महाशय राजपाल
महाशय राजपाल (जन्म- 1885, अमृतसर; मृत्यु -- 6 अप्रैल, 1929) लाहौर एक आर्यसमाजी नेता, प्रकाशक एवम हिन्दीसेवी थे। उनका लाहौर में प्रकाशन संस्थान था। वह स्वयं भी विद्वान् थे।
राजपाल पक्के आर्य समाजी थे और विभिन्न मतों का अपनी पुस्तकों में तार्किक ढंग से खण्डन करते थे। खण्डन-मण्डन की इसी श्रृंखला में उन्होने रंगीला रसूल नामक एक पुस्तक का प्रकाशन किया था। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद से महाशय राजपाल पर तीन जानलेवा हमले हुए, जिसमें 6 अप्रैल, 1929 का आक्रमण राजपाल जी के लिए प्राणलेवा बना।
जीवन परिचय
संपादित करेंमहाशय राजपाल का जन्म भारत की सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक व ऐतिहासिक नगरी अमृतसर में पंचमी आषाढ़ संवत् (सन् 1885) को हुआ था। उनके पिता जी का नाम लाला रामदास था। लाला रामदास जी एक निर्धन खत्री थे। राजपाल प्रारम्भ से ही बहुत संस्कारी थे। वे बुद्धिमान, परिश्रमी व धैर्यवान् थे। पढ़ाई में बहुत योग्य थे।
जब राजपाल जी छोटे ही थे, तब किसी कारण से उनके पिता घर छोड़कर कहीं निकल गए। उनका फिर कोई अता-पता ही न चला। उनकी माता, वह स्वयं व छोटा भाई सन्तराम अब असहाय हो गए थे। इस समय बालक राजपाल स्कूल में पढ़ते थे। पिताजी के होते हुए भी परिवार निर्धनता की चक्की में पिसता रहता था और उनके गृहत्याग से परिवार पर और अधिक विपदा आ पड़ी। राजपाल ने इसी दीन-हीन अवस्था में जैसे-तैसे मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। विपत्तियों से घिरकर भी उन्होंने हिम्मत न हारी। कठिन परिस्थितियों ने उनके जीवन को और भी निखार दिया।
उस युग में मिडिल उत्तीर्ण का भी बड़ा आदर होता था और आसानी से नौकरी मिल जाती थी। राजपाल जी हाथ-पाँव मारकर, किसी की सहायता से आगे भी बढ़ सकते थे, परन्तु प्यारी माँ व भाई के निर्वाह का भार उनके ऊपर था। यह कर्तव्य उनको कुछ करने व कमाने के लिए प्रेरित कर रहा था। सोच-समझकर उन्होंने ‘किताबत’ का धंधा अपनाया। तब पंजाब में उर्दू का प्रभुत्व था। उर्दू की पुस्तक छापने से पहले कम्पोज़ नहीं की जाती थी। सुलेख लिखने वाले उन्हें एक विशेष कागज पर लिखते थे, फिर उनकी छपाई होती थी। इसी कला को ‘किताबत’ कहते हैं।
अमृतसर में एक प्रसिद्ध आर्यसमाजी हकीम फतहचन्द रहते थे। उनको एक कर्मचारी की आवश्यकता थी। राजपाल जी को काम की खोज थी। बारह रुपये मासिक पर उन हकीम जी के पास नौकरी कर ली। अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रमशीलता, सत्यनिष्ठा आदि गुणों से राजपाल ने हकीम जी के हृदय में एक विशेष स्थान बना लिया।
राजपाल जी ने अपने मुहल्ले के लड़कों से सम्पर्क किया, उनको इकट्ठा किया और एक 'बाल सुधार सभा' नाम का संगठन खड़ा कर दिया। इस सभा के द्वार सबके लिए खुले थे। हिन्दू, सिक्ख, बालक तो इसमें भाग लेते ही थे, मुसलमान बालक भी इसमें सक्रिय रुचि लेते रहे। इस सभा द्वारा बालकों के चरित्र निर्माण का बड़ा ठोस कार्य किया गया। प्रतिदिन रात्रि 8 बजे इस सभा का अधिवेशन आरम्भ हुआ करता था। राजपाल जी सब बालकों को जीवन निर्माण के लिए धर्मोपदेश दिया करते थे। इस सभा में मांस-भक्षण, तम्बाकू व मदिरा पान आदि विषयों पर वाद-विवाद हुआ करते थे। इस सभा के प्रचार से अनेक युवकों ने दुर्व्यसनों का परित्याग किया। कितने ही युवक कुसंगति से बचे और कल्याण-मार्ग के पथिक बनकर यशस्वी हुए।
