पृथ्वी के सतह के किसी भाग के स्थानों, नगरों, देशों, पर्वत, नदी आदि की स्थिति को पैमाने की सहायता से कागज पर लघु रूप में बनाना मानचित्रण कहलाता हैं। मानचित्र दो शब्दों मान और चित्र से मिल कर बना है जिसका अर्थ किसी माप या मूल्य को चित्र द्वारा प्रदर्शित करना है। जिस प्रकार एक सूक्ष्मदर्शी किसी छोटी वस्तु को बड़ा करके दिखाता है, उसके विपरीत मानचित्र किसी बड़े भूभाग को छोटे रूप में प्रस्तुत करते हैं जिससे एक नजर में भौगोलिक जानकारी और उनके अन्तर्सम्बन्धों की जानकारी मिल सके। मानचित्र को नक्शा भी कहा जाता है।

विश्व का मानचित्र (२००४, सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक)

आजकल मानचित्र केवल धरती, या धरती की सतह, या किसी वास्तविक वस्तु तक ही सीमित नहीं हैं। उदाहरण के लिये चन्द्रमा या मंगल ग्रह की सतह का मानचित्र बनाया जा सकता है; किसी विचार या अवधारणा का मानचित्र बनाया जा सकता है; मस्तिष्क का मानचित्रण (जैसे एम आर आई की सहायता से) किया जा रहा है।

परिचय

मानचित्र किसी चौरस सतह पर निश्चित मान या पैमाने और अक्षांश एवं देशांतर रेखाओं के जाल के प्रक्षेप के अनुसार पृथ्वी या अन्य ग्रह, उपग्रह, अथवा उसके किसी भाग की सीमाएँ तथा तन्निहित विशिष्ट व्यावहारिक, या सांकेतिक, चिह्नों द्वारा चित्रण या परिलेखन मानचित्र कहलाता है। अत: प्राय: मानचित्र किसी बड़े क्षेत्र का छोटा प्रतिनिधि रूपचित्रण है, जिसमें अंकित प्रत्येक बिंदु मानचित्र क्षेत्र पर स्थित बिंदु का संगत बिंदु होता है। इस प्रकार मानचित्र तथा मानचित्रित क्षेत्र में स्थैतिक या स्थानिक सम्यकता स्थापित हो जाती है। मानचित्र पर भूआकृति या वस्तुस्थिति के प्रदर्शन के निमित्त प्रयुक्त प्रत्येक चित्र, चिह्न या आकृति एक विशिष्ट स्थिति का बोध कराते हैं और प्रचलन एवं उपयोग में रहने के कारण इन रूढ़ चिह्नों का एक सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय विधान सा बन गया है। इस प्रकार के चिह्नों के उपयोग से किसी भी भाषा के अंकित मानचित्र, बिना उस भाषा के ज्ञान के भी ग्राह्य एवं पठनीय हो जाते हैं।

उद्देश्यविशेष की दृष्टि से विभिन्न विधियों द्वारा रेखाओं, शब्दों, चिह्नों, आदि का उपयोग किया जाता है, जिससे मानचित्र की ग्राह्यता एवं उपादेयता बढ़ जाती है। मानचित्र निर्माण के कला में पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर द्वितीय महायुद्ध काल तथा परवर्ती काल में प्रचुर प्रगति हुई है और संप्रति कम से कम शब्दालेख के साथ मानचित्र में विभिन्न प्रकार के तथ्यों का सम्यक्‌ परिलेखन संभव हो गया है। किसी मानचित्र में कितने तथ्यों का ग्राह्य समावेश समुचित रूप से किया जा सकता है, यह मानचित्र के पैमाने, प्रक्षेप तथा मानचित्रकार की वैधानिक क्षमता एवं कलात्मक बोध आदि पर निर्भर करता है।

मानचित्र वस्तुत: त्रिविम (three dimensional) भूतल का द्विविम (two dimensional) चित्र प्रस्तुत करता है। मानचित्र में किसी क्षेत्र के वैसे रूप का प्रदर्शन किया जाता है जैसा वह ऊपर से देखने में प्रतीत होता है। अत: प्रत्येक मानचित्र में द्विविम स्थितितथ्य, अर्थात्‌ वस्तु की लंबाई, चौड़ाई चित्रित होती है, न कि ऊँचाई या गहराई। उदाहरणस्वरूप, साधारणतया धरातल पर स्थित पर्वत, मकान या पेड़ पौधों की ऊँचाई मानचित्र पर नहीं देख पाते और न ही समुद्रों आदि की गहराई ही देख पाते हैं, लेकिन संप्रति भू-आकृति का त्रिविम प्रारूप प्रदर्शित करने के लिये ब्लॉक चित्र (block diagrams) तथा उच्चावच मॉडल (relief model) आदि अत्यधिक सफलता के साथ निर्मित किए जा रहे हैं।

हिंदी का शब्द 'मानचित्र' 'मान' तथा 'चित्र' दो शब्दों का सामासिक रूप है, जिससे मान या माप के अनुसार चित्र चित्रित करने का स्पष्ट बोध होता है। इस प्रकार यह अंग्रेजी के मैप (map) शब्द की अपेक्षा जो स्वयं लैटिन भाषा के मैपा (mappa) शब्द से (जिसका अर्थ चादर या तौलिया होता है) बना है, अधिक वैज्ञानिक एवं अर्थबोधक है। मानचित्र के साथ ही चार्ट (chart) एवं प्लान (plan) शब्दों का उपयोग होता है। चार्ट शब्द फ्रेंच भाषा के कार्ट (carte) शब्द से बना है पहले बहुधा चार्ट एवं मानचित्र शब्दों का उपयोग एक दूसरे के अर्थ में हुआ करता था, परंतु अब 'चार्ट' का उपयोग महासागरीय या वायुमंडलीय मार्गों अथवा जल या हवा की तरंगों एवं उनके मार्गो को अंकित करने के लिये हाता है।

