डॉ मङ्गलदेव शास्त्री (१८९०-१९७६) संस्कृत के विद्वान एवं लेखक थे। वे 1937 से 1958 तक राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी के प्रधानाचार्य रहे। बाद में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। वे 'सरस्वती सुषमा' नामक त्रैमासिक संस्कृत शोष जर्नल के सम्पादकमण्डल के प्रमुख सदस्य भी थे।

मंगलदेव शास्त्री का जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर के एक प्रतिष्ठित आर्य समाजी परिवार में सन 1890 में हुआ था। उस समय के रिवाज के अनुसार बचपन में उनकी प्रारम्भिक अध्ययन उर्दू-पारसी के मकतबों में शुरू हुआ। फिर मदरसे में पढ़ाई शुरू हुई जो 1901 तक चली। 1902 में अंग्रेज़ी स्कूल में नाम लिखाया गया। घर पर कुछ हिंदी पढ़ायी गयी परन्तु इच्छा होने पर भी संस्कृत पढ़ने की कोई सुविधा नहीं थी। सौभाग्य से 1900 में आर्यसमाज में एक पाठशाला खुल गयी। अंग्रेज़ी स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ उसमें प्रतिदिन थोड़े समय के लिए संस्कृति भी पढ़ायी जाती थी।

1903 में गुरुकुल कांगड़ी के उत्सव पर माता-पिता के साथ वहाँ प्रवेश पाने के लिए गए पर वहां तत्काल प्रवेश न हो सका। वहां से घर लौटते ही पता लगा कि प्रसिद्ध आर्यसमाजी सन्यासी स्वामी दर्शनानंद बदायूं में ही सुप्रसिद्ध तपोभूमि सूर्यकुंड के पास गुरुकुल खोलने जा रहे हैं। अप्रैल में वह खुल गया और प्रबल अंतःप्रेरणा के कारण, उस समय पिताजी के बाहर रहते हुए भी, अपने छोटे भाई के साथ उन्होने वहां प्रवेश ले लिया। १९०६ में गुरुकुलीय जीवन का अन्त हुआ। १९०९ में उन्हे 'शास्त्री' की उपाधि मिली।[1]

कृतियाँ संपादित करें

  • तुलनात्मक भाषा-शास्त्र अथवा भाषा-विज्ञान
  • भारतीय संस्कृति का विकास
  • संस्कृत साहित्य का इतिहास
  • अमृत मन्थन : जीवन का दिव्य पक्ष
  • मिना अथवा प्रेम और प्रतिष्ठा (मूल जर्मन पुस्तक 'मिना फ़न बार्नहाल्म' का हिन्दी अनुवाद)
  • प्रबन्धप्रकाशः (भाग१ और भाग २)
  • ऋग्वेदप्रातिशाख्यम्

सन्दर्भ संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें