बदरी विशाल पित्ती (28 मार्च 1928 - 6 दिसम्बर 2003) भारत के उद्योगपति, कला संग्राहक, समाजसेवी तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। आप डॉ.राममनोहर लोहिया के अत्यन्त करीबी रहे। उन्हें मरणोपरान्त २००५ का युद्धवीर स्मारक पुरस्कार उनको दिया गया।

बदरी विशाल पित्ती का जन्म 29 मार्च 1928 को आंध्र प्रदेश में हैदराबाद में एक मारवाड़ी उद्योगपति परिवार में हुआ। यह परिवार कोई दो सौ साल पहले वहां बसा था और सत्ता में भागीदारी व सम्पन्नता दोनों की दृष्टि से उसके दिन सोने के और रातें चांदी की थीं। दादा मोतीलाल पित्ती को वहां के निजाम ने ‘राजा बहादुर’ की उपाधि दे रखी थी।

उनमें परंपरा व आधुनिकता का दुर्लभ समन्वय था तो चट्टानी इरादों वाली धीरता भी. मीठी झीलों वाली नरमी और मुलायम शरीफाना रईसी मिजाज था, तो आम लोगों के दुख-दर्द में सच्ची सहानुभति का जज्बा भी। अपने पुरखों द्वारा नाना प्रकार से जुटाये गये धन को उन्होंने अपने समाजवादी उद्देश्यों के लिए जी खोलकर खर्च किया।

1949 में, जब वे केवल इक्कीस वर्ष के थे, उन्होंने ‘कल्पना’ नाम की पत्रिका लांच की और अपने समाजवादी आग्रहों से मुक्त रखकर उसे बौद्धिक, राजनीतिक व साहित्यिक विचार-विमर्श के खुले मंच के रूप में विकसित किया। उसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री में सबसे ज्यादा ध्यान तथ्यों की पवित्रता पर ही दिया जाता था। अपनी अनेक खूबियों के कारण ‘कल्पना’ जल्दी ही देश के अनेक लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, राजनीतिज्ञों और पत्रकारों व सामान्यजनों की कंठहार हो गई। भवानीप्रसाद मिश्र, कृष्ण बलदेव वैद, रघुवीर सहाय, मणि मधुकर, शिवप्रसाद सिंह और प्रयाग शुक्ल आदि के लिए तो वह लॉन्चिंग पैड ही सिद्ध हुई। डाॅ. लोहिया के कहने पर मकबूल ने रामायण श्रृंखला के जो अप्रतिम चित्र बनाये, वे भी पहले पहल ‘कल्पना’ में ही प्रकाशित हुए. यह पत्रिका 1978 तक जीवित रही।

पित्ती ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लिया तो वे केवल 14 वर्ष के थे। हैदराबाद के ऐतिहासिक फ्रीडम मूवमेंट के दौरान उन्होंने भूमिगत रहकर ‘हैदराबाद रेडियो’ संचालित किया।

1955 में डाॅ. लोहिया के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी के गठन में तो उन्होंने धुरी व केंद्र दोनों की भूमिका निभाई ही, 1960 में पार्टी ने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ शुरू किया तो उसके तहत जेल जाने वालों में भी अग्रणी रहे।

उनके पिता राजा पन्नालाल ने, जिन्हें अंग्रजों से नाइटहुड व सर जैसी उपाधियां प्राप्त थीं और जो हैदराबाद के निजाम के आर्थिक सलाहकार थे, आजादी के बाद रियासतों के एकीकरण के समय किए गए पुलिस कार्रवाई में निजाम के आत्मसमर्पण और हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

उनके पुत्र बद्री ने निजाम और अंग्रेजों दोनों के कुशासन के खिलाफ अपने अभियानों की सजा निष्कासित होकर और जेल जाकर भुगती।

इस सिलसिले में दिलचस्प यह भी कि उद्योगपति होने के बावजूद बद्री मजदूरों के खासे विश्वासपात्र थे। उन्होंने कुल मिलाकर 29 मजदूर यूनियनों का नेतृत्व किया और उनके बैनर पर मजदूरों की मांगों के समर्थन में अनेक अभियान चलाये।

एक बार वे आंध्र प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी निर्वाचित हुए, जबकि एक समय राज्यपाल बनने का प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्हें धरातल पर रहकर जीने की आदत है और उनके लिए राजभवन में अपने समाजवादी मूल्यों के साथ जीना संभव नहीं होगा।

अपनी प्रशंसा और सम्मान को लेकर उदासीन रहने वाले बद्री विशाल पुष्पगुच्छ, शाॅल और प्रशस्ति पत्र से यथासंभव परहेज बरतते थे और कभी इन्हें ‘स्वीकार’ करना ही पड़ जाये तो किसी नौजवान को अपने जैसे बुजुर्ग की भेंट बताकर दे देते थे। उन्हें किसी भी तरह के अतिरेक और सामंती मानसिकता से चिढ़ थी जबकि खरे व्यक्तियों की पहचान कर उनसे मित्रता का उनका अपना ही तरीका था। बिना वजह बरती जाने वाली औपचारिकताओं से उनका दम घुटने लगता था और वे सारे निजी व सामाजिक संबंधों में खुलेपन के हामी थे।

6 दिसंबर, 2003 को 76 वर्ष की उम्र में अचानक हुए निधन के दो साल बाद 2005 में उन्हें हैदराबाद का प्रतिष्ठित ‘युद्धवीर सम्मान' दिया गया था, जो स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और दैनिक मिलाप के संस्थापक युद्धवीर की स्मृति में दिया जाता है।

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