समुद्र पर जहाजों के तथा वायुमंडल में वायुयानों में मार्ग चार्ट पर प्रदर्शित किए जाते हें। मानचित्र और प्लान में भी व्यावहारिक अंतर हो गया है। प्लान, साधारणतया उद्देश्य विशेष के लिये अपेक्षाकृत छोटे भाग को ठीक ठीक मापकर तैयार किए गए चित्र को कहते हैं। उदाहरणस्वरूप, भवन-निर्माण-कला-विशेषज्ञ द्वारा भवन का प्लान तैयार किया जाता है, जिसमें उसकी बाहरी सीमा ही नहीं अंदर के कमरों, दरवाजों, खिड़कियों आदि के स्थानविशेष भी अंकित रहते हैं। प्लान, मानचित्र की अपेक्षा अधिक बड़े पैमाने पर तैयार किए जाते हैं।

मानचित्र की उपयोगिता

मानचित्र अनेक प्रकार के होते हैं और अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। प्रति इकाई स्थान का मानचित्र किसी अन्य प्रकार के वर्ण या आलेखन की अपेक्षा अधिक तथ्यसूचक एवं समावेशी होता है। हजारों शब्दों में भी जिस तथ्य का ठीक ठीक वर्णन कर ज्ञान नहीं करा सकते, उसका ज्ञान वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया एक छोटा मानचित्र सुविधा से करा सकता है। इसलिये आजकल सभी प्रकार के ज्ञान विज्ञान आदि संबंधी वस्तुस्थिति के बोध के लिये मानचित्रों तथा समानताबोधी आकृतियों, चित्रों आदि का अधिकाधिक उपयोग हो रहा है।

भूगोल तथा मानचित्र में घनिष्ट संबंध है। भूगोल का अध्ययन और अध्यापन दोनों मानचित्र के बिना अधूरे तथा असंभव से लगते हैं। मानचित्र द्वारा विभिन्न तथ्यों की स्थिति, विस्तार अथवा वितरण एवं पारस्परिक स्थैतिक संबंधों का समुचित एवं सहज ज्ञान हो जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि हमें देशविशेष या उसके विभिन्न प्रशासनिक विभागों की कुल जनसंख्या का ज्ञान हो, तो भी उस ज्ञान से हमें जनसंख्या के वास्तविक वितरण का बोध नहीं हो पाता, किंतु उसी ज्ञान को मानचित्र पर अंकित करने पर न केवल वितरण का प्रत्युत क्षेत्रीय या स्थानीय जनसंकुलता के विभिन्न परिमाण भी स्पष्ट ज्ञान सहज ही हो जाता है। अत: मानचित्र के द्वारा पृथ्वी की वस्तुस्थितियों का जितना ज्ञान विहंगम दृष्टिमात्र से ही हो जाता है उतना पुस्तकीय अथवा किसी अन्य साधन द्वारा संभव नहीं है। भूगोल में वस्तुस्थिति के वितरण का विशेष अध्ययन होता है, इसलिये मानचित्र को अधिकाधिक महत्व प्रदान किया जाता है। सैनिक विज्ञान में भी मानचित्र को समुचित महत्व दिया जाता है।

प्रशासनिक कार्यों तथा योजनाओं में भी मानचित्र अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। राष्ट्र या राज्यों अथवा विभिन्न प्रशासनिक विभागों तथा उपविभागों के सीमानिर्धारण के लिये ही नहीं, प्रत्युत प्रत्येक खंड के विभिन्न प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों के वितरण के मानचित्र भी सुचारु प्रशासन के लिये आवश्यक है। योजना संबंधी कार्यों के लिये विभिन्न मानवीय तथा प्राकृतिक संसाधनों के वितरण का ज्ञान भी आवश्यक है, जिसके आधार पर संतुलित तथा वैज्ञानिक रूप से और प्रादेशिक या क्षेत्रीय दृष्टि से आर्थिक समुन्नति के लिये योजनाएँ बनाई जाएँ। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्राकृतिक अवयवों के पारस्परिक पारिस्थितिक (ecological) संबंधों एवं निर्भरता के बोध के लिये मानचित्र सर्वश्रेष्ठ साधन है। उदाहरणस्वरूप, जलवायु के विभिन्न अवयवों, ताप, आर्द्रता, वृष्टि, आदि का संबंध मिट्टी, वानस्पतिक तथा जैविक प्रकारों से मानचित्र द्वारा प्रकट किया जा सकता है और उस संकलित चित्र का संबंध जनसंख्या के वितरण से स्थापित किया जा सकता है। सैन्य संचालन, पर्यटन, यातायात, व्यापार, व्यवसाय आदि, सभी क्षेत्रों में मानचित्र का महत्व अधिक है।

20वीं सदी के उत्तरार्ध में जब मनुष्य महासागरों के तल तथा अंतरिक्ष के ग्रह उपग्रहों तक अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलतापूर्वक सचेष्ट हैं, न केवल पृथ्वी के ही प्रत्युत अन्य ग्रह उपग्रहों के मानचित्र तैयार करने की आवश्यकता बढ़ गई है।

  • मानचित्र पूरे विश्व से लेकर छोटे-से-छोटे स्थान की भौगोलिक जानकारी के लिये एक सन्दर्भ का काम करता है।
  • मानचित्र किसी अज्ञात स्थान के लिये मार्गदर्शक और दिग्दर्शक का काम करता है।
  • थल, जल या वायु मार्ग से यात्रा करने में यात्रा के मार्ग की योजना बनाने और उस मार्ग पर बने रहने में सहायक
  • नगर या ग्राम की भावी विकास की योजना बनाने के लिये
  • सेना अपनी कार्यवाही (आपरेशन), सैनिकों की तैनाती, शत्रु की स्थिति का आकलन एवं शस्त्रास्त्रों की तैनाती के लिये भी मानचित्र का अत्यधिक उपयोग करती है।
  • भूमि के स्वामित्व, न्यायाधिकरण एवं कर निर्धारण के लिये सरकार मानचित्र पर निर्भर करती है।
  • पुलिस, अपराधों का मानचित्रण करके पता करती सकती है कि अपराधों में कोई पैटर्न है।
  • इसी प्रकार डॉ जॉन स्नो ने लन्दन में हैजा फैलने पर मानचित्र की सहायता से ही यह अनुमान लगा लिया था कि इसके लिये एक सार्वजनिक जल पम्प जिम्मेदार थी।

मानचित्र पठन के लिये आवश्यक बातें

मानचित्र भूतल पर स्थित किसी वास्तविक तथ्य को नहीं प्रदर्शित करते, केवल चिह्नविशेष द्वारा कागज या अन्य तल पर पृथ्वी के संगत बिंदू की स्थिति दिखाते हैं। इस सत्य का ज्ञान न होने से भ्रांति उत्पन्न होती है।

मानचित्र समतल होते हैं, परंतु पृथ्वी या अन्य ग्रह उपग्रह, या उसका कोई भाग, गोलक अर्थात्‌ गोले का भाग होता है, पर गोलक (globe) को समतल पर ठीक ठीक नहीं प्रकट किया जा सकता, अत: इस चेष्टा में मानचित्र के विभिन्न भागों में आकृति की विकृति होती है। प्रक्षेप के द्वारा विभिन्न प्रकार से अक्षांश एवं देशांतर रेखाओं का जाल तैयार कर मानचित्र बनाया जाता है (देखें प्रक्षेप)। अत: मानचित्र के पठन के लिये पृथ्वी के विभिन्न भागों की मानचित्र पर उतारी हुई सापेक्षिक स्थिति, दिशा, दूरी तथा विस्तार आदि का ज्ञान होना आवश्यक है।

मानचित्र के संबंध में दो बातें आवश्यक हैं :

(1) मानचित्र का पठन, अर्थात्‌ पृथ्वी के विषय में मानचित्र पर अंकित तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करना, तथा

(2) मानचित्र की रचना, जिसके अंतर्गत, मानचित्र तैयार करने की विधियों को सीखना तथा आँकड़ों, मापक, प्रक्षेप, व्यावहारिक एवं सांकेतिक चिह्नों, रंगों आदि का ज्ञान प्राप्त करना आता है।

मानचित्र का वर्गीकरण और प्रकार

मानचित्र अनेक प्रकार के होते है और उन्हें हम कई प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं :

1. साधारण मानचित्र

2. विशिष्ट विषयात्मक मानचित्र।

साधारण मानचित्र में मानचित्र क्षेत्र की सभी साधारण प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों का समावेश रहता है, जैसे पर्वत, नदी, प्रशासनिक विभाग, नगर, परिवहन के साधन आदि। विशिष्ट विषयात्मक मानचित्रों में उद्देश्य विशेष से कुछ निश्चित प्रकार के तथ्यों का समावेश रहता है, जैसे जनसंख्या का वितरण मानचित्र या फसलों के वितरण का मानचित्र। एक ही मानचित्र पर बहुत से या समस्त तथ्यों का प्रदर्शन एक तो असंभव है, दूसरे उससे विभिन्न तथ्यों के वितरण, विस्तार या सापेक्षिक महत्व आदि के विषय में भ्रांतियाँ हो जाती है, अत: विभिन्न तथ्यों की क्षेत्रीय सापेक्षिकता के ज्ञान के लिये एक ही पैमाने पर तैयार किए गए विभिन्न विषयात्मक मानचित्रों का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, किसी क्षेत्र के एक ही पैमाने पर, अलग अलग तैयार किए गए, वर्षा, ताप, मिट्टी, वनस्पति, फसलों तथा जनसंख्या के वितरण मानचित्रों का सहज ही तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है।

पैमाने तथा उद्देश्य के आधार पर

मानचित्रों को पैमाने तथा उद्देश्य के समाविष्ट तथ्यों की दृष्टि से इस प्रकार वर्गीकृत कर सकते है:

क. भूकर या पटवारी मानचित्र (Cadastral map) - ऐसे मानचित्र में भूमिस्वत्व, कृषि क्षेत्रों, भवन तथा अन्य भूमिसंपत्ति का सविस्तार समावेश रहता है। प्रशासन द्वारा व्यक्तिगत भूमि कर, आय कर, भवन कर आदि, वसूल करने में इससे सुविधा मिलती है। हमारें गावों के मानचित्र प्राय: 16 इंच, परंतु कभी कभी 32 इंच तथा 64 इंच, प्रति मील के पैमाने पर बने रहते हैं।

ख. भू-आकृति (Physiographic) मानचित्र - ये मानचित्र शुद्ध सर्वेक्षण विधियों द्वारा ठीक ठीक सर्वेक्षण करके तैयार किए जाते हैं। भारत के सर्वेक्षण विभाग के मानचित्र इसी प्रकार के होते हैं। इनमें धरातल पर के महत्वपूर्ण प्राकृतिक तथ्य, जैसे पर्वत, पठार, उच्चावचन, नदी, वनस्पति आदि तथा सांस्कृतिक, अर्थात्‌ मानव द्वारा निर्मित वस्तुएँ, जैसे भवन, ग्राम, नगर, परिवहन के साधन, आदि प्रदर्शित किए जाते हैं। साधारणतया इनका पैमाना एक इंच बराबर एक मील (द्योतक भिन्न 1:63,360) के रूप में होता है, किंतु 1/2 इंच या 1/4 इंच बराबर एक मील के भी मानचित्र होते हैं। विदेशी मानचित्रों के पैमाने भी भिन्न भिन्न होते हैं। अधिकांश यूरोपीय देशों के भू-आकृति मानचित्रों के पैमानों के द्योतक भिन्न 1:25,000 या 1:1,00,000 या इनके गुणक के रूप में होते हैं। संयुक्त राज्य (अमरीका) में 1:62,500 या 1:1,25,000, के द्योतक भिन्न पर भू-आकृति मानचित्र बने हैं। मेट्रिक प्रणाली के अपनाने से भारत के सर्वेक्षण मानचित्र भी 1:50,000 द्योतक भिन्न के पैमाने पर परिवर्तित किए जा रहे हैं। 1:10,00,000 (1इंच बराबर लगभग 15.78 मील) के मानचित्र भी इसी प्रकार के हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मानचित्र कहते हैं।

ग. दीवारी मानचित्र (Wall maps) - भू-आकृति मानचित्रों की अपेक्षा इनका पैमाना छोटा होता है। इसमें भी प्रमुख प्राकृतिक तथा मानवनिर्मित निर्माणों का आलेख रहता है और इसलिये इनका अधिकांश उपयोग कक्षाओं में अध्ययन अध्यापन के लिये होता है।

घ. ऐटलस मानचित्रावली - ये मानचित्र अपेक्षाकृत बहुत छोटे पैमाने पर तैयार किए जाते हैं और दीवारी मानचित्रों की तरह ही इनमें विभिन्न प्राकृतिक तथा मानव द्वारा निर्मित निर्माणों का समावेश रहता है। छोटा पैमाना होने के कारण प्राय: प्रमुख प्रशानिक खंडों एवं विभागों ने भी राष्ट्रीय या प्रादेशिक ऐटलस तैयार किए हैं और कर रहे हैं। भारत में भी केंद्रीय सरकार ने एक महती राष्ट्रीय ऐटलस योजना बनाई है, जिसका केंद्र कलकत्ता है और जो भूगोलविदों के प्रबंध में सफलतापूर्वक चल रही है।

उद्देश्य तथा समाविष्ट तथ्य के आधार पर

उद्देश्य एवं तथ्य के अनुसार भी मानचित्रों के अनेक प्रकार होते हैं। ऐसे मानचित्रों में जिस तथ्यविशेष का समावेश रहता है, उसी के अनुसार उनका नामकरण होता है; उदाहरणस्वरूप, ग्रह उपग्रहों एवं अंतरिक्ष की स्थिति प्रदर्शक मानचित्र, 'ज्योतिष मानचित्र' कहलाता है, किंतु जब कई तथ्य प्रदर्शित किए जाते हैं और उनमें विषयात्मक संबद्धता रहती है, तो मूल विषय पर नामकरण होता है; उदाहरणस्वरूप, जब किसी मनचित्र में ताप, हवा, जल या हिमवृष्टि या मौसम संबंधी तत्व साथ साथ समाविष्ट रहते हैं, तो उसे ऋतुदर्शक मानचित्र (Weather map) कहते है। कुछ प्रमुख तथ्यात्मक (thematic) मानचित्र निम्न हैं :

1. ज्योतिष (astronomical) मानचित्र;

2. उच्चावचन (relief) मानचित्र;

3. भूवैज्ञानिक (geological) मानचित्र : इसमें भूगर्भिक-स्थितियों, चट्टानों, खनिज पदार्थों तथा मिट्टी आदि एवं उनका विस्तार आदि का समावेश रहता है;

4. समुद्र की गहराई (bathymetric) मापन मानचित्र : इनमें समुद्रों, महासागरों या बड़ी झीलोंश् आदि की समुद्र तल से गहराई तथा उनके वितल (floor) की उँचाई निचाई प्रदर्शित की जाती है;

5. समुद्र एवं पर्वतीय (orographic) उच्चावचन मानचित्र : इनमें समुद्रों, महासागरों या झीलों की गहराई तथा पर्वतीय उँचाई निचाई का प्रदर्शन रहता है;

6. ऋतु या मौसम सूचक मानचित्र;

7. जलवायु मानचित्र -- इनमें अधिक कालावधि के ऋतु प्रकरणों की औसत दशाओं का वितरण दिखलाया जाता है;

8. वनस्पति एवं जीव संबंधी मानचित्र -- इनमें वनस्पति के विभिन्न प्रकार, जानवरों तथा मनुष्य आदि का वितरण दिखलाया जाता है;

9. राजनीतिक (political) मानचित्र : इनमें किसी राष्ट्र के विभिन्न स्तरीय प्रशासनिक खंडों, उपखंडों तथा उनके विभागों, उपविभागों, सीमाओं, प्रशासनिक केंद्रों आदि का समावेश रहता है (विभिन्न राष्ट्रसमूह आदि का भी साथ साथ दिखलाए जाते हैं, जैसे राष्ट्रकुल के देश);

10. जनसंख्या संबंधी मानचित्र : इनमें विभिन्न विधियों द्वारा आबादी का वितरण दिखलाया जाता है प्रजाति के अनुसार मानव के वितरण मानचित्र का मानव जाति (ethnographic) मानचित्र कहते हैं;

11. आर्थिक (economic) मानचित्र -- इनमें मुख्यत: वन साधन, कृषि की फसलों, खनिज तथा औद्यागिक वस्तुओं का वितरण दिखलाया जाता है (इन्हें संसाधन (resource) मानचित्र भी कहते हैं। व्यापारिक महत्व की वस्तुएँ, तथा व्यापार में सहायक साधनों जैसे यातायात साधन आदि दिखलानेवाले मानचित्रों को व्यापारिक मानचित्र कहते हैं। वितरण दिखलानेवाले मानचित्रों को वितरण मानचित्र कहते हैं;

12. ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक मानचित्र -- इनमें प्राचीन ग्राम एवं नगर, प्राचीन राज्यों तथा साम्राज्यों की सीमा, युद्धस्थल, आक्रमण या रक्षा एवं यात्रा के मार्ग आदि का अंकन होता है तथा

13. सैनिक मानचित्र -- इनमें सैनिक महत्व के तथ्यों का अंकन होता है।

मानचित्र की भाषा

मानचित्र में शब्दों द्वारा कम से कम वस्तुस्थिति या तथ्य का आलेख होता है और उनके स्थान पर विविध विधियों का उपयोग होता है। उन विविध विधियों तथा चिह्नों को सामूहिक रूप से मानचित्र की भाषा की संज्ञा दे सकते हैं। इस भाषा के निम्नलिखित प्रमुख तत्व हैं:

पैमाना

मानचित्र में पृथ्वी या उसके खंड को छोटे रूप में प्रदर्शित करते हैं। अत: पृथ्वी तथा मानचित्र के मध्य जो आनुपातिक संबंध होता है, उसे पैमाने द्वारा प्रदर्शित करते हैं। पैमाने दो प्रकार के होते हैं : दीर्घ तथा लघु। दीर्घ पैमाने में दो बिंदुओं के मध्य की दूरी अपेक्षाकृत अधिक होगी। अत: दीर्घ पैमाने का मानचित्र लघु पैमाने के मानचित्र के अपेक्षा कम क्षेत्र घेरेगा, किंतु उसमें अधिक तथ्यों का समावेश स्पष्टतर ढंग से होगा। छोटे पैमाने में दो बिंदुओं की दूरी समीपतर होगी और अपेक्षाकृत कम या प्रमुख तथ्यों का ही समांकन ऐसे मानचित्रों में संभव है। पैमाने का चुनाव निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है : (क) मानचित्रित क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल, (ख) कागज का विस्तार, (ग) अंकित किए जानेवाले तथ्यों की संख्या एवं (घ) मानचित्र का प्रयोजन।

पैमाना प्रत्येक मानचित्र पर अवश्य अंकित रहना चाहिए। पैमाने तीन विधियों से प्रदर्शित किए जाते हैं, किंतु सभी विधियाँ प्रत्येक मानचित्र पर नहीं दिखलाई जाती : अ. साधारण विवरण द्वारा या लिखकर, जैसे 4 इंच = 1 मील; ब. रेखा द्वारा (इस विधि में सीधी रेखा को कई समान भागों में विभाजित करते हैं, जिनके बीच की दूरी धरातल पर के बिंदुओं की दूरी प्रदर्शित करती है। रेखा को प्राय: प्रमुख तथा गौण विभागों में विभाजित करते हैं), स. अनुपात द्योतक या प्रतिनिधि भिन्न द्वारा (representation), (इस विधि में दो बिंदुओं की दूरी तथा मानचित्रित भूखंड पर के संगती बिंदुओं की दूरी के अनुपात के ऐसी भिन्न द्वारा प्रदर्शित करते हैं, जिसका अंश एक रहता है और हर भी उसी माप की इकाई होता है। ऐसी भिन्न को घोतक भिन्न कहते हैं। 1/100 द्योतक भिन्न का अर्थ होगा कि पृथ्वी पर की प्रत्येक 100 इकाइयों का प्रदर्शन मानचित्र पर उसकी एक इकाई द्वारा किया गया है। चाहे उक्त इकाइयाँ, इंच, फुट, गज में हों अथवा सेंटीमीटर, मीटर में अथवा माप की अन्य इकाइयों में)

द्योतक भिन्न पैमाने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे अज्ञात भाषा के मानचित्र पर अंकित दो बिंदुओं की दूरी और पृथ्वी के आनुपातिक संबंध को ज्ञात किया जा सकता है। साधारण विवरण के पैमाने को द्योतक भिन्न मेें तथा द्योतक भिन्न को साधारण विवरण के पैमाने में परिवर्तित किया जा सकता है।

संकेतात्मक एवं रूढ़ चिह्न (symbols and conventional signs)

मानचित्र पर अधिकाधिक एवं विविध प्रकार के चिह्नों का उपयोग किया जाता है, जिनका हम दो भागों में वर्णन कर सकते हैं। सांकेतिक या प्रतीकात्मक चिह्न उन्हें कहते हैं जिन्हेें प्राय: विभिन्न व्यक्ति, विभिन्न रूप से, विभिन्न तथ्यों को प्रदर्शित करने के लिये उपयोग में लाते हैं। ये चिह्न रेखा, बिंदु, वृत्त, वर्ग, त्रिभुज आदि, विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों अथवा प्रतीकात्मक अक्षरोें द्वारा दिखलाए जाते हैं (देखें, नक्शा खींचना)

रूढ़ चिह्न भी संकेतात्मक होते है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्हें परंपरागत सर्वमान्यता प्राप्त है और तथ्यविशेष के लिये चिह्नविशेष का ही उपयोग होता है। उदाहरणस्वरूप, पक्की सड़क को हर देश के धरातलीय मानचित्र पर दो समांतर रेखाओं द्वारा तथा कच्ची सड़क को दो समांतर टूटी रेखाओं द्वारा दिखलाते हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानचित्रों की ग्राह्यता एवं उपादेयता बढ़ जाती है।

रंग

आजकल विभिन्न एवं अधिकाधिक तथ्यों को मानचित्र पर ग्राह्य एवं सुस्पष्ट बनाने के लिये विभिन्न रंगों या एक ही रंग के विभिन्न स्तरों या छायाओं का उपयोग बढ़ गया है। साधारण रंगीन मानचित्र में नीले रंग द्वारा नदियाँ तथा जलाशय, भूरे रंग द्वारा समोच्च रेखाएँ तथा अन्य ऊँचाइयाँ, लाल रंग द्वारा सड़कें तथा भवनादि, काले रंग द्वारा रेलमार्ग आदि, हरे रंग द्वारा वन या अन्य वनस्पतियाँ तथा पीले रंग द्वारा कृषिक्षेत्र प्रदर्शित किए जाते हैं।

भौगोलिक जाल

गोलक पर न कहीं आरंभ है और न कहीं अंत और न ही कोई प्रकृत निश्चित बिंदु (reference point) है, लेकिन पृथ्वी पर, जो स्वयं लगभग गोलाकार है, उसकी दैनिक एव वार्षिक गतियों तथा ग्रह उपग्रहीय अंत:संबंधों के कारण उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव बिंदु, निश्चित बिंदु हो जाते हैं और उसकी धुरी के जोड़ते हैं, जिसके सहायता से काल्पनिक ढंग से निश्चित किया हुआ अक्षाँश तथा देशांतर रेखाओं का रेखा जाल (net), जिसे भौगोलिक जाल कहते हैं, बनता है। पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण शुद्ध शुद्ध, ठीक ठीक दूरी पर खिंची अक्षांश तथा देशांतर रेखाओं का जाल मानचित्रों पर किसी स्थान की स्थिती निर्धारण के लिये आवश्यक है। यदि किसी स्थान विशेष की स्थिति 50° 25' 25² उo अo तथा70° 25' 15² पूo देo पर है, तो भौगोलिक जाल की सहायता सुगमता से इसकी स्थिति का निर्धारण हो सकता है। ये सारी रेखाएँ वृत्त अथवा वृत्त के भाग हैं और अंश (°) मिनट (') एवं सेकंड (²) में बंटी रहती है।

देशांतर रेखाएँ उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक खिंची रहती हैं और इस प्रकार अर्द्धवृत्त होती हैं। अंतरराष्ट्रीय समय के निर्धारण के लिये लंदन के समीप ग्रीनिच स्थान की वेधशाला से गुजरनेवाली देशांतर रेखा को प्रमुख देशांतर रेखा (prime meridian) कहते हैं। इससेश् पूर्व की देशांतर रंखाएँ पूर्व देशांतर तथा पश्चिम की देशांतर रेखाएँ पश्चिमी देशांतर रेखाएँ कहलाती है। 180° पूर्व या 180° पश्चिम देशांतर जो एक ही रेखा है, उसे अंतरराष्ट्रीय तिथिरेखा (International date line) कहते हैं, जहाँ पूर्व एवं पश्चिमी गोलार्धों की समयसारिणी निर्धारित होती है।

अक्षांश रेखाएँ उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों से समान दूरी पर पृथ्वी के चारों ओर खीचीं जाती है और वृत्त बनाती है। इनकी मध्य रेखा भूमध्य अथवा विषुवत (equator) रेखा कहलाती है, जो 0° 0' 0² पर खिंची रहती है और जो पृथ्वी को उत्तरी तथा दक्षिणी दो गालार्द्धों में विभाजित करती है। इसके 23.5° उत्तर तथा 23.5° दक्षिण, क्रमश: कर्क (North tropic) तथा मकर (South tropic) रेखाएँ तथा 66.5° उत्तर तथा दक्षिण में क्रमश: उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवीय वृत्त रेखाएँ होती है।

मानचित्र प्रक्षेप

चौरस कागज पर गोलक से इन रेखाओं को उतारकर जो जाल तैयार होता है, उसे रेखाजाल (net) कहते हैं। अत: परिभाषा के रूप में एक समतल धरातल पर (चौरस कागज पर) एक निश्चित पैमाने के अनुसार पृथ्वी या किसी क्षेत्र की अंक्षांश एवं देशांतर रेखाओं को क्रमबद्ध रूप में खीचने की विधि को मानचित्र प्रक्षेप कहते हैं। मानचित्र बनाने के लिये किसी न किसी विधि पर तैयार किए गए प्रक्षेप पर अधारित अक्षांश तथा देशांतर रेखाओं का जाल बनाना नितांत आवश्यक है। प्रक्षेपों का चुनाव मानचित्र के प्रयोजन पर निर्भर करता है, जैंसे शुद्ध क्षेत्रफल, शुद्ध दिशा अथवा शुद्ध आकार आदि वांछनीय तत्वों में से किसी एक पर एक मानचित्र में विशेष ध्यान दिया जाता है। ये तीनों गुण एक से मानचित्र प्रक्षेप में नहीं मिलते।

पृथ्वी का आकार लगभग गोलीय है। प्रेक्षप निर्धारण के लिए भिन्न देशों में भिन्न आयाम के गोलाभों का उपयोग हुआ है। भारतीय मानचित्रों के लिए स्वीकृत गोलाभ 'एवरेस्ट गोलाभ' है। कागज पर पार्थिव सन्दर्भ रेखाओं के निरूपण द्वारा पृथ्वी की वक्र सतह को समतल पृष्ठ पर निरूपण करने की पद्धति ही मानचित्र प्रक्षेप है। सामान्य रूप से ये आक्षांश की समांतर रेखाएँ और देशांतर (याम्योत्तर) की रेखाएँ हैं। ये भूतल की काल्पनिक, किंतु परिशुद्ध गणितीय गणना के योग्य रेखाएँ हैं।

यह तो प्रकट ही है कि भूमंडल, जिसका आकार लगभग गोलीय है, समतल पृष्ठ पर ठीक ठीक निरूपित नहीं किया जा सकता। अत: समतल कागज पर पृथ्वी की वक्र सतह के निरूपण के लिये प्रक्षेप का आश्रय लिया जाता है। उद्देश्य के अनुसार त्रुटि और विकृति को इच्छित अंश तक सीमित या दूर हटा दिया जाता है।

आकार को बनाए रखने के लिये दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक है :

  • (1) देशांतर और अक्षांश रेखाएँ प्रक्षेप में एक दूसरे के लंबवत्‌ हों,
  • (2) किसी निश्चित्‌ बिंदु पर सभी दिशाओं में पैमाना एक हो चाहे वह भिन्न बिंदुओं पर विभिन्न हो।

इसे समरूपी प्रक्षेप कहते हैं। भारतीय सर्वेक्षण के मानक मानचित्रों के लिये उचित हेर फेर के साथ समरूपी शंक्वाकार प्रक्षेप प्रयुक्त होते हैं।

भू-आकृति की उँचाई, निचाई तथा स्वरूप का प्रदर्शन

मानचित्र में भू-आकृति के विभिन्न स्वरूपों एवं आकृतियों को दिखाना कठिन कार्य है। श् भू-आकृति की उँचाई निचाई का अभिप्राय समुद्रतल से भूमि की उँचाई निचाई से है। जहाँ भूमि समुद्रतल से नीची है वहाँ निचाई ऋणात्मक (-) चिह्न द्वारा दिखाई जाती है एवं ऊँचाई या निचाई फुट या मीटर में दिखाई जाती है। मानचित्र पर भू-आकृति को दिखलाने की कई विधियाँ हैं:

  • 1. चित्र द्वारा प्रदर्शन,
  • 2. गणित द्वारा तथा
  • 3. मिश्रित विधियाँ

चित्र द्वारा प्रदर्शन

इसमें कई विधियाँ अपनाई जाती है: (क) रेखाच्छादन विधि (Hachures)-- इस विधि द्वारा बहुत पतली पतली छोटी रेखाओं की सहायता से जलप्रवाह या ढाल की दिशा दिखलाते हैं। अधिक ढालवें क्षेत्र को अपेक्षाकृत मोटी तथा पास पास खींची रेखाओं द्वारा प्रदर्शित करते हैं (देखें नक्शा बनाना)। मैदानों अथवा पठार के समतल भागों को श्वेत छोड़ देते हैं। ठीक ठीक प्रदर्शन के लिये रेखाओं की मोटाई गणित के आधार पर निर्धारित होती है, लेकिन लेकिन बहुधा अनुभव के अधार पर ही खींचतें हैं। अत: इससे ढालक्रम का साधारण ज्ञान हो जाता है, परंतु भू-आकृति ठीक ठीक स्पष्ट नहीं हो पाती है और मानचित्र में दर्शाए गए पहाड़ी क्षेत्रों में इतनी अधिक रेखाएँ हो जाती हैं कि भू-आकृति के अन्य रूपों का ज्ञान नहीं हो सकता। रेखाओं को खिचनें में समय भी अधिक लगता है, अत: इसका उपयोग कम हो रहा है। अधिक ऊर्ध्वाधर पैमाने (vertical scale) पर खींची समोच्च रेखाओं (contour) के बीच बीच में छिछली घाटियों, छोटी टेकरी (knoll) आदि के प्रदर्शन में इसका उपयोग होता है।

