मौद्गल्यायन
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मौद्गल्यायन नाम के कम से कम दो व्यक्ति हुए हैं, एक महात्मा बुद्ध के शिष्य तथा दूसरे वैयाकरण।
महात्मा बुद्ध के शिष्य
संपादित करेंमौद्गल्यायन (पालि : मोग्गल्लान) ये भगवान बुद्ध के समकालीन शिष्य थे। उनके पांडित्य का परिचय इतने से ही मिल जाता है कि स्वयं भगवान बुद्ध कभी-कभी अपने उपदेश को स्वयं पूरा न कर अपने प्रिय मौद्गल्यायन अथवा सारिपुत्र या आनंद को उसे पूरा करने का आदेश दे देते थे और पश्चात् वे उक्त शिष्यों द्वारा दिए गए उपदेश का अनुमोदन कर देते थे। इस प्रकार सूत्त पिटक के अनेक सूत्रों में मोग्गल्लान का उपदेश पाया जाता है। विनय पिटक, महावग्ग के आदि में मोग्गल्लान के संन्यास का वर्णन पाया जाता है जो श्रमणों की साधनाओं को समझने के लिये बड़ा उपयोगी है। सन् १८५१ ई. में जब साँची के स्तूपों में दूसरी बार खुदाई हुई थी, वहाँ के एक छोटे स्तूप में मोग्गल्लान और उनके साथी सारिपुत्र के भष्मावशेष प्राप्त हुए थे। ये भष्मावशेष श्रीलंका पहुँच गए थे, जो अब वहाँ से लाकर पुन: साँची की उसी प्राचीन पहाड़ी पर प्रतिष्ठित कर दिए गए हैं।
वैयाकरण मोग्गल्लान
संपादित करेंदूसरे मोग्गल्लान वैयाकरण थे। उनका बनाया हुआ पालि व्याकरण, कच्चान व्याकरण के पश्चात् निर्मित हुआ है, किंतु उसकी अपेक्षा अधिक सर्वांगपूर्ण है। इसी कारण इसका प्रचार भी अधिक पाया जाता है। इस व्याकरण में ८१७ सूत्र हैं, जिनपर वृति भी स्वयं कर्ता की लिखी हुई मानी जाती है और उस वृत्ति पर एक पचिका नामक व्याख्या भी उन्हीं की बनाई हुई कही जाती है। इस व्याकरण में सूत्रपाठ के अतिरिक्त धातुपाठ, गणपाठ एवादिपाठ आदि का भी समावेश पाया जाता है। इस व्याकरण के अंत में निम्न गाथा निबद्ध पाई जाती है:
- सुत्त-धातु-गणो-णवादि
- नामलिंगानुसासनं।
- यस्स तिट्ठति जिह्वग्गे!
- सो व्याकरणकेसरी।
इस गाथा के अनुसार सूत्रपाठ के अतिरिक्त उक्त धातुपाठ आदि प्रकरण भी मूल व्याकरणकार मोग्गल्लानकृत प्रतीत होते हैं और कर्ता को व्याकरणकेसरी की उपाधि भी दी गई है। इसी व्याकरण के आधार से हिंदी में भिक्षु जगदीश काश्यप द्वारा पालि महाव्याकरण (प्रका. महाबोधि सभा, सारनाथ, १९४०) की रचना हुई है। मोग्गल्लान व्याकरण की वृत्ति के अंत में व्याकरणाकर ने अपना कुछ परिचय दिया है जिसके अनुसार मोग्गल्लान महाथेर अनुराधापुर के थूपाराम नामक विहार में निवास करते थे और उन्होंने अपने व्याकरण की रचना पराक्रमबाहु के राज्यकाल में की थी। लंका के इतिहास में पराक्रमबाहु प्रथम का समय ई. सन् ११५३-११८६ तक पाया जाता है। इस काल में वहाँ पालि साहित्य की बड़ी समृद्धि हुई। अतएव यही काल उक्त पालि व्याकरण की रचना का माना जाता है।
मोग्गल्लानकृत अभिधानप्पदीपिका नामक पालिकोश भी पाया जाता है। (संपा. मुनि जिनविजय, प्रका. गुजरात पुरातत्व मंदिर, अहमदाबाद, वि. सं. १९८०)। इस पालिकोश की रचना संस्कृत के अमरकोश की रीति से हुई है और उसमें पालि के पर्यायवाची शब्दों का संकलन किया गया है। इसमें स्वर्गकांड, भूकांड और श्रामणय कांड ऐसे तीन विभाग हैं। कोशकार ने अपना निवास-स्थान पुलत्थिपुर का जेतवन विहार बतलाया है तथा गंधवंस में उन्हें नव मोग्गल्लान से भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते है। यद्यपि इसकी रचना भी उक्त परक्रमबाहु प्रथम के ही शासनकाल (११५३-११८६) में हुई मानी जाती है। इस कोश पर १४वीं शती में रचित एक टीका भी मिलती है।
सन्दर्भ
संपादित करें- राइस डेविड्स : बुद्धिस्ट इडिया,
- जगदीश काश्यप पालि महाव्याकरण,
- भरतसिंह उपाध्याय, पालि साहित्य का इतिहास
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- मोग्गलान व्याकरणं
- Life of Maha-Moggallana by Hellmuth Hecker
- [1] Nichiren Daishonin speaks about Maudgalyayana.