भारत छोड़ो आन्दोलन
भारत छोड़ो आन्दोलन, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 8 अगस्त 1942 को आरम्भ किया गया था।[1] यह एक आन्दोलन था जिसका लक्ष्य भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करना था। यह आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुम्बई अधिवेशन में शुरू किया गया था। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विश्वविख्यात काकोरी काण्ड के ठीक सत्रह साल बाद 8 अगस्त सन 1942 को गांधीजी के आह्वान पर समूचे देश में एक साथ आरम्भ हुआ। यह भारत को तुरन्त आजाद करने के लिये अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक सविनय अवज्ञा आन्दोलन था।
क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। 8 अगस्त 1942 की शाम को मुंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बम्बई सत्र में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नाम दिया गया था। हालांकि गाँधी जी को फ़ौरन गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्यवाहियों के जरिए आंदोलन चलाते रहे। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी सदस्य भूमिगत प्रतिरोधि गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम में सतारा और पूर्व में मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में स्वतंत्र सरकार, प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।
इतिहास
संपादित करें।। भारतछोडो का नारा यूसुफ मेहर अली ने दिया था! जो यूसुफ मेहर अली भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के अग्रणी नेताओं में थे.।।
विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए ८ अगस्त १९४२ की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। ९ अगस्त १९४२ के दिन इस आन्दोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचण्ड रूप दे दिया। १९ अगस्त,१९४२ को शास्त्री जी गिरफ्तार हो गये। ९ अगस्त १९२५ को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से 'बिस्मिल' के नेतृत्व में हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने प्रारम्भ कर दी थी और इस दिन बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गान्धी जी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ९ अगस्त १९४२ का दिन चुना था।
९ अगस्त १९४२ को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धी जी के साथ भारत कोकिला सरोजिनी नायडू को यरवदा पुणे के आगा खान पैलेस में, डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को पटना जेल व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबन्द किया गया था। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में ९४० लोग मारे गये, १६३० घायल हुए,१८००० डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा ६०२२९ गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।
गांधीजी का 1942 का मूल भारत छोड़ो आंदोलन का मसौदा - द्वितीय विश्व युद्ध के संभावित विजेता जापान के साथ बातचीत करने के लिए
संपादित करेंयुद्ध के बाद 1942 में क्रिप्स द्वारा डोमिनियन स्टेटस की पेशकश के बारे में गांधी का कथन "एक असफल बैंक पर लिखा गया पोस्ट-डेटेड चेक" है, जिसे अक्सर उद्धृत किया जाता है, लेकिन लोग गांधी के 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के मूल मसौदे[2][3][4][5] से अवगत नहीं हैं, जो वास्तव में इसके पीछे का कारण बताता है, यानी गांधी का मानना था कि जर्मनी और जापान अंततः द्वितीय विश्व युद्ध जीतेंगे। गांधी ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का सहारा तभी लिया जब उन्हें लगा कि ब्रिटेन हार सकता थे और जापान और जर्मनी जीत सकते थे। उस समय, जर्मनी और इटली की धुरी शक्तियाँ अधिकांश यूरोप पर नियंत्रण कर रही थीं, उत्तरी अफ्रीका में पैठ बना रही थीं और सोवियत संघ के प्रमुख शहरों को घेरने की प्रक्रिया में थीं। सिंगापुर और बाद में बर्मा में ब्रिटिश साम्राज्य के गढ़ों के अचानक पतन के बाद, मोहन सिंह की भारतीय राष्ट्रीय सेना के साथ जापानी सेना बर्मा के माध्यम से भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी।
