भृगु आश्रम
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भृगु आश्रम (Bhrigu Ashram) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बलिया नगर में स्थित एक हिन्दू धार्मिक स्थल है। यहाँ बलिया ज़िले का सबसे प्राचीन मन्दिर है। मान्यता है कि यहाँ महर्षि भृगु का आश्रम हुआ करता था और उन्होंने यहाँ भृगुसंहिता की रचना की थी।[1]
भृगु आश्रम | |
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Bhrigu Ashram | |
धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | बलिया |
ज़िला | बलिया ज़िला |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
देश | भारत |
भौगोलिक निर्देशांक | 25°45′32″N 84°09′37″E / 25.7588°N 84.1604°Eनिर्देशांक: 25°45′32″N 84°09′37″E / 25.7588°N 84.1604°E |
वास्तु विवरण | |
निर्माता | महर्षि भृगु |
विवरण
संपादित करेंभार्गववंश के मूलपुरुष महर्षि भृगु जिनको जनसामान्य ॠचाओं के रचयिता एक ॠषि, भृगुसंहिता के रचनाकार,यज्ञों मे ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानते है। परन्तु इन भार्गवों का इतिहास इस भूमण्डल पर एशिया, अमेरिका से लेकर अफ़्रीका महाद्वीप तक बिखरा पड़ा है। 7500 ईसापूर्व प्रोटोइलामाइट सभ्यता से निकली सुमेरु सभ्यता के कालखण्ड में जब प्रचेता ब्रह्मा बने थे। यहीं से भार्गववंश का इतिहास शुरु होता है। महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम अंगिरा था। प्रोटोइलामाइट सभ्यता के शोधकर्ता पुरातत्वविदों डा0फ़्रैकफ़ोर्ट,लेंग्डन,सर जान मार्शल और अमेरिकी पुरातत्वविद् डा0डी0टेरा ने जिस सुमेरु-खत्ती-हिटाइन-क्रीटन सभ्यता को मिस्र की मूल सभ्यता बताया है,वास्तव में वही भार्गवों की सभ्यता है। प्रोटोइलामाइट सभ्यता चाक्षुष मनुओं और उनके पौत्र अंगिरा की विश्वविजय की संघर्ष गाथा है। महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ,उस समय इनके पिता प्रचेता सुषानगर जिसे कालान्तर मे पर्शिया,ईरान कहा जाने लगा है इसी भू-भाग के राजा थे। इस समय ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता के पास उनकी दो पत्नियांँ रह रही थी। पहली भृगु की माता वीरणी दूसरी उरपुर की उर्वसी जिनके पुत्र वशिष्ठ जी हुए। महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए,इनकी पहली पत्नी दैत्यराज "हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या" थी। दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री "दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा" रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को "काव्य" एवं त्वष्टा को "मय" के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी की तीन संताने हुई,दो पुत्र "च्यवन" और "ॠचीक" तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम "रेणुका" था। च्यवन ॠषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाड़ी के राजा "शर्याति की पुत्री सुकन्या" के साथ हुआ। "ॠचीक का विवाह" महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (वर्तमान उ0प्र0 राज्य का गाजीपुर जिला)के "राजा गाधि की पुत्री सत्यवती" के साथ एक हजार श्यामवर्ण घोड़े दहेज में देकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य)के साथ किया। इन शादियों से उनका रुतबा भी काफ़ी बढ गया था। महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य मे (वर्तमान उ0प्र0का बलिया जिला)आने के पौराणिक ग्रन्थों मे दो कथानक मिलते है, भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणूका के पति भगवान विष्णु मे वर्चस्व की जंग छिड़ गई,इस लड़ाई मे महर्षि भृगु की पत्न्नी दिव्या ने पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला,इस पारिवारिक झगड़े को आगे नहीं बढ़ने देने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया,और वह धर्मारण्य मे आ गए।[उद्धरण चाहिए]
दूसरी कथा पद्मपुराण के उपसंहार खण्ड मे मिलती है, जिसके अनुसार मन्दराँचल पर्वत पर हो रही यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान शंकर की परीक्षा के लिए भृगु जी जब कैलाश पहुँचे,उस समय शंकर जी अपनी पत्नी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे,शिवगणों ने महर्षि को उनसे मिलने नहीं दिया,उल्टे अपमानित करके कैलाश से भगा दिया। भृगु ने भगवान शिव को तमोगुणी मानते हुए,शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। यहॉं से महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक पहुँचे वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे,सोचा पुत्र ही तो है,मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नहीं हुआ,तब नाराज होकर इन्होंने ब्रह्मा जी को रजोगुणी घोषित करते हुए,शाप दिया कि आपकी कही पूजा ही नहीं होगी। क्रोध मे तमतमाए महर्षि भगवान विष्णु के श्रीनार (फ़ारस की खाड़ी) पहुंचे,वहाँ भी विष्णु जी क्षीरसागर मे विश्राम कर रहे थे, उनकी पत्नी उनके पैर दबा रही थी। क्रोधित महर्षि ने उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया, और कहा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर मे चोट तो नहीं लगी। महर्षि प्रसन्न हो गए और उनको देवताओं मे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया। कथानक के अनुसार महर्षि के परीक्षा के इस ढंग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य मे तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए बलिया के गंगातट पर जाने का आदेश दिया। इस प्रकार से भृगु मुनि अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर सुषानगर (ईरान )से बलिया आ गए। यहाँ पर उन्होंनेे गुरुकुल खोला,उस समय यहां के लोग खेती करना नहीं जानते थे , उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यहीं रहकर उन्होंने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना किया। कालान्तर मे अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहां प्रवाहित हो रही गंगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होंने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को यहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया। जिसकी स्मृति मे आज भी यहां ददरी का मेला लगता है। महर्षि भृगु के वंशजों ने यहां से लेकर अफ़्रीका तक राज्य किया। जहाँ इन्हें खूफ़ू के नाम से जाना गया। यही से मानव सभ्यता विकसित होकर आस्ट्रेलिया होते हुए अमेरिका पहुंची,अमेरिका की प्राचीन मय-माया सभ्यता भार्गवों की ही देन है।[2][3][उद्धरण चाहिए]
इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Lalta Prasad (1985), The Growth of a Small Town: A Sociological Study of Ballia, Concept Publishing Company, 1985
- ↑ "भृगुक्षेत्र महात्म", शिवकुमार सिंह कौशिकेय
- ↑ "वसुधैव कुटुम्बकम", शिवकुमार सिंह कौशिकेय