईसा पूर्व २३२ का यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है।
(२) गुजर्रा- यह मध्य प्रदेश के दतिया जिले में है। इसमें अशोक का नाम अशोक लिखा गया है
गुजर्रा लघुशिला लेख - यहाँ के स्थानीय निवासी डॉक्टर रामहेत गौतम, जो कि डॉक्टर हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर म.प्र. में यहाँ पर प्रयुक्त लिपि धंम लिपि के अध्यापक हैं, विस्तार से वताते हैं कि
अशोक एक ऐसा नाम जो आज भी कीर्ति आकाश में शीर्ष पर विद्यमान है। प्राचीन भारतीय इतिहास में एक असाधारण और महान् सम्राट के रूप में अगर कोई जाना जाता हैं तो वह है अशोक महान्। उसकी महानता का आदर्श उसकी नैतिकता, दयालुता, न्यायप्रियता, सहिष्णुता, प्रजावत्सलता, धर्म विजय के उच्च आदर्श और सिद्धान्तों से निर्मित हुआ था। चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र और बिन्दुसार का पुत्र अशोक के द्वारा लिखवाये गये इस बात के प्रमाण हैं कि अशोक ही ऐसा पहला शासक हुआ जिसने अपने अभिलेखों के माध्यम से जनता को सम्बोधित करने का प्रयास किया। ये सभी अभिलेख उसके राज्यादेष के रूप में रहे हैं। लगभग 45 स्थानों पर अशोक के अभिलेख पाये जाते हैं जिनकी भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी है। उ.पश्चिम के अभिलेख खरोष्ठी और अरामाईक भाषा में हैं। अफगानिस्तान में यूनानी और अरामाईक है। इस प्रकार लोगों की सरलता के लिए क्षेत्रीय भाषा तथा लिपियों का प्रयोग किया गया है।
गुजर्रा का अभिलेख भी इन्हीं में से एक है। कर्नाटका में स्थित मास्की लघुशिलालेख और मध्य प्रदेष में स्थित गुजर्रा का लघुशिला लेख अशोक के सभी लेखों को अशोक के अभिलेख होने प्रमाणों को प्रबल बनाते हैं यही दो ऐसे अभिलेख हैं जिनमें अशोक के नाम को उल्लेखित किया गया है। भौगोलिक स्थिति की दृष्टि से यह भारत के मध्य प्रदेष राज्य में दतिया जिले से 17 किलो मीटर पूर्व में गुजर्रा नामक ग्राम में है। यह गाँव के पश्चिम में है। झाँसी ग्वालियर हाईवे पर दतिया से लगभग 10 किलोमीटर दूरी पर से फलरा मोड़ से (हाईवे से पूर्व की ओर) फुलरा एवं तगा से होते हुए गुजर्रा गाँव से लगभग 800मीटर दूरी पर गाँव वायीं ओर पहाड़ियो ंके बीच है। वहुआ पत्थर की अण्डाकार शिला पर पाँच सीधी पंक्तियों में टंकित है। इसकी लिपि ब्राह्मी और भाषा प्राकृत है। इसके अक्षरों के आकार में एकरूपता नहीं है। इसके आसपास पक्के राजमार्ग के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। इसका पता बहादुर चंन्द्र छावड़ा ने लगाया था। वे भारतीय पुरातत्व विभाग के सहायक संचालक थे। यहाँ ईंट और वर्तन के टुकडे़ भी मिले थे। तथा 1954 में इण्डियन हिस्ट्री काँग्रेस के अधिवेषन की कार्यवाही विवरण में प्रकाषित भी कराया। प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह खण्ड-1 पृ.4,प्रकाषक-राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादिमी जयपुर राजस्थान जिसका देवनागरी रूप इस प्रकार है-
𑀤𑁂𑀯𑀸𑀦𑀁𑀧𑀺𑀬𑀲 𑀅𑀰𑁄𑀓 𑀭𑀸𑀚𑀲 𑀅 𑀢𑀺𑀬𑀸𑀦𑀺 𑀲𑀯𑀙𑀭𑀸𑀦𑀺 𑀳 𑀉𑀧𑀸𑀲𑀓 𑀲𑁆𑀫𑀺 𑀲𑀸𑀥𑀺𑀓𑁂 𑀲𑀁𑀯𑀙𑀭𑁂 𑀬 𑀘 𑀫𑁂 𑀲𑀁 𑀖𑁂 𑀬𑀸 𑀢𑁂 𑀢𑀻 𑀅𑀳𑀁 𑀯𑀸 𑀳𑀁 𑀘 𑀧𑀭𑀓𑀁 𑀢𑁂𑀢𑀻 𑀆 𑀳𑀸 𑀏𑀢𑁂𑀦𑀸 𑀅𑀁𑀢𑀭𑁂𑀦𑀸 𑀚𑀁𑀩𑀽𑀤𑀻𑀧𑀲𑀺 𑀤𑁂𑀯𑀸𑀦𑀁 𑀧𑀺𑀬 𑀲 𑀅𑀫𑀺𑀲𑀁 𑀤𑁂𑀯𑀸 𑀲𑀁 𑀢𑁄 𑀫𑀼𑀦𑀺𑀲 𑀫𑀺𑀲𑀁 𑀤𑁂𑀯𑀸 𑀓𑀝𑀸 𑀧𑀭𑀓𑀫𑀲 𑀇𑀬𑀁 𑀨𑀮𑁂 𑀦𑁂 𑀘 𑀇𑀬𑀁 𑀫𑀳𑀢𑁂𑀦𑀸𑀢𑀺𑀯 𑀘𑀓𑀺𑀬𑁂 𑀧𑀸𑀧𑁄𑀢𑀯𑁂 𑀔𑀼𑀤𑀸𑀓𑁂𑀡 𑀧𑀻 𑀧𑀭𑀓𑀫𑀫𑀻𑀦𑁂𑀦𑀸 𑀥𑀁𑀫𑀁 𑀘𑀭𑀫𑀻𑀦𑁂𑀦𑀸𑀁 𑀧𑀸𑀦𑁂𑀲𑀽 𑀲𑀁𑀬𑀢𑁂𑀦𑀸 𑀯𑀺𑀧𑀼𑀮𑁂 𑀧𑀻 𑀲𑁆𑀯𑀕𑁂 𑀘𑀓𑀺𑀬𑁂 𑀆𑀭𑀸𑀥𑀬𑀺𑀢𑀯𑁂 (𑀲𑁂) 𑀏𑀢𑀸𑀬 𑀅𑀞𑀸 (𑀬𑁂) 𑀇𑀬𑀁 𑀲𑀸𑀯𑀡𑁂 𑀔𑀼𑀤𑀸𑀓𑁂 𑀘 𑀉𑀟𑀸𑀭𑁂 𑀘𑀸 𑀥𑀁𑀫𑀁 𑀘𑀭𑀁𑀢𑁆 (𑀬𑁄) 𑀕𑀁 𑀬𑀼𑀁𑀚𑀁𑀢𑁆 𑀅𑀁𑀢𑀸 𑀧𑀺 𑀚𑀸𑀦𑀁𑀢𑁆 𑀓𑀺𑀁𑀢𑀺 𑀘 𑀘𑀺𑀮𑀣𑀺 (𑀢𑀺) 𑀓𑁂 𑀥𑀁𑀫 𑀘(𑀲𑀺) 𑀢𑀺 (𑀤𑁆𑀯) 𑀏𑀦𑀁 𑀯𑀸 𑀥𑀁𑀫𑀁 𑀘 (𑀭𑀁) 𑀅𑀢𑀺 (𑀬𑁄) 𑀇𑀬𑀁 𑀘 𑀲𑀸𑀯𑀦 𑀯𑀺𑀯𑀼𑀣𑁂 (𑀦 (200)50 6