महाशय राजपाल को उन्हीं दिनों उक्त सभा में मांस-भक्षण विषय पर एक मुसलमान युवक से शास्त्रार्थ करना पड़ा। उस युग के सभी आर्यसमाजी कार्यकर्ता आवश्यकता पड़ने पर लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ करने से पीछे नहीं हटते थे। सब आर्यपुरुष स्वाध्यायशील हुआ करते थे। उन दिनों अमृतसर में धार्मिक विषयों पर बड़े-छोटे शास्त्रार्थ होते ही रहते थे। आर्य समाज के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी मास्टर आत्माराम जी तथा इस्लाम के नामी शास्त्रार्थ-महारथी मौलाना सनाउल्ला दोनों ही अमृतसर के थे।
उस दिन शास्त्रार्थ में श्रोताओं को राजपाल जी के गहन व विस्तृत अध्ययन का पता चला। अपनी छोटी-सी आयु में आपने धर्म-ग्रंथों का बहुत लगन से अनुशीलन किया था, इसीलिए आप इस शास्त्रार्थ में विजयी रहे।
उस युग का, विश्व का सबसे बड़ा आर्यसमाजी प्रकाशन-संस्थान ‘आर्य पुस्तकालय-सरस्वती आश्रम’ था। यह ठीक है कि यह संस्थान किसी भव्य भवन में तो नहीं था, परन्तु भव्य भावनाओं से जनित, पालित व पोषित यह पुस्तकालय श्रद्धा का केन्द्र था। यह पुस्तकालय पुराने पंजाब के आर्यों का संगम-स्थल था।
राजपाल जी युवावस्था में ही सदाचारी व परोपकारी थे। उनके सम्पर्क में आने वाले सब लोग उनके सौजन्य की प्रशंसा किया करते थे। वे परिश्रमी व सत्यनिष्ठ तो थे ही, साथ ही उनमें विनम्रता व मिठास के दो गुण ऐसे थे, जिनके कारण वे बेगानों को भी अपना बनाना जानते थे। वे दूसरों को प्रायः ‘जी’ कहकर सम्बोधित किया करते थे। उनके स्वभाव के माधुर्य पर सब रीझ जाते थे।
स्वतंत्रता के पहले पंजाब में हिन्दी का प्रचलन बहुत कम था, हिन्दी के प्रकाशक तो नगण्य थे। अधिकतर पुस्तकें उर्दू या पंजाबी में प्रकाशित होती थीं। उस काल में महाशय राजपाल ने ‘आर्य पुस्तकालय’ तथा ‘सरस्वती आश्रम’ नामों के अन्तर्गत हिन्दी प्रकाशन का न केवल श्रीगणेश किया, बल्कि वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार के सशक्त माध्यम बने। पहले, जब पुस्तक प्रकाशन बिल्कुल अव्यवस्थित था। प्रकाशन कला सीखने के लिए आज की तरह न कोई सुविधाएं थीं, न ही इस विषय पर कोई प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध थी, राजपाल जी ने स्तरीय प्रकाशन के ऐसे आयाम स्थापित किए कि आज उन पर विश्वास करना भी कठिन लगता है। लाहौर में रहते हुए उन्होंने अनेक पुस्तकें इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध 'इंडियन प्रेस' से छपवाई थीं।
राजपाल जी ने जब ‘आर्य पुस्तकालय’ नाम से आर्य साहित्य प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया था तो ‘सरस्वती आश्रम ग्रन्थमाला’ के रूप में एक से एक उत्तम पुस्तक-श्रृंखला जनता को भेंट की। इस ग्रंथमाला की दूसरी पुस्तक थी ‘सत्योपदेश माला’। यह स्वामी सत्यानन्द के प्रवचनों व लेखों का संग्रह था, जो राजपाल जी ने स्वयं स्वामी जी के प्रवचनों को सुनकर लिपिबद्ध किया था। राजपाल जी ने उस समय की अंग्रेज़ी भाषा की चर्चित पुस्तकों के प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे, जैसे- 'मेरी स्टोप्स' की लोकप्रिय पुस्तक ‘मेरिड लव’ का पं. संतराम बी. ए. द्वारा हिन्दी अनुवाद 'विवाहित प्रेम' नाम से। दूसरी ओर ऐसे विषयों की पुस्तकों को हिन्दी में प्रकाशित करने का साहस भी किया, जो वर्जित थे। भारत में परिवार-नियोजन पर सबसे पहली हिन्दी पुस्तक ‘सन्तान संख्या का सीमा बन्धन’ उन्होंने प्रकाशित की थी। यह 300 पृष्ठों की सचित्र प्रामाणिक पुस्तक थी। ‘बर्थ कंट्रोल’ के लिए तब हिन्दी का कोई शब्द प्रचलित नहीं हुआ था, क्योंकि जनसाधारण में जन्म निरोध की न समझ थी और न ही उसकी उपयोगिता का ज्ञान था। पुस्तक प्रकाशित होने पर बावेला मचा था, कि पुस्तक का विषय ही अनैतिक है, आदि।
