काकोरी काण्ड
काकोरी ट्रैन एक्शन (कार्यवाही) (अंग्रेजी: Kakori train action) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की ईच्छा से हथियार खरीदने के लिये ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूट लेने की एक ऐतिहासिक घटना थी जो ९ अगस्त १९२५ को घटी।[1] इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाये गये थे।[2] इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुन्दा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने इस पूरी घटना को परिणाम दिया था।
क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे स्वतन्त्रता के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी थी। इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने ९ अगस्त १९२५ को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी "आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन" को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद व ६ अन्य सहयोगियों की सहायता से समूची लौह पथ गामिनी पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। बाद में अंग्रेजी सत्ता उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल ४० क्रान्तिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या करने का प्रकरण चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड (फाँसी की सजा) सुनायी गयी। इस प्रकरण में १६ अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम ४ वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था। मिथुन सिंह
काकोरी काण्ड से पूर्व का परिदृश्य
संपादित करेंहिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की ओर से प्रकाशित विज्ञापन और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे दल के दोनों नेता- शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह विज्ञापन अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच०आर०ए० के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया।
सरकारी खजाना लूटने का निर्णय
संपादित करेंदोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद 'बिस्मिल' के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो वह आवश्यकता और भी अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को बिचपुरी तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं तो परन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका।
इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक कष्ट हुआ। आखिरकार उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे।
ऐतिहासिक रेल डकैती
संपादित करें८ अगस्त को राम प्रसाद 'बिस्मिल' के घर पर हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निनिर्णय कर योजना बनी और अगले ही दिन ९ अगस्त १९२५ को हरदोई शहर के रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, जिनमें शाहजहाँपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस से चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल थे; ८ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए।
जर्मनी के माउजरों का प्रयोग
संपादित करेंइन क्रान्तिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की ए०के०-४७ रायफल की तरह चर्चित हुआ करते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और रक्षक के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की प्रयास किया गया किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए।
असावधानी व उत्सुकता से दुर्घटना
संपादित करेंमन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश व जल्दबाजी में माउजर का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के यात्री को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन समाचार पत्रों के माध्यम से यह समाचार पूरे संसार में फैल गया। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया।
अवरुद्धता और प्रकरण
संपादित करेंखुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और जांच पड़ताल करके बरतानिया सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है, पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को अवरुद्ध करवाने के लिये पुरस्कार की घोषणा के साथ विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनवारी लाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनवारी लाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती का सारा भेद प्राप्त कर लिया। पुलिस को उससे यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से राम प्रसाद 'बिस्मिल' की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पूरी पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद 'बिस्मिल', जो हिन्दुस्तान रिपब्लिक असोसीऐश
अवरुद्ध व्यक्ति
संपादित करेंइस ऐतिहासिक मामले में ४० व्यक्तियों को भारत भर से अवरुद्ध [3] किया गया था। अवरुद्धता के स्थान के साथ उनके नाम इस प्रकार हैं:
- आगरा से
- इलाहाबाद से
- शीतला सहाय
- ज्योतिशंकर दीक्षित
- भूपेंद्रनाथ सान्याल
- उरई से
- बनारस से
- मन्मथनाथ गुप्त (काकोरी कांड प्रमुख)