देवानंपियस अशोक राजस अ तियानि सवछरानि ह उपासक स्मि। साधिके संवछरे य च मे सं घे या ते ती अहं वा हं च परकं तेती आ हा। एतेना अंतरेना जंबूदीपसि देवानं पिय स अमिसं देवा सं तो मुनिस मिसं देवा कटा। परकमस इयं फले ने च इयं महतेनातिव चकिये पापोतवे। खुदाकेण पी परकममीनेना धंमं चरमीनेनां पानेसू संयतेना विपुले पी स्वगे चकिये आराधयितवे (से) एताय अठा (ये) इयं सावणे। खुदाके च उडारे चा धंमं चरंत् (यो) गं युंजंत्। अंता पि जानंत् किंति च चिलथि (ति) के धंम च(सि) ति (द्व) एनं वा धंमं च (रं) अति (यो) इयं च सावन विवुथे (न (200)50 6 । अशोक के अभिलेख(वाराणसी ज्ञानमंडल से प्रकाषित)- डॉ. राजबली पाण्डेय
अभिलेख को सरलतम रूप से समझने के लिए पदखण्ड- 1 देवानंपियस (देवानां प्रिय) 2 अशोक( अशोक) 3 राजस(राजा की) 4 अ तियानि स वछरानि(ढाई वर्ष बीत गये हैं) 5 ह उपासक स्मि।(मैं उपासक था) 6 साधिके संवछरे य च मे सं घे या ते ती(डेढ़ वर्ष हुए मैंने संघ की शरण ली) 7 अहं वा हं च परकं तेती आ हा। (मैंने अधिक परक्रम किया।) एतेना अंतरेना जंबूदीपसि देवानं पिय स अमिसं देवा सं तो मुनिस मिसं देवा कटा। (इस बीच में जम्बूद्वीप में जो देवता अमिश्र थे वे देवता मनुष्यों से मिश्र किये गये। 8 परकमस इयं फले(यह पराक्रम का फल है।) 9 ने च इयं महतेनातिव चकिये पापोतवे।( न यह केवल महान् से ही) 10 खुदाकेण पी परकममीनेना धंमं चरमीनेनां पानेसू संयतेना विपुले पी स्वगे चकिये आराधयितवे(पराक्रम करने वाले, धर्माचरण करने वाले और प्राणियों में संयम करने वाले क्षुद्र से भी विपुल स्वर्ग प्राप्त करना शक्य है।) 11 (से) एताय अठा (ये) इयं सावणे। (अतः इस प्रयोजन के लिए यह श्रावण किया गया।) 12 खुदाके च उडारे चा धंमं चरंत् (यो) गं युंजंत्। (क्षुद्र और उदार धर्म का आचरण करें और योग को प्राप्त हों।) 13 अंता पि जानंत् किंति च चिलथि (ति) के धंम च....( और सीमावर्ती लोग भी जाने)। क्या धर्माचरण चिरस्थायी होगा। 14 (सि) ति (द्व) एनं वा धंमं च (रं) अति (यो) (यह धर्माचरण अत्यंत बढे़गा।) 15 इयं च सावन विवुथे (न (200)50 6 ।(यह श्रावण 256 वें पड़ाव प्रवास में सुनाया गया।)
अभिलेख का शब्दानुवाद - (देवानां प्रिय) ( अशोक)(राजा की)(ढाई वर्ष बीत गये हैं)(मैं उपासक था)(डेढ़ वर्ष हुए मैंने संघ की शरण ली)(मैंने अधिक परक्रम किया।)(इस बीच में जम्बूद्वीप में जो देवता अमिश्र थे वे देवता मनुष्यों से मिश्र किये गये।(यह पराक्रम का फल है।)(न यह केवल महान् से ही)(पराक्रम करने वाले, धर्माचरण करने वाले और प्राणियों में संयम करने वाले क्षुत्र से भी विपुल स्वर्ग प्राप्त करना शक्य है।)(अतः इस प्रयोजन के लिए यह श्रावण किया गया।)(क्षुद्र और उदार धर्म का आचरण करें और योग को प्राप्त हों।)....( और सीमावर्ती लोग भी जाने)। क्या धर्माचरण चिरस्थायी होगा।(यह धर्माचरण अत्यंत बढे़गा।)(यह श्रावण 256 वें पड़ाव प्रवास में सुनाया गया।)