पहाड़ी छायाकरण (Hill Shading)

इसके अंतर्गत (अ) ऊर्ध्वाधर प्रदीप्ति और (ब) तिर्यक्‌ प्रदीप्ति विधियाँ आती हैं।

अ. ऊर्ध्वाधर प्रदीप्ति (Vertical illumination) - इस विधि में कल्पना की जाती है कि एक कल्पित प्रकाशपुंज भूमि के ऊपर प्रकाशित हो रहा है, जिसका प्रकाश ढाल के उतार चढ़ाव के क्रम के अनुसार कम बेशी होता है अपेक्षाकृत चपटे भाग हलकी छाया से दिखलाए जाते हैं।

ब. तिर्यक्‌ प्रदीप्ति (Oblique illumination) - इस विधि में कल्पना की जाती है कि मानचित्र के उत्तर-पश्चिमी कोने के बाहर प्रकाशपुंज रखा हुआ है। अत: उत्तर पश्चिमी ढाल प्रकाशित रहेगा और दक्षिण-पूर्वी भाग अँधेरे में रहेगा। छाया में पड़नेवाले भाग अधिक बड़े दिखाई देते हैं। समतल भाग भी छाया में पड़ने पर ढालवें दिखाई देते हैं। हैश्यूर की तरह ही पर्वतीय छायाविधि में ढालक्रम का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता, परंतु इसमें बिंदुओ की सहायता ली जाती है, अत: यह अपेक्षाकृत सुविधाजनक होता है और कम समय में तैयार हो जाता है।

स्तर वर्ण (layer tint) बिधि

इस विधि में विभिन्न रंगों से ऊँचाई दिखलाई जाती है।

गणित द्वारा प्रदर्शन

इस विधि में निम्नलिखित पद्धतियाँ अपनाई जाती है :

(क) बिंदु द्वारा - स्थान की उँचाइयाँ (spot heights) बिंदु द्वारा अंकित स्थान के पास, समुद्रतल से स्थान विशेष की उँचाई ठीक माप कर, फुट या मीटर में लिख दी जाती है।

(ख) निर्देश चिन्ह (Bench Mark) - भवनादि या पुल की खास उँचाई पर बी0 एम0 (B.M.) लिखकर समुद्रतल से उँचाई लिख दी जाती है, जैसे बी. एम. 200।

(ग) त्रिकोणमितीय स्टेशन (Trigonometrical Station) - इसमें त्रिकोणीय सर्वेक्षण द्वारा निश्चित किए गए स्टेशनों को उनकी उँचाई के साथ दिखलाते हैं, जैसे D 200।

(घ) समोच्च रेखाएँ - ये वे कल्पित रेखाएँ हैं, जो समुद्रतल से समान उँचाई के स्थानों को मिलाती हुई, मानचित्र पर बराबर दूरी पर खींची जाती है। ये अधिक शुद्ध होती है और इनके विभिन्न स्वरूपों से भू-आकृतियों का समुचित ज्ञान हो जाता है।

(च) खंडित रेखा (form line) विधि - रेखाएँ समोच्चरेखाओं के समान ही होती हैं, किंतु ये समोच्चरेखाओं के बीच बीच में आवश्यकतानुसार छोटी छोटी भू-आकृतियों को दिखाने के लिये टूटी रेखाओं द्वारा दिखलाई जाती है।

मिश्रित विधियाँ

आजकल भू-आकृति को दिखलाने के लिये कई विधियों को साथ साथ उपयोग में लाते हैं, उदाहरणस्वरूप (क) समोच्च रेखाएँ तथा हैश्यूर, (ख) समोच्च रेखाएँ, हैश्यूर तथा स्थानिक उँचाइयाँ (ग) समोच्च रेखाएँ, खंडित रेखाएँ तथा स्थानिक उँचाइयाँ, (घ) समोच्चरेखाएँ तथा पर्वतीय छाया विधि और (च) समोच्च रेखाएँ तथा स्तरवर्ण।

मानचित्र कला (Cartography)

मानचित्र तथा विभिन्न संबंधित उपकरणों की रचना, इनके सिद्धांतों और विधियों का ज्ञान एवं अध्ययन मानचित्रकला कहलाता है मानचित्र के अतिरिक्त तथ्य प्रदर्शन के लिये विविध प्रकार के अन्य उपकरण, जैसे उच्चावचन मॉडल, गोलक, मानारेख (cartograms) आदि भी बनाए जाते हैं।

शुद्ध रेखण

सर्वेक्षण की उपयुक्त विधियों से विभिन्न सर्वेक्षण खंडों का फोटो लेकर काली छाप तैयार की जाती है। इन्हें पृथक्‌-पृथक्‌ मानचित्रों द्वारा संकलित (mosaiced) कर लिया जाता है। इन संकलनों के बनाने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, ताकि सर्वेक्षणों की परिशुद्धता बनी रहे। काली छाप को मानचित्र प्रक्षेप पर जिसपर कि त्रिकोणमितीय ढाँचा अंकित है, जोड़ा जाता है। यह इसलिए कि सर्वेक्षण का प्रत्येक भाग ठीक मानचित्रित स्थितियों में जम जाए। इस प्रकार संकलन को अंतिम प्रकाशन (final publication) के डेढ़गुने आकार में फोटो चित्रित किया जाता है और एक अच्छे रेखणपत्र पर नीली छापों (blue print) का संग्रह प्राप्त कर लिया जाता है। परिवर्धन का कारण यह है कि अंतिम प्रकाशन में रेखाकृति (line work) की स्पष्टता और सुंदरता में वृद्धि हो।