- दामोदरस्वरूप सेठ
- रामनाथ पाण्डे
- देवदत्त भट्टाचार्य
- इन्द्रविक्रम सिंह
- मुकुन्दी लाल
- बंगाल से
- एटा से
- बाबूराम वर्मा
- हरदोई से
- भैरों सिंह
- जबलपुर से
- प्रणवेशकुमार चटर्जी
- कानपुर से
- लाहौर से
- मोहनलाल गौतम
- लखीमपुर से
- लखनऊ से
- मेरठ से
- विष्णुशरण दुब्लिश
- पूना से
- रायबरेली से
- सहारनपुर से
- शाहजहांपुर से
- बनवारी लाल
- लाला हरगोविन्द
- प्रेमकृष्ण खन्ना
- इन्दुभूषण मित्रा
- ठाकुर रोशन सिंह
- रामदत्त शुक्ला
- मदनलाल
- रामरत्न शुक्ला
बाद में गिरफ़्तार
संपादित करेंफरार क्रान्तिकारियों में से दो को पुलिस ने बाद में गिरफ़्तार किया था। उनके नाम व स्थान निम्न हैं: [4]
- दिल्ली से
- भागलपुर से
उपरोक्त ४० व्यक्तियों में से तीन लोग शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में, योगेशचन्द्र चटर्जी हावडा में तथा राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी दक्षिणेश्वर बम विस्फोट मामले में कलकत्ता से पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दो लोग अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को तब अवरुद्ध किया गया जब मुख्य काकोरी षड्यन्त्र केस का फैसला हो चुका था। इन दोनों पर अलग से पूरक प्रकरण दर्ज किया गया।
दस में से पाँच फरार
संपादित करेंकाकोरी-काण्ड में केवल १० लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे, पुलिस की ओर से उन सभी को भी इस प्रकरण में नामजद किया गया। इन १० लोगों में से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो उस समय तक पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य के नाम से ऐतिहासिक प्रकरण चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच० आर० ए० का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १४ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। विशेष न्यायधीश ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और प्रकरण को सेशन न्यायालय में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व गवाह एकत्र कर लिये थे ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई याचिका भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला
संपादित करेंलखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।" अगले दिन कविता तैयार थी[5];
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
रँग दे बसन्ती में भगतसिंह का योगदान
संपादित करेंअमर शहीद भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं:
इसी रंग में बिस्मिल जी ने "वन्दे-मातरम्" बोला,
यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;
इसी रंग को हम मस्तों ने, हम मस्तों ने;
दूर फिरंगी को करने को, को करने को;
लहू में अपने घोला।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
माय! रँग दे बसन्ती चोला....
हो माय! रँग दे बसन्ती चोला....
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
सरफ़रोशी की तमन्ना
संपादित करेंराम प्रसाद 'बिस्मिल' बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह गज़ल[6] क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी[7]। जितनी रचना यहाँ दी जा रही है वे लोग उतनी ही गाते थे।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है !
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ !
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है !
खीँच कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद,
आशिक़ों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है !
ऐ शहीदे-मुल्क-ओ-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है !
अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
सिर्फ़ मिट जाने की हसरत अब दिल-ए-'बिस्मिल' में है !
पूरक प्रकरण और अपील
संपादित करेंपाँच फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ को दिल्ली और शचीन्द्र नाथ बख्शी को भागलपुर से पुलिस ने उस समय अवरुद्ध किया जब काकोरी-काण्ड के मुख्य प्रकरण का फैसला सुनाया जा चुका था। विशेष न्यायाधीश जे० आर० डब्लू० बैनेट की न्यायालय में काकोरी काण्ड का पूरक प्रकरण दर्ज हुआ और १३ जुलाई १९२७ को इन दोनों पर भी सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी।
सरकारी अधिवक्ता लेने से इनकार
संपादित करेंसेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया।
सफाई की जोरदार बहस
संपादित करेंबिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा - "Mr. Ramprasad ! from which university you have taken the degree of law ?" (श्रीमान राम प्रसाद ! आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ?) इस पर बिस्मिल ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था - "Excuse me sir ! a king maker doesn't require any degree" (क्षमा करें महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।)
मुल्ला जी की किरकिरी
संपादित करेंकाकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।" उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरें अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल!