उन्हीं दिनों मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें प्रकाशित की गईं- ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ और ‘उन्नीसवीं सदी का महर्षि’। उन दोनों पुस्तकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण और महर्षि दयानन्द पर बहुत ही भद्दे और अश्लील शब्दों में कीचड़ उछाला गया था। जैसा कि उस समय का चलन था, इन दोनों पुस्तकों के प्रत्युत्तर में महाशय राजपाल जी ने ‘रंगीला रसूल’ नाम की पुस्तक सन् 1923 में प्रकाशित की। इस पुस्तक के लेखक के नाम के स्थान पर ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ लिखा था। वास्तव में इसके लेखक आर्य समाज के प्रसिद्ध विद्वान पं. चमूपति थे, जो सम्भावित प्रतिक्रिया के कारण अपना नाम नहीं देना चाहते थे। उन्होंने महाशय राजपाल जी से यह वचन ले लिया था कि चाहे कितनी भी विकट परिस्थितियां क्यों न बनें, वे किसी को भी उक्त पुस्तक के लेखक के रूप में उनका नाम नहीं बताएंगे।
राजपाल एण्ड सन्स, हिन्दी पुस्तकों के एक प्रमुख प्रकाशक हैं जिसकी स्थापना 1912 में लाहौर में महाशय राजपाल ने ही की थी। आरम्भ में इस प्रकाशन ने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी तथा पंजाबी भाषाओं में आध्यात्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित कीं। भारत के विभाजन के उपरान्त 1947 में यह प्रकाशन दिल्ली आ गया और भारत के प्रमुख हिन्दी प्रकाशक के रूप में जाने जाने लगा।
महाशय राजपाल की विलक्षण सूझ को वही लोग जानते हैं, जिन्होंने उनके द्वारा प्रकाशित व सम्पादित पुस्तकों की उनके द्वारा लिखित भूमिकाएँ पढ़ी हैं। उनके द्वारा स्थापित आर्य पुस्तकालय व सरस्वती आश्रम का एक गौरवपूर्ण इतिहास है। आर्य सामाजिक साहित्य की कई ऐसी पुस्तकें हैं, जो अपने-अपने विषय की बेजोड़ पुस्तकें मानी जाती हैं। ऐसी बीसियों पुस्तकों को लिखने का विचार उन पुस्तकों के लेखकों को महाशय राजपाल जी ने ही सुझाया। महाशय जी ने ‘भक्ति दर्पण’ नाम का एक गुटका स्वयं सम्पादित किया था। सन 1997 में ‘राजपाल एण्ड संस’ ने इसका 60 वाँ संस्करण निकाला था। प्रकाशक समय-समय पर इसका संशोधन करते करवाते रहे हैं।
सन् 1920 और 1930 के दशक में महाशय राजपाल ने चार भाषाओं में एक साथ स्तरीय पुस्तकें प्रकाशित कीं। हिन्दी और उर्दू में उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 200 से ऊपर थी।
महाशय राजपाल जी स्वयं अच्छे लेखक एवं कुशल सम्पादक भी थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें स्वयं लिखीं तथा अन्य सुयोग्य लेखकों के लेखों तथा भाषणों को लिपिबद्ध करके और सम्पादित करके प्रकाशित किया। स्वामी श्रद्धानन्द के पत्र ‘सद्धर्म-प्रचारक’ में वे सहायक सम्पादक थे। कालान्तर में वे लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'प्रकाश' के वर्षों सह-सम्पादक रहे। इसी पृष्ठभूमि के साथ उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में तब पदार्पण किया, जब इस व्यवसाय में संघर्ष और जोखिम अधिक था, पैसा कम। परन्तु उस काल में वही लोक प्रकाशन में आते थे, जो आदर्शवादी थे और अपनी धुन के पक्के, और जो पुस्तकों के माध्यम से सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना जगाना चाहते थे। लगभग पन्द्रह वर्षों के अपने छोटे से प्रकाशकीय जीवन काल में उन्होंने न केवल हिन्दी पुस्तकों के प्रकाशन में नए कीर्तिमान स्थापित किए, अपितु सुदूर देशों में बसे भारतीय मूल के लोगों तक उन्हें पहुंचाने का भी योजनाबद्ध ढंग से सफल प्रयत्न किया। उनके जीवन काल में उनके प्रकाशन मॉरिशस, फिजी, पूर्वी अफ्रीका, ब्रिटिश तथा डच गयाना आदि स्थानों पर बड़ी संख्या में जाते थे। पुस्तकों के माध्यम