मानचित्र में विवरण की जटिलता के कारण विविध प्राकृतिक तथा कृत्रिम आकृतियाँ सुपष्टता की दृष्टि से प्रभेदक रंगों (distinctive colours) में प्रस्तुत की जाती हैं। मौलिक रूप से जलाकृतियों के लिए नीला, पहाड़ी तथा मरुस्थल के लिए भूरा या उससे मिलता जुलता, वनस्पति के लिए हरा, कृषि क्षेत्र के लिए पीला, सड़क और बस्तियों के लिए लाल, पहाड़ी आकृति और अन्य विवरणों, जैसे स्रोत, रेलवे आदि के लिए काले रंग का उपयोग किया जाता है। अनुषंगी विषयों जैसे सीमा पट्टी, जल आदि के लिए अन्य रंगों का उपयोग करते हैं। अच्छे रेखांकन के लिए तीन नीली छाप चाहिए।

पहाड़ी तथा मरुभूमि की समोच्च रेखा खींचने के लिए एक नीली छाप काम आती है। दूसरी नीली छाप से वन भूमि, छितरे वृक्ष, तरकारियों, चाय बगानों आदि वनस्पतियों का चित्रण होता है। तीसरी नीली छाप अन्य विवरणों तथा नामों के काम आती है। अच्छे रेखांकन के लिए नक्शावीसी में कुशलता तथा प्रवीणता होनी चाहिए और परिशुद्ध तथा सुरेख मूल तैयार करने के लिए धैर्य परमावश्यक है। मानचित्र की चरम सुंदरता, सुपठ्यता और परिशुद्धता इस विधि पर निर्भर है।

मानचित्र संकलन

छोटे पैमाने पर स्थलाकृतिक तथा भौगोलिक मानचित्र सामान्यत: बड़े पैमाने के नक्शों से संकलित किए जाते हैं। विवरण का इच्छित परिमाण चुन लिया जाता है और प्रकाशित मानचित्रों पर गहरी रेखाओं से अंकित कर दिया जाता है। इन अंकित मानचित्रों का फोटो रेखाचित्र के प्रस्तावित पैमाने पर लिया जाता है। इस घटाए गए पैमाने पर काली छापें ली जाती हैं और उन्हें कागज के ऐसे तख्ते पर जोड़ा जाता है जिसपर संकलित मानचित्र की सीमारेखाएँ शुद्धता से प्रक्षिप्त की गई हों। इस संकलन से रेखण की सामग्री ली जाती है और पूर्ववर्ती पैराग्राफ में वर्णित विधि से उसका शुद्ध रेखण चित्रण किया जाता है।

छपाई की विधियाँ

1830 ई. के पूर्व भारत में मानचित्र तैयार करने की एक ही विधि थी - हाथ से नकल करने की, जो बहुत मंद और खर्चीली थी। ताँबे पर मानचित्र की नक्काशी सम्भव थी, किंतु भारत में बहुत थोड़े खासगी नक्काश थे और रेनेल के समय से ही नक्काशी का कार्य लंदन में होता था।

फोटोजिंको छपाई

1823 ई. के बाद भारत में लिथो मुद्रण का प्रारंभ हुआ ओर कलकत्ते में एक सरकारी मुद्रणालय स्थापित हुआ। मानचित्र मुद्रण के लिए इसका बहुत कम उपयोग था लेकिन कलकत्ते में निजी मुद्रणालयों में कई सर्वेक्षण मानचित्र लिथो द्वारा मुद्रित हुए 1852 ई. में महासर्वेक्षक के कलकत्ता स्थित कार्यालय में मानचित्र मुद्रण कार्यालय स्थापित हुआ और 1866 ई. में देहरादून में एक और मुद्रणालय (फोटोजिंको मुद्रणालय) चालू हुआ। महासर्वेक्षक के कार्यालय में मानचित्र मुद्रण तथा विक्रय की द्रुत प्रगति हुई और 1868 ई. से मानचित्रों का मुद्रण के लिये इंग्लैंड जाना बंद हो गया। तब से लिथो मुद्रण प्रगति कर रहा है और अब तो वह एक वैज्ञानिक विधि के रूप में विकसित हो गया है। इस विधि मे जस्ते के प्लेट काम में आते हैं जिनसे रोटरी ऑफसेट मशीनें प्रति घंटे हजारों प्रतियाँ छाप सकती हैं।

पूर्ववर्ती पैराग्राफों में वर्णित विधि से शुद्ध रेखन द्वारा प्राप्त तीन मूल रेखाचित्रों का सही पैमाने पर फोटो लिया जाता है और काच के प्लेटों पर 'गीली प्लेट' विधि द्वारा उनके निगेटिव (प्रतिचित्र) तैयार किए जाते हैं। तीसरे शुद्ध रेखित मूल के निगेटिव से, जिसमें शेष विवरण का समावेश होता है, 'चूर्ण विधि' द्वारा द्वितीय प्रतिलिपि प्राप्त की जाती है। सार रूप में इस विधि से विलग रंग निगेटिव प्राप्त करने के लिए सस्ता प्रतिकृत निगेटिव प्राप्त किया जाता है। इस विधि से तैयार किए तीन निगेटिवों में से एक पर वे सभी विवरण फोटोपेक से आलेपित कर लिए जाते हैं जिन्हें नीले और लाल रंग में दिखाना होता है, केवल वे ही विवरण उसपर रहने देते हैं जिन्हें काले रंग में छापना है। इसी प्रकार अन्य दो निगेटिवों पर केवल वे ही विवरण रहने देते हैं जिन्हें क्रमश: नीले और लाल में प्रस्तुत करना होता है और अन्य विवरणों को आलेपित कर दिया जाता है। इन तीन निगेटिवों के परिणाम जस्ते के प्लेटों पर अंतरित कर लिए जाते हैं। ये प्लेट क्रमश: काले, लाल और नीले विवरण के लिए छपाई के प्लेट हो जाते हैं।

रोटरी ऑफसेट छपाई

छपाई प्रारंभ करने के पूर्व यह आवश्यक है कि उन त्रुटियों को पूरी तरह ठीक कर दिया जाए जो जस्ते के प्लेट की तैयारी के लिए की गई विविध प्रक्रियाओं में प्रविष्ट हो गई हों। इसके लिए प्रमाणक मशीन पर एक प्रूफ प्रति समय रंगों में तैयार की जाती है। प्लेटों के प्रमाणित होने पर उन्हें छपाई मशीनों में रखा जाता है। आजकल कई प्रकार की आधुनिक छपाई मशीनें उपयोग में हैं, किंतु आधुनिक छपाई के