भरथरी एक छत्तीसगढ़ की लोक गाथा है। सांरण या एकतारा के साथ भरथरी गाते योगियों को देखा जाता है। वास्तव में छत्तीसगढ़ में जो भरथरी का गीत गातें है वे 'योगी' कहलाते हैं। गीत में भी अपने आप को वे योगी कहते हैं। छत्तीसगढ़ी भरथरी किसी जाति विशेष का गीत नहीं है।

घोड़ा रोवय घोड़ेसार मा, घोड़ेसार मा वो, हाथी रोवय हाथीसार मा
मोर रानी ये वो, महलों में रोवय
मोर रानी ये या, महलों में रोवय
येदे धरती में दिए लोटाए वो, ऐ लोटाए वो, भाई येदे जी
येदे धरती में दिए लोटाए वो, ऐ लोटाए वो, भाई येदे जी
सुन लेबे नारी ये बाते ला, मोर बाते ला या, का तो जवानी ये दिए हे
सुन लेबे नारी ये बाते ला, मोर बाते ला वो, का तो जवानी ये दिए हे
भगवाने ह वो, मोर कर्म में ना
भगवाने ह या, मोर कर्म में ना
येतो काये जोनी मोला दिए हे, येदे दिए हे, भाई येदे जी
येदे काये जोनी दिए हे, येदे दिए हे, भाई येदे जी

भरथरी की सतक एवं उनकी कथा ने लोक में पहुंच कर एक नई ऊर्जा और जीवन जीवंता प्राप्त की है। लोक जीवन के विकट यथार्थ एवं सहज मान्यता ने जिन भरथरी को जन्म दिया और वह अनेक अर्थो में परम्परा लोक शक्ति की अधीन प्रयोग शीलता और विलक्षण क्षमता का परिमाण है। छत्तीसगढ़ में भरथरी की सांगिति का प्रतिष्ठा है। श्रीमती सुरुज बाई खाण्डे भरथरी गायन के लिए प्रसिद्ध हैं।

आंचलिक परम्परा में आध्यात्मिक लोकनायक के रूप में प्रतिष्ठित राजा भर्तहरि के जीवन वृत्त, नीति और उपदेशों को लोक शैली में प्रस्तुति है - भरथरी। छत्तीसगढ़ में भरथरी गायन की पुरानी परम्परा को सुरुजबाई खांडे ने रोचक लोक शैली में प्रस्तुत कर विशेष पहचान बनाई है। भरथरी गायन में हारमोनियम, बांसुरी, तबला, मंजीरा का संगत होता है।

शुरु में भरथरी एक अकेला व्यक्ति गाया करता था। वह खंजरी बजाकर गाता था। बाद में वाद्यों के साथ भरथरी का गायन होने लगा। वाद्यों में तबला, हारमोनियम, मंजीरा के साथ साथ बेंजो भी था। धीरे-धीरे इसका रुप बदलता गया और भरथरी योगी गाना गाते और साथ साथ नाचते भी हैं। ये बहुत स्वाभाविक है कि गीत के साथ नृत्य भी शामिल हो गया।

छत्तीसगढ़ की भरथरी में हम देखते है कि कई जगह "सतनाम" का उल्लेख है -

तैहर ले ले बेटी
सतनामे ल ओ

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