से भारतीय विचारधारा और संस्कृति के संदेशवाहक साहित्य के निर्यात में भी उनकी ऐतिहासिक भूमिका रही थी। श्रेष्ठ साहित्य के प्रकाशन के इतिहास में महाशय राजपाल का नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। उन्होंने न केवल वैदिक धर्म के बारे में, उत्तम साहित्य के प्रकाशन में नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए वरन् समाज सुधार व राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के आन्दोलनों को बल प्रदान करते हुए सैकड़ों महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी किया।[1]
महाशय राजपाल जी द्वारा प्रकाशित अनेक पुस्तकों पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने मुकदमा चलाया था। जुर्माने किए और ऐसी पुस्तकों के संस्करण भी जब्त कर लिए। इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् भाई परमानन्द ने, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काले पानी की सजा दी थी, इतिहास की अनेक पुस्तकें राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखी थीं। ये सभी पुस्तकें राजपाल जी ने प्रकाशित की थीं। इनमें से ‘तारीख-ए-हिन्द’ (भारत का इतिहास) पुस्तक छपते ही जब्त की गई और मुक़दमा भी चला। इसी तरह एक अन्य पुस्तक 'देश की बात', जो हिन्दी में प्रकाशित हुई थी, उस पर बनारस के कोर्ट में मुकदमा चला, जिसके सिलसिले में उन्हें अनेक बार लाहौर से बनारस की यात्राएं करनी पड़ीं। अन्य भी ऐसी अनेक पुस्तकें थीं, जिनके प्रकाशन के कारण वे ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने, जैसे- डॉ. सत्यपाल द्वारा लिखित ‘पंजाब-बीती अथवा जलियाँवाला बाग का हत्याकांड’, ‘कालेपानी के कारावास की कहानी’ (भाई परमानन्द) इत्यादि।
मृत्यु
संपादित करें२०वीं सदी के पहले तीन दशक अर्थात् सन 1930 तक विभिन्न धर्मों में एक दूसरे की तीखी आलोचना, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ, बहस-मुबाहसों का चलन था। एक धर्मावलम्बी अन्य धर्मों के मन्तव्यों पर दो टूक भाषा में लिखा करता था और अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करता था। 'रंगीला रसूल' के प्रकाशन के बाद से महाशय राजपाल जी पर तीन जानलेवा हमले हुए, जिसमें 6 अप्रैल, 1929 का आक्रमण राजपाल जी के लिए प्राणलेवा बना।
महाशय राजपाल ने प्रकाशन की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दी। उन्होने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की, पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान पर आँच तक न आने दी। 1924 में छपी 'रंगीला रसूल' बिकती रही, पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया। फिर महात्मा गाँधी ने इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा।[2] इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। ब्रिटिश सरकार ने उनके विरुद्ध 153 ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा 1000 रुपये का दण्ड सुनाया। इस निर्णय के विरुद्ध अपील करने पर दण्ड एक वर्ष तक कम कर दिया गया। इसके पश्चात् मामला हाई कोर्ट में गया।
दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुस्लिम समुदाय इस निर्णय से भड़क उठा। ख़ुदाबख्श नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया, जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे। पर संयोग से आर्य संन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वहां उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा कि वह छूट ना सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया। उसे सात वर्ष का दण्ड मिला। रविवार 8 अक्टूबर, 1927 को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नामक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू, एक हाथ में उस्तरा लेकर आक्रमण कर दिया। स्वामी जी को घायल कर वह भागना ही चाह रहा था कि पड़ोस के दुकानदार महाशय नानकचन्द जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए, तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला, पर उसे चौक अनारकली पर पकड़ लिया गया। उसे १४ वर्ष का दण्ड मिला ओर तदनन्तर तीन वर्ष के लिए शान्ति की गारन्टी का दण्ड सुनाया गया।
6 अप्रैल, 1929 को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर विश्राम कर रहे थे, तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोंप दिया, जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणान्त हो गया। हत्यारा अपने प्राण बचाने के लिए भागा और महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में छुप गया। महाशय जी के सपूत विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गयी। उसे लाहौर उच्च न्यायालय से फ़ाँसी की सजा हुई थी।
महाशय जी की हत्या का समाचार आग की तरह फैल गया। उनकी शवयात्रा में हजारों हिन्दू शामिल हुए। उनके बच्चे बहुत छोटे थे। अतः डी.ए.वी. संस्थाओं के संचालक महात्मा हंसराज जी ने मुखाग्नि दी। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने अन्तिम प्रार्थना कराई। महाशय जी की धर्मपत्नी सरस्वती जी ने कहा कि अपने पति के मारे जाने का मुझे बहुत दुख है; पर यह गर्व भी है कि उन्होंने धर्म और सत्य के लिए बलिदान दिया। विभाजन के बाद महाशय जी के परिजन दिल्ली आकर प्रकाशन के काम में ही लग गये। जून 1998 में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने पहले ‘फ्रीडम टु पब्लिश’ पुरस्कार से स्वर्गीय राजपाल जी को सम्मानित किया। पुरस्कार उनके पुत्र विश्वनाथ जी ने ग्रहण किया।[3]
१९२४ से १९२९ तक के पाँच वर्षों के दौरान उन्हें अनेक बार यह कहा गया कि आप असली लेखक का नाम बता दें, तो हमें आपसे कोई शिकायत नहीं रहेगी। यह बात उस ज़माने के प्रमुख मुस्लिम दैनिक पत्र ‘ज़मींदार’ में भी प्रकाशित हुई थी, परन्तु महाशय राजपाल जी ने एक ही बात दोहराई थी कि इस पुस्तक के लेखन-प्रकाशन की पूरी जिम्मेदारी मेरी ही है, अन्य किसी की नहीं। उन्होंने जो वचन दिया, उसे अन्त तक निभाया। इन पाँच वर्षों के दौरान उन्हें यह भी कहा गया था कि आप इस पुस्तक का प्रकाशन बन्द कर दें और माफ़ी मांग लें। राजपाल जी ने एक ही उत्तर दिया कि "मैं विचार-स्वातंत्र्य और प्रकाशन की स्वतंत्रता में विश्वास रखता हूँ और अपनी इस मान्यता के लिए बड़े से बड़ा दण्ड भुगतने के लिए तैयार हूँ।"
महाशय राजपाल जी ने प्रकाशन की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दी।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ धर्म की बलिवेदी पर (प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु द्वारा रचित महाशय राजपाल की बलिदान गाथा)
- ↑ "गांधी जी का लेख और उसकी प्रतिक्रियाप". मूल से 10 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 10 अगस्त 2019.
- ↑ "सत्य पथ के बलिदानी महाशय राजपाल". मूल से 10 अगस्त 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 10 अगस्त 2019.
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- हुतात्मा महाशय राजपाल की बलिदान-गाथा एवं रंगीला रसूल
- धर्म की बलिवेदी पर : महाशय राजपाल जी की बलिदान-गाथा (प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु)