भण्ड एक असुर था जो कामदेव की भस्म से उत्पन्न हुआ था। देवी त्रिपुरसुन्दरी ने उसका वध किया। भगवान् शंकर ने जब कामदेव को जलाया था, तब उसकी भस्म वहीं पड़ी रह गयी थी। एक दिन गणेश ने कौतूहलवश उस भस्म से पुरुषकी आकृति बनायी। थोड़ी ही देर में वह सजीव होकर कामदेव की तरह सुन्दर बालक बन गया। उसे देख गणेशजी ने उसे गले से लगा लिया और कहा कि ‘तुम भगवान् शंकर की स्तुति करो।’ उस बालक को शतरुद्रीय का भी उपदेश किया। उसका नाम आगे चलकर भण्डासुर हुआ।

भण्ड ने श्रीगणेशजी की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उससे वर माँगने को कहा। उसने यह माँगा कि ‘मैं देवता आदि किसी प्राणी से न मारा जाऊँ।’ शिव ने उसे मुँहमाँगा वर दे दिया तथा साथ ही दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी दिये। उन्होंने उसे साठ हजार वर्ष का राज्य भी दे दिया। यह सब देखकर ब्रह्माजी ने ही पहले उसे ‘भण्ड-भण्ड’ कहा था। तभी से उसका नाम ‘भण्ड’ पड़ गया।

भण्डासुर के वरदान मिलने की बात थोड़ी ही देर में सम्पूर्ण भुवनों में फैल गयी। दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य यह समाचार पाकर भण्डासुर के पास आये और मय के द्वारा शोणितपुर को फिर से सुसज्जित कराकर वहाँ भण्डासुर का अभिषेक कर दिया। प्रारम्भ में भण्डासुर शिव जी अर्चना करता और उनके आदेश पर चलता था। उसके अनुयायी दैत्य भी धर्म का अनुसरण करते थे। इस तरह सौभाग्यशाली भण्ड की सुख-समृद्धि के साठ हजार वर्ष देखते-देखते बीत गये। बाद में वह माया की चपेट में पड़ गया। अब चार पत्नियों से उसे संतोष न था। वह एक दिव्य वारांगना के मोह में पड़ गया।

इसी बीच देवर्षि नारद देवताओं के पास आये और उन्हें समझाया कि इस क्षणिक आमोद-प्रमोद को छोड़कर वे अपने भविष्य को सुनहला बनायें। उन्होंने पराशक्ति की उपासना का परामर्श दिया और उसकी विधि भी बतला दी। देवताओं ने शीघ्र ही उनके आदेश का पालन किया। इधर दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य भण्डासुर के पास आये और उसे सावधन करते हुए उन्होंने कहा-'देवता अपनी विजय के लिये हिमालय में पराशक्ति की उपासना कर रहे हैं। यदि पराशक्ति ने उनकी सुन ली तो तुम कहीं के न रह जाओगे। अतः तुम शीघ्र ही देवताओं की पूजा में विघ्न डालो।

भण्डासुर दल-बल के साथ देवताओं पर चढ़ आया। पराम्बा ने अपनी शरण में आये हुए देवताओं की रक्षा के लिये ज्योति की एक अलंघ्य दीवार खड़ी कर दी। भण्डासुर यह देखकर क्रोध से जल उठा। उसने दानवास्त्र चलाकर उसे तोड़ डाला परन्तु तत्क्षण ही वहाँ पुनः अलंघ्य दीवार खड़ी हो गयी। अब भण्डासुर ने वायाशास्त्र से इसे तोड़ा किन्तु तत्क्षण भण्डासुर ने उसी दीवार को खड़ी देखा। तोड़ने में समय लगता था, किंतु दीवार खड़ी होने में समय नहीं लगता था। हारकर भण्डासुर शोणितपुर लौट आया।

भण्डासुर लौट तो आया था, किंतु उसकी भय से देवताओं की दशा दयनीय हो गयी थी। वे सोचते थे कि जिस दिन दीवार नहीं रहेगी, उस दिन हमलोगों का बच सकता कठिन हो जायगा। अब कहीं छिपकर नहीं रहा जा सकता। अंत में देवताओं ने निर्णय लिया कि या तो पराम्बा का दर्शन करें या यहीं भण्डासुर के हाथों में मारे जायँ।

उन्होंने घोर आराधना की। पराम्बा प्रकट हो गयीं। उनके अद्धभुत दर्शन पाकर देवता कृतकृत्य हो गये। पराम्बा का स्वरूप-शृंगार देवी के रूप में था। ब्रम्हा ने यह देखकर सोचा कि इनका विवाह शंकर से ही संभव है।| इतना संकल्प करते ही भगवान् शंकर कुमार बनकर वहाँ प्रकट हो गये। देवताओं ने उनका आपस में विवाह करा दिया और पराम्बा को उस पुर की अधीश्वरी बना दिया।

उधर भण्डासुर ने सारे विश्व को त्रस्त कर रखा था। उसने अहंकार में आकर अपने जनक श्रीगणेश और शंकरजी की अवहेलना की। परिणाम स्वरूप भण्डासुर के विरुद्ध युद्ध में गणेश जी ने भी पराम्बा सहयोग दिया। विश्व की रक्षा के लिये ललिताम्बा ने भण्डासुर के साथ युद्ध किया। युद्ध में भण्डासुर ने 'पाषण्ड' का प्रयोग किया, तब पराम्बा ने 'गायत्री' के द्वारा उसका निवारण किया। जब भण्डासुर ने 'स्मृतिनाश'-अस्त्र का प्रयोग किया, तब माँ ने 'धारण' के द्वारा उसे नष्ट किया। जब भण्डासुर ने 'यक्ष्मा' आदि रोग रूप अस्त्रों का प्रयोग किया, तब पराम्बा ने 'अच्युत, अनन्त, गोविन्द' (अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्) नामरूप मन्त्रों से उसका निवारण किया। इसके बाद भण्डासुर ने हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, रावण, कंस और महिषासुर को उत्पन्न किया, तब ललिताम्बा ने अपनी दसों अंगुलियों के नख से वराह, नृसिंह, राम, कृष्ण, दुर्गा आदि को उत्पन्न किया। युद्ध के अन्तिम भाग में पराम्बा ने भण्डासुर का उद्धार 'कामेश्वरा-अस्त्र' से किया।