अभिलेख का भावार्थ- गुजर्रा का शिलालेख लिखवाने के समय तक अशोक को बुद्ध धम्म को स्वीकार किये ढाई वर्ष हो चुके थे। बौद्ध धर्म को एक वर्ष तक भलीभाँति समझने के बाद अशोक ने भिक्षु संघ की शरण लेकर पूर्ण रूप से चीवर धारण कर भिख्खु हो गये थे। भिख्खु बनने के बाद और अधिक धम्म को जाना और जनहित में उसका प्रचार प्रसार किया। लोगों के मध्य के आपसी वेमनस्य को खत्म कर उनमें एकता स्थापित की। जम्बूद्वीप के लोगों के ऊँच-नीच के भेद को समाप्त कर उन्हें आपस में मिला दिया। यही उसके लिए पराक्रम का कार्य था। यह पराक्रम बाहूबल का नहीं बुद्धिबल का था।(३) भाबरू- यह राजस्थान के जयपुर जिले के विराटनगर में है। जिसमें अशोक ने बौद्ध धर्म का वर्णन किया है। यह शिलालेख अशोक के बौद्ध धर्म का अनुयायी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह अशोक के शिलालेखों में से एकमात्र ऐसा शिलालेख है जो बेलनाकार आकृति का है।
(४) मास्की- यह कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित है। इसमें भी अशोक ने अपना नाम अशोक लिखा है इस शिलालेख के माध्यम से सम्राट अशोक के साम्राज्य की दक्षिणी सीमाओं की जानकारी प्राप्त होती है।
(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है।
(६) महास्थान- यह बांग्लादेश के पुंदरुनगर में स्थित है, इसके माध्यम से सम्राट अशोक के राज्य की पूर्वी सीमाओं की जानकारी मिलती है। साथ ही इससे पूर्वकाल (चन्द्रगुप्त मौर्य के समय आए) मे आए अकाल का वर्णन मिलता है ।
धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की। अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय में दिया गया है।
अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे।
दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्य, सतिययुक्त केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं।
अशोक के स्तम्भ-लेख संपादित करें
अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। इन स्थानों के नाम हैं-
(१) दिल्ली/ टोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारम्भ में हरियाणा के अंबाला जिले में पाया गया था। यह मध्ययुगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
(२) दिल्ली /मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया।
(३) लौरिया अरेराज तथा लौरिया नन्दनगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारन जिले में है। नन्दनगढ़़ स्तम्भ पर मोर का चित्र बना हैं।
- लघु स्तम्भ-लेख
अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है, जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-
१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है।
२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है।
३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है।
४. कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है।
५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है।
६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है।
७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है।
८. जतिंग रामेश्वर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है।
९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है।
११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है।
१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है।
१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के सीहोर जिले में स्थित है।
१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है।