5 अगस्त, 1942 को इंडियन एक्सप्रेस में यह रिपोर्ट छपी थी:[2]
"नेहरू ने कहा कि ब्रिटिश के जाने के बाद गांधी की योजना के अनुसार, भारत संभवतः जापान के साथ बातचीत करेगा और उसे भारत में नागरिक नियंत्रण, सैन्य ठिकानों और विदेशी सैनिकों के लिए मार्ग के अधिकार की अनुमति भी देगा।" [विदेशी सैनिकों में स्वचालित रूप से सभी धुरी राष्ट्रों के सैनिक शामिल होंगे, यानी यदि आवश्यक हो तो जर्मन और इतालवी भी।]
महात्मा गांधी के 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का मूल मसौदा, जो उनकी अपनी हस्तलिपि में लिखा गया था, और कई कागजात 26 मई, 1942 को ब्रिटिश राज पुलिस द्वारा जब्त कर लिया गया था, जब उन्होंने A.I.C.C. की बैठक के बाद A.I.C.C. कार्यालय पर छापा मारा था।[6] ब्रिटिश राज ने गांधी के मसौदे और कई कागजात, जिनमें A.I.C.C. के मिनट भी शामिल थे, को तब सार्वजनिक किया जब A.I.C.C. 4 अगस्त 1942 को बॉम्बे में बैठक हो रही थी।
युद्ध के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल ने गांधी की योजना के बारे में भी चर्चा की कि ब्रिटेन को बाहर निकाल कर भारत को जापानी साम्राज्य का उपनिवेश बनाया जाए।[3][4]
ब्रिटिश युद्ध कैबिनेट के कागजात के अनुसार:
"...जैसा कि मैंने 15 जून को युद्ध कैबिनेट को बताया था (युद्ध कैबिनेट। निष्कर्ष 74(42) मिनट 3) इस बात के संकेत बढ़ रहे हैं कि गांधी सरकार को शर्मिंदा करने से बचने की अपनी पूर्व घोषित नीति को छोड़ रहे हैं और कांग्रेस को कुछ व्यापक आंदोलन में ले जाने की योजना बना रहे हैं जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से वापस जाने के लिए मजबूर करना है।"[3]
"यदि अंग्रेज वापस चले गए, तो जापानी कुछ सुविधाओं पर जोर देंगे- हवाई अड्डे, रणनीतिक बिंदुओं पर कब्ज़ा, मध्य पूर्व में सैनिकों के लिए मार्ग। गांधी के मसौदे में नीति को स्वीकार करने से भारत धुरी शक्तियों का निष्क्रिय भागीदार बन जाएगा। उन्होंने [नेहरू] बार-बार इस अंतिम बिंदु पर जोर दिया और कहा कि जापानियों को अहिंसक असहयोग से नहीं रोका जा सकता, जबकि कांग्रेस को धुरी शक्तियों के बाहर हर दूसरे तत्व से शत्रुता मिलेगी। गांधी के मसौदे का पूरा विचार और पृष्ठभूमि जापान के पक्ष में थी। गांधी की भावना थी कि जापान और जर्मनी जीतेंगे। उन्हें लगा कि कांग्रेस (1) सरकार के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं पर सहमत थी; (2) सरकार के साथ सहयोग करने में उनकी पूर्ण असमर्थता पर; (3) सरकार को शर्मिंदा न करने की उनकी नीति पर क्योंकि इससे आक्रमणकारी को मदद मिलेगी।[4]
".... गांधी ने, शायद कुछ हद तक नासमझी में, यह स्पष्ट कर दिया कि केवल ब्रिटिश ही नहीं बल्कि अमेरिकियों को भी देश छोड़ना होगा।"[22]
5 अगस्त, 1942 को द न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा प्रकाशित:[5]
नई दिल्ली, भारत 4 अगस्त (रॉयटर) - निम्नलिखित मूल [1942] "भारत छोड़ो" प्रस्ताव का पाठ भारत सरकार द्वारा जारी किया गया है, जिसे मोहनदास के. गांधी द्वारा तैयार किया गया था और जिसे अखिल भारतीय कांग्रेस कार्य समिति ने पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत संशोधित संस्करण के पक्ष में खारिज कर दिया था। गांधी का मसौदा 27 अप्रैल को समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
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“जबकि सर स्टैफोर्ड क्रिप्स द्वारा प्रस्तुत ब्रिटिश युद्ध कैबिनेट के प्रस्तावों से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नग्नता को अभूतपूर्व तरीके से सामने लाता है (have shown… British imperialism in its nakedness as never before), अखिल भारतीय काँग्रेस समिति निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुँची है:
समिति की राय ये है कि ब्रिटेन भारत की सुरक्षा करने में सर्वथा असमर्थ है । ये स्वाभाविक है कि वो जो भी करता है, वो अपने बचाव के लिए करता है । भारतीय और ब्रिटिश हितों में टकराव अनंत काल तक चलने वाला है । और इससे ये बात भी निकल कर आती है कि सुरक्षा को लेकर दोनों की अवधारणाएँ अलग-अलग हों ।
