महेश नारायण (१८५८ से १९०७) हिन्दी कवि तथा सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे आधुनिक बिहार के निर्माता के रूप में भी जाने जाते हैं। सन १८८१ में २३ वर्ष की अवस्था में उन्होंने खड़ी बोली हिंदी में 'स्वप्न' नामक एक कविता की रचना की जिसका प्रकाशन पटना से प्रकाशित 'बिहार बंधु' में १३ अक्टूबर १८८१ को हुआ। यह खड़ी बोली हिंदी में रचित अपने समय की सबसे लम्बी कविता तो है ही, साथ ही हिन्दी भाषा के पूरे इतिहास में मुक्तछन्द की पहली कविता है।

उनके पिता मुंशी भगवतीचरण संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। उन्होंने महेश नारायण को शुरू से ही विकास का ऐसा वातावरण प्रदान किया जिसके कारण बचपन से ही उनके अन्दर कुछ कर गुजरने की चाह बनी रही। पटना से इन्ट्रैन्स की परीक्षा पास करने के बाद वह उच्च शिक्षा के लिये कोलकाता चले गए। बीए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वे वापस अपने बड़े भाई गोविन्दचरण के पास पटना आ गए। तथा उसके बाद उन्होंने 'बिहार टाइम्स' और 'कायस्थ गजेट' का प्रकाशन किया।

उन्होने हिंदी और अँग्रेजी दोनो में अनेक निबन्धों और कविताओं की रचना की। लेकिन उनकी रचना के केन्द्र में आम आदमी के जीवन की समस्याएँ ही रहीं तथा इसी क्रम में उन्होंने समाज और राष्ट्र की समस्याओं को उठाया। हिंदी भाषा जनता की अस्मिता के लिये उन्होंने लगातार हिन्दी की वकालत की तथा अपने द्वारा संपादित पत्रों के संपादकीय में भारतीय राष्ट्रीयता के सवाल को उठाया।

हिन्दी की प्रथम छन्दमुक्त कविता

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१३ अक्टूबर १८८१ को 'बिहारबन्धु' में 'स्वप्नभंग' नाम से उन्होने एक बड़ी कविता छपवायी। महेश नारयण की यह कविता हिन्दी की पहली मुक्तछन्द कविता है-[1]

बिजली की चमक से रोशन हुआ चेहरा,
देखा तो परी है, ताजों से भरी है।
घुंघराले बाल, मखमल से दो गाल,
तथा नाजुक उसका कुछ था मलाल।

बाहरी कड़ियाँ

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