अशोक के गुहा-लेख संपादित करें
सम्राट अशोक ने दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर में पहाड़ों को कटवाकर तीन गुफाओं का निर्माण किया और उनकी दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं। इन सभी की भाषा प्राकृत तथा लिपि धम्म लिपि है। केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि धम्म लिपि न होकर खरोष्ठी है। यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है।
- पहला बराबर गुहालेख : मूलपाठ
१ – लाजिना पियदसिना दुवाइस बसा भिसितेना
२ – इयं निगोह कुमा दिना आजीविकेहि
हिन्दी अनुवाद :
१ – बारह वर्षों से अभिषिक्त राजा प्रियदर्शी द्वारा
२ – यह नयग्रोथ गुफा आजीवकों को दी गयी।
- दूसरा बराबर गुहालेख : मूलपाठ
१ – लाजिना पियदसिना दुवा-
२ – डस-वसाभिसितेना इयं
३ – कुभा खलतिक पवतसि
४ – दिना आजीवि केहि
हिन्दी अनुवाद :
१ – राजा प्रियदर्शी द्वारा
२ – बारह वर्ष अभिषिक्त होने पर यह
३ – गुफा खलतिक पर्वत में
४ – आजीविका को दी गयी
- तीसरा बराबर गुहालेख : मूलपाठ
१ – लाजा पियदसी एकुनवी-
२ – सति वसाभिसिते जलघो
३ – सागमें थातवे इयं कुभा
४ – सुपिये खलतिक पवतसि दि
५ – ना।
हिन्दी अनुवाद:
१ – राजा प्रियदर्शी ने उन्नीस
२ – वर्ष अभिषिक्त होने पर वर्षा काल
३ – के उपयोग के लिए यह सुप्रिया गुफा
४ – सुन्दर खलतिक पर्वत पर आजीविकों को दिया
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है।
प्रमुख अभिलेखों का परिचय संपादित करें
अशोक के शिलालेख १४ विभिन्न लेखों का समूह हैं जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं। मगध साम्राज्य के प्रतापी मौर्यवंशी शासक अशोक ने अपनी लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रजा में प्रसारित करने के लिए 14 स्थलों पर शिलालेख, लघु शिलालेख एवं अन्य अभिलेख उत्कीर्ण करवाया था।
धौली संपादित करें
उड़ीसा के खोर्धा जिला में स्थित इस बृहद शिलालेख में अशोक ने पशु वध और समारोहों पर होने वाले अनावश्यक खर्च की निंदा की है। 2.सभी मनुष्य मेरी संतान की तरह है।
शाहबाज गढ़ी संपादित करें
पेशावर (पाकिस्तान) में स्थित इस दूसरे शिलालेख में प्राणिमात्र (पशुओं सहित) के लिए चिकित्सालय खोलने का उल्लेख है। पेयजल और वृक्षारोपण को विशेष प्राथमिकता दी गयी है।
सम्राट् अशोक के १४ प्रज्ञापनों की पांचवीं प्रतिलिपि पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के पेशावर जिले की युसुफजई तहसील में शाहबाजगढ़ी गाँव के पास एक चट्टान पर खुदी मिली है। यह पहाड़ी पेशावर से ४० मील उत्तरपूर्व है। मानसेहरा की तरह शाहबाजगढ़ी की प्रतिलिपियाँ खरोष्ठी लिपि में खुदी हैं, जो दाहिनी से बाईं ओर लिखी जाती है, शेष पाँचो स्थानों की प्रतिलिपियाँ ब्राह्मी लिपि में हैं।
इन चौदह प्रज्ञापनों की मुख्य बातें ये हैं -
- (१) जीवहिंसा का निषेध एवं राजा के रसोईघर में खाय व्यंजनों में जीवहिंसा पर संयम;
- (2) सम्राट् अशोक के जीते हुए सब स्थानों में एवं विशेषकर सीमांत प्रदेशों में मनुष्यों एवं पशुओं की चिकित्सा का प्रबंध;
- (3) अधिकारियों का धर्मानुशासन के लिए भी दौरा एवं आचार की सामान्य बातें,
- (4) धर्माचरण में शील का पालन,
- (5) लोगों को धर्माचरण की बातें बताने के लिए धर्ममहामात्यों का नियत किया जाना,
- (6) राजा के कर्तव्यपालन की बातें,
- (7) संयम, भावशुद्धि एवं विभिन्न धर्मों का आदर,