ब्रिटिश सरकार को भारतीय राजनैतिक पार्टियों में विश्वास नहीं है । भारतीय सेना को अब तक इसलिए बनाए रखा गया है मुख्यतः भारतीयों को दबा कर रखने के लिए । वो जन सामान्य से पूरी तरह अलग रखी गई है, जिससे कि (आम जन) उसे (सेना को) अपना कभी नहीं मान सकते । अविश्वास की ये नीति अभी तक जारी है, और इस ये कारण है कि भारत की सुरक्षा को भारत के चुने हुए प्रतिनिधियों के हवाले नहीं किया जा रहा है ।
जापान का झगड़ा भारत से नहीं है । वो ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लड़ रहा है । युद्ध में भारत की भागीदारी में भारत के चुने हुए प्रतिनिधियों की कोई सहमति नहीं है । ये पूरी तरह से एक ब्रिटिश कार्रवाई थी । यदि भारत स्वतन्त्र होता है, तो सम्भवतः उसका पहला कदम होगा कि वो जापान से बातचीत करे ।
सुरक्षा सम्भव है
काँग्रेस की राय है कि, यदि ब्रिटिश भारत से चले जाएँगे, तो भारत स्वयं की रक्षा करने में सक्षम होगा, यदि जापान, या कोई अन्य आक्रमणकारी, भारत पर आक्रमण करता है तो ।
इसलिए, समिति की राय ये है कि ब्रिटिश को भारत छोड़ देना चाहिए । ये दलील कि उन्हें भारतीय राजकुमारों (या रजवाड़ों) की सुरक्षा के लिए यहाँ रुकना चाहिए पूरी तरह नकारने योग्य है (wholly untenable) । ये एक और अतिरिक्त साक्ष्य है कि वे (ब्रिटिश) भारत पर पानी पकड़ बनाए रखने के लिए कितने दृढ़प्रतिज्ञ हैं । एक निहत्थे भारत से रजवाड़ों को कोई डर नहीं होना चाहिए ।
बहुमत और अल्पमत (या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक) का प्रश्न ब्रिटिश द्वारा गढ़ी गई अवधारणा है, और ये उनके जाने के बाद अदृश्य हो जाएगा ।
इन सभी कारणों से, समिति ब्रिटेन से अपील करती है, कि अपनी सुरक्षा के लिए, भारत की सुरक्षा के लिए और विश्व शांति के लिए, कि वो भारत पर अपनी पकड़ छोड़ दे, यद्यपि वो एशिया और अफ्रीका में अन्य कब्ज़ा किए हुए क्षेत्रों को ना छोड़े ।
समिति की ये इच्छा है कि जापानी सरकार और लोग को ये आश्वासन दें कि भारत के लोग उनके राष्ट्र से, या अन्य किसी भी राष्ट्र से कोई दुश्मनी नहीं रखते । वे (भारतीय) मात्र विदेशी अधीनता से स्वतन्त्रता चाहते हैं । किन्तु स्वतन्त्रता के इस युद्ध में, समिति की राय ये है कि उसे किसी भी विदेशी सेना की सहायता नहीं चाहिए, यद्यपि हम विश्व में सभी की सहानुभूतियों का स्वागत करेंगे ।
असहयोग की नीति
भारत अपनी स्वतन्त्रता अपनी अहिंसात्मक शक्ति की आधार पर हासिल करेगा, और उसी के बल पर उसे बनाए रखेगा । इसलिए, समिति ये आशा करती है कि जापान की भारत में कोई योजना नहीं होगी । किन्तु, यदि जापान आक्रमण करता है और ब्रिटेन उसकी अपील (समिति की) पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता है, तब समिति ये आशा करेगी कि, जो काँग्रेस की तरफ मार्गदर्शन के लिए देखेंगे, वे जापानी सेनाओं को पूर्ण रूप से अहिंसक असहयोग करेंगे, और उन्हें किसी भी प्रकार की सहायता नहीं देंगे । जिन पर आक्रमण होता है, उनका ये कर्तव्य नहीं है कि वो अपने आक्रान्ता को किसी प्रकार की सहायता प्रदान करेंगे । ये उनका कर्तव्य है कि वे पूर्ण असहयोग करें ।
अहिंसक असहयोग के सिद्धान्त को समझना कठिन नहीं है:
पहला, हम किसी भी आक्रान्ता के विरुद्ध घुटने नहीं टेकेंगे, उनके किसी भी आदेश का पालन नहीं करेंगे ।
दूसरा, ना तो उनसे हम कुछ अपने लिए अपेक्षा रखेंगे, ना हम उनके रिश्वतों के झाँसे में आएँगे, लेकिन हम उनके विरुद्ध कोई भी पूर्वाग्रह नहीं रखेंगे, और ना उनका अहित चाहेंगे ।
तीसरा, यदि वे हमारे खेतों को अपने कब्जे में करना चाहेंगे, तो हम उन्हें मना कर देंगे, यद्यपि, हमें उन्हें रोकने के प्रयास में मरना पड़े ।
चौथा, यदि उसे कोई बीमारी हो जाए, या वो प्यासा है और हमारी सहायता माँग रहा है, तो हम उन्हें ये मना नहीं करेंगे ।
पाँचवा, ऐसे स्थान जहाँ ब्रिटिश और जापानी आपस में लड़ रहे होंगे, वहाँ हमारा असहयोग अनावश्यक होगा और किसी काम का नहीं होगा ।
सीमित असहयोग
इस समय, ब्रिटिश सरकार के साथ हमारा असहयोग सीमित है । यदि हम उनके साथ पूर्ण असहयोग करने लगे, जब कि वे लड़ रहे हैं, तो इसका अर्थ होगा कि हम अपने देश को जापानियों के हाथ में दे रहे हैं । इसलिए, ब्रिटिश सेनाओं के रास्ते में कोई रुकावट नहीं डालना ही एक मात्र तरीका है ये प्रदर्शित करने का कि हम जापानियों के साथ असहयोग कर रहे हैं ।
हम ब्रिटिश का भी किसी प्रकार से सक्रिय सहायता नहीं करेंगे । उनके हाल के नजरिए से यदि हम आँकलन करने का प्रयास करें, तो उन्हें हमारी किसी भी सहायता की आवश्यकता नहीं है; बस हम उनके मामले में दखल ना दें । उन्हें हमारी सहायता सिर्फ दासों (slaves) के रूप में ही चाहिए ।
ये आवश्यक नहीं है कि समिति ‘scorched-earth policy’ पर एक स्पष्ट उद्घोषणा करे । यदि, हमारे अहिंसा के बावजूद, यदि देश का कोई हिस्सा जापानियों के हाथ में चल जाता है, तो हम (वहाँ की) फसल, जल आपूर्ति आदि को बर्बाद नहीं करेंगे, यद्यपि ये मात्र इस कारण से हो कि हम उसको वापस अपने कब्जे में लेने का प्रयास करेंगे । युद्ध के सामानों को बर्बाद करने का मामला अलग है, और, किन्हीं परिस्थितियों में, एक सैन्य आवश्यकता हो सकती है । किन्तु ये काँग्रेस की नीति नहीं हो सकती कि वो ऐसी चीजों को बर्बाद करे, जो आम जन की है, या उनके लिए उपयोगी है ।
[समिति] कहती है कि सभी को काम करना होगा
जापानी सेनाओं के प्रति असहयोग आवश्यक रूप से एक छोटी सँख्या तक सीमित रहेगा, तुलनात्मक तौर पर, और यदि वो पूर्ण और वास्तविक है तो अवश्य सफल होगा, सही मायनों में स्वराज के निर्माण के लिए लाखों भारतीयों को पूरी तल्लीनता से सकारात्मक कार्यक्रम पर कार्य करना होगा । इसके बिना पूरा राष्ट्र अपने लम्बे समय से चली आ रही अकर्मण्यता से ऊपर नहीं उठ सकता ।
चाहे ब्रिटिश रहे या नहीं, ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी बेरोजगारी दूर करें, अमीर और गरीब के बीच की खाई को कम करें, साम्प्रदायिक कटुता को निर्वासित करें, अस्पृश्यता के भूत को भगाएँ, डकैतों का सुधार करें और लोगों को उनसे बचाएँ । यदि बहुत संख्या में लोग राष्ट्र निर्माण के कार्य में सक्रिय रूचि नहीं लें, तो स्वतन्त्रता को एक स्वप्न ही बने रहना चाहिए और चाहे अहिंसा, या हिंसा, से भी प्राप्य (unattainable) नहीं होना चाहिए ।
विदेशी सैनिक: समिति की राय ये है कि विदेशी सैनिकों का भारत में प्रवेश भारत के हित के विरुद्ध और भारत की स्वतन्त्रता के लिए खतरनाक है । इसलिए समिति ब्रिटिश सरकार से ये अपील करती है कि विदेशी सैन्य बलों को यहाँ से हटाएँ, और आगे से इन्हें यहाँ नहीं आने दें । ये बहुत ही शर्म की बात है कि विदेशी सैनिकों को यहाँ बुलाया जाए, जबकि भारत में कभी ना खत्म होने वाली जनशक्ति मौजूद है, और ये एक सबूत है ब्रिटिश साम्राज्य की अनैतिकता का ।
मूल सिद्धान्त
संपादित करेंभारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जन आंदोलन था, जिसमें लाखों आम हिंदुस्तानी शामिल थे। इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे उसी समय जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लगे थे। इन्हीं सालों में लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला जहाँ अभी तक उसका कोई खास वजूद नहीं था।
जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गाँधी जी को रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार बात की। 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।
जनता का मत
संपादित करें1946 की शुरुआत में प्रांतीय विधान मंडलों के लिए नए सिरे से चुनाव कराए गए। सामान्य श्रेणी में कांग्रेस को भारी सफ़लता मिली। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। राजनीतिक ध्रुवीकरण पूरा हो चुका था। 1946 की गर्मियों में कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को एक ऐसी संघीय व्यवस्था पर राज़ी करने का प्रयास किया जिसमें भारत के भीतर विभिन्न प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी जा सकती थी। कैबिनेट मिशन का यह प्रयास भी विफ़ल रहा। वार्ता टूट जाने के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए लीग की माँग के समर्थन में एक प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का आह्वान किया। इसके लिए 16 अगस्त 1946 का दिन तय किया गया था। उसी दिन कलकत्ता में खूनी संघर्ष शुरू हो गया। यह हिंसा कलकत्ता से शुरू होकर ग्रामीण बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांत व पंजाब तक फ़ैल गई। कुछ स्थानों पर मुसलमानों को तो कुछ अन्य स्थानों पर हिंदुओं को निशाना बनाया गया।