बिस्मिल की बहस से सनसनी
संपादित करेंबिस्मिल द्वारा की गयी सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गयी। मुल्ला जी ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। अतएव अदालत ने बिस्मिल की १८ जुलाई १९२७ को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने ७६ पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। अन्ततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह भी अदालत और सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती।
काकोरी काण्ड का अन्तिम निर्णय
संपादित करें२२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई०पी०सी० की दफा १२१(ए) व १२०(बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का आदेश हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल, जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना अपराध स्वीकार करते हुए न्यायालय की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने माँँग नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ न्यायालय में याचिका करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढ़ाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी ७ वर्ष से बढ़ाकर १० वर्ष कर दी गयी। रामकृष्ण खत्री को भी १० वर्ष के कठोर कारावास की सजा बरकरार रही।[8] खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर याचिका देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (३ वर्ष) रामनाथ पाण्डेय[9] को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से यात्री मारा गया, की सजा बढ़ाकर १४ वर्ष कर दी गयी[10]। एक अन्य अभियुक्त राम दुलारे त्रिवेदी को इस प्रकरण में पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी।[8]
क्षमादान के प्रयास
संपादित करेंअवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर दावानल की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारो मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया कि इन चारो की सजाये-मौत माफ कर दी जाये परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला जाकर हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल दिया जिस पर प्रमुख रूप से पं० मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन० सी० केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।
मालवीय जी के प्रयास विफल
संपादित करेंइसके बाद मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।
प्रिवी कौन्सिल में भी अपील खारिज
संपादित करेंअन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस० एल० पोलक के पास भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद 'बिस्मिल' बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में बरतानिया सरकार को हिन्दुस्तान में हुकूमत करना असम्भव हो जायेगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 25 मार्च 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 दिसंबर 2012.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 14 सितंबर 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 दिसंबर 2012.
- ↑ डॉ॰ एन० सी० मेहरोत्रा व मनीषा टण्डन स्वतन्त्रता आन्दोलन में शाहजहाँपुर जनपद का योगदान पृष्ठ १२४-१२५
- ↑ क्रान्त (2006). स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास. 1 (1 संस्करण). नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन. पृ॰ 239. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-119-4. मूल से 14 अक्तूबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5-12- 2013.
|accessdate=
में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ डॉ॰ मदनलाल वर्मा 'क्रान्त' स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास (भाग-एक) पृष्ठ १५२
- ↑ सरफरोशी की तमन्ना (खण्ड-दो) पृष्ठ-६४)
- ↑ आशारानी व्होरा स्वाधीनता सेनानी लेखक-पत्रकार पृष्ठ-१८
- ↑ अ आ क्रान्त (2006). स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास. 1 (1 संस्करण). नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन. पृ॰ 234. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-119-4. मूल से 14 अक्तूबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ५ फरबरी २०१४.
इन पर यह आरोप सिद्ध हुआ कि हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ का विस्तार मध्य भारत और महाराष्ट्र में कर रहे थे। दस वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई।
|accessdate=
में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) सन्दर्भ त्रुटि:<ref>
अमान्य टैग है; "क्रान्त" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है - ↑ डॉ॰ भगवान दास माहौर काकोरी बलिदान स्मृति पृष्ठ-७८
- ↑ विद्यार्णव शर्मा युग के देवता-बिस्मिल और अशफाक पृष्ठ-११८/११९
- डॉ॰ भगवानदास माहौर काकोरी शहीद स्मृति १९७८ प्रकाशक: रामकृष्ण खत्री काकोरी शहीद अर्द्धशताब्दी समारोह समिति २ मेंह्दी बिल्डिंग केसरबाग लखनऊ २२६००१ (उ०प्र०)
- डॉ॰ एन० सी० मेहरोत्रा व मनीषा टण्डन स्वतन्त्रता आन्दोलन में शाहजहाँपुर जनपद का योगदान १९९५ शहीदे-आजम पं० राम प्रसाद बिस्मिल ट्रस्ट शाहजहांपुर २४२००१ (उ०प्र०)
- मदनलाल वर्मा 'क्रान्त' सरफरोशी की तमन्ना १९९७ प्रवीण प्रकाशन १/१०७९ ई महरौली नई दिल्ली-११००३०
- आशारानी व्होरा स्वाधीनता सेनानी लेखक-पत्रकार २००४ प्रतिभा प्रतिष्ठान १६६१ नेताजी सुभाष मार्ग नई दिल्ली ११०००२ ISBN 81-88266-23-X
- विद्यार्णव शर्मा युग के देवता-बिस्मिल और अशफाक २००४ प्रवीण प्रकाशन १/१०७९ ई महरौली नई दिल्ली-११००३० ISBN 81-7783-078-3
- डॉ॰ मदनलाल वर्मा 'क्रान्त' स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास २००६ प्रवीण प्रकाशन नई दिल्ली ISBN 81-7783-122-4 (Set)