- (8) विहार यात्रा की जगह धर्मयात्रा पर सम्राट् का संकल्प,
- (9) निरर्थक मंगल कार्यों की जगह समाज में धर्ममंगल की बातों को प्रश्रय देना;
- (10) कर्तव्य कार्यों में धर्ममंगल की बातों का समावेश; धर्म के लिए विशेष प्रयत्न की अपेक्षा।
शेष प्रज्ञापनों में लोगों में समान एवं सम्मानपूर्वक व्यवहार, अपने अपने धर्मों की अच्छी बातों का परिपालन, सत्व की बढ़ती, कलिंगयुद्ध के उपरांत युद्ध के लिए सम्राट् के मन में पश्चाताप एवं जीते हुए प्रदेशों में धर्मानुशासन के कार्य तथा विभिन्न स्थानों में धर्मादेशों के लिखाने की बातें हैं।
मान सेहरा संपादित करें
हजारा जिले में स्थित इस तीसरे शिलालेख में धन को सोच समझकर खर्च करने की नसीहत है। साथ ही बडों के संग आदरपूर्वक, नम्रतापूर्ण व्यवहार करने का सन्देश है।
कालसी/कालकूट संपादित करें
यह वर्तमान उत्तराखंड (देहरादून) में है। यमुना नदी तट पर है
जौगढ़ संपादित करें
यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।इसमे कलिंग की प्रजा के साथ पुत्रवत व्यवहार करने का आदेश दिया गया है।
सोपारा संपादित करें
यह महाराष्ट्र के पालघर जिले के नाला सोपारा में स्थित है।
एरागुडि संपादित करें
आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित सातवें शिलालेख में अशोक ने निर्देश दिया है कि सभी सम्प्रदायों के लोग सभी स्थानों पर रह सकते हैं। इसमें सह-अस्तित्व की मीठी सुगंध मिलती है।
गिरनार संपादित करें
यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है।
अशोक के अभिलेखों के चित्र संपादित करें
इन्हें भी देखें संपादित करें
सन्दर्भ संपादित करें
- ↑ Reference: "India: The Ancient Past" p.113, Burjor Avari, Routledge, ISBN 0-415-35615-6
- ↑ Sircar, D. C. (1979). अशोक संबंधी अध्ययन.
- ↑ Basham, A. L. (1954). The Wonder that was India: A Survey of the History and Culture of the Indian Sub-continent Before the Coming of the Muslims. London: Sidgwick and Jackson. p. 56. OCLC 181731857
- ↑ कोस्मिन & 2014 पृ०५७.
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... a passage preserved to us by Cyril of Alexandria, this author shows a knowledge of Buddhism in Bactria, calling the religious men there by the well-known name of Samanos. In a passage of Clement of Alexandria ...
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- ↑ Cunningham, Alexander (1969). Complete Works of Alexander Cunningham: Inscriptions of Asoka Vol I. Indological Book House, Varanasi. पृ॰ 117.
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- ↑ अ आ Gombrich 1995, पृ॰ 3.
- ↑ अ आ इ ई उ ऊ Strong 1989, पृ॰ 4.
बाहरी कड़ियाँ संपादित करें
- Edicts of Ashoka Archived 2020-06-17 at the वेबैक मशीन - principal events in the scholarship of Ashoka till present।
- The Edicts of King Ashoka (full text, electronic edition offered for free distribution)
- The Edicts of King Ashoka in Access to Insight
- Edicts in original Gandhari
- King Asoka and Buddhism. Historical and Literary studies
- Inscriptions of India – Complete listing of historical inscriptions from Indian temples and monuments