विभाजन की नींव
संपादित करेंफ़रवरी 1947 में वावेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को वायसराय नियुक्त किया गया। उन्होंने वार्ताओं के एक अंतिम दौर का आह्वान किया। जब सुलह के लिए उनका यह प्रयास भी विफ़ल हो गया तो उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी लेकिन उसका विभाजन भी होगा। औपचारिक सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन नियत किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियाँ मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो बहुत देर तक करतल ध्वनि होती रही। असेम्बली के बाहर भीड़ महात्मा गाँधी की जय के नारे लगा रही थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति
संपादित करें15 अगस्त 1947 को राजधानी में हो रहे उत्सवों में महात्मा गाँधी नहीं थे। उस समय वे कलकत्ता में थे लेकिन उन्होंने वहाँ भी न तो किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया, न ही कहीं झंडा फ़हराया। गाँधी जी उस दिन 24 घंटे के उपवास पर थे। उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था वह एक अकल्पनीय कीमत पर उन्हें मिली थी। उनका राष्ट्र विभाजित था हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन पर सवार थे। नेहरू और जिन्नाह की महत्वाकांक्षा की बदोलत देश को एक खूनी संघर्ष का साक्षी बनना पड़ा और इस संघर्ष और देश के विभाजन के पश्चात देश ने आजादी की पहली सांस ली ।
धर्म निरपेक्षता
संपादित करेंगाँधी जी और नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया। कांग्रेस ने दो राष्ट्र सिद्धान्त को कभी स्वीकार नहीं किया था। जब उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध बँटवारे पर मंजूरी देनी पड़ी तो भी उसका दृढ़ विश्वास था कि भारत बहुत सारे धर्मों और बहुत सारी नस्लों का देश है और उसे ऐसे ही बनाए रखा जाना चाहिए। पाकिस्तान में हालात जो रहें, भारत एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जहाँ सभी नागरिकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे तथा धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना सभी को राज्य की ओर से संरक्षण का अधिकार होगा। कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि वह अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों के किसी भी अतिक्रमण के विरुद्ध हर मुमकिन रक्षा करेगी।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ अंकुर, शर्मा (२०१८). "भारत छोड़ो आंदोलन- जानिए पूरी कहानी". Oneindia. अभिगमन तिथि 8 अगस्त 2018.
- ↑ अ आ "Congress Prestige Will not Suffer, The Indian Express - Google News Archive Search". news.google.com. 1942-08-05. अभिगमन तिथि 2024-09-26.
- ↑ अ आ इ "POLICY TO BE ADOPTED TOWARDS MR. GANDHI. Memorandum by the Secretary of State for India. British War Cabinet W.P. (42) 255, UK Government Web Archive" (PDF). webarchive.nationalarchives.gov.uk. 1942-06-16. अभिगमन तिथि 2024-09-26.
- ↑ अ आ इ "POLICY TO BE ADOPTED TOWARDS MR. GANDHI. Memorandum by the Secretary of State for India. War Cabinet, W.P. (42) 271. UK Government Web Archive" (PDF). webarchive.nationalarchives.gov.uk. 1942-06-27. अभिगमन तिथि 2024-09-26.
- ↑ अ आ "TimesMachine: Wednesday August 5, 1942 - NYTimes.com". The New York Times (अंग्रेज़ी में). 1942-08-05. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 0362-4331. अभिगमन तिथि 2024-09-26.
- ↑ "The Search and The Seizure Kriplani's Statement", Bombay August 4, 1942, The Indian Express - Google News Archive Search". news.google.com. 1942-08-05. अभिगमन तिथि 2024-09-26.