संस्कृत व्याकरण के सन्दर्भ में प्रत्याहार का अलग अर्थ है। यहाँ पातंजल योग से सम्बन्धित प्रत्याहार की चर्चा की गयी है।

प्रत्याहार, पातंजल द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग का पाँचवाँ चरण है। चूंकि छठा चरण "ध्यान" है, इसलिए प्रत्याहार ध्यान के आधार के रूप में कार्य करता है। प्रत्याहार का यौगिक है 'प्रति' + 'आहार'। 'प्रति' का अर्थ है विपरीत (तात्पर्य: विमुख), और 'आहार' का अर्थ है, भोजन। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के अनुसार इंद्रियों के माध्यम से जो कुछ भी ग्रहण किया जाये, वही आहार है। उदाहरणार्थ, जिह्वा से अन्न, कर्ण से शब्द, नेत्र से दृश्य, नासिका से गंध, तथा त्वचा से स्पर्श ग्रहण।

ध्यान से पहले प्रत्याहार

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प्रत्याहार, चेतना को आहार अर्थात अन्न, शब्द आदि से हटाकर, मनः विषय के चिंतन में लगाने की विधा है। इसके पीछे कारण "चेतना" शक्ति को दिशा देना है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार वह चेतना निष्पक्ष, सम तथा सर्वत्र व्याप्त है। अतः ध्यान को अखण्ड व प्रबल करने के लिए आहार के ग्रहण में व्याप्त चेतना शक्ति को मनः विषय (इष्ट देवता, निराकार स्वरूप, निर्मल प्रकाश अथवा अन्य ध्येय वस्तु) की ओर लगाने में लगाना इसका तात्पर्य है।

अष्टांग योग का अंग

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प्रत्याहार को एकाएक सिद्ध नहीं किया जा सकता।  इसके लिए शास्त्र सम्मत योग गुरु से अष्टांग योग की दीक्षा प्राप्त करके यम, नियम, आसन, तथा प्राणायाम को क्रमबद्ध ढंग से सिद्ध करते हुए इस तक पहुंचना अपेक्षित है। प्रत्याहार के सिद्ध हो जाने पर ध्यान सिद्धि  की योग्यता तथा अंततः ध्यान सिद्ध हो जाने पर अष्टांग योग का तात्पर्य स्वरुप "समाधि" को सिद्ध करने की योग्यता प्राप्त होती है।

बाहरी कड़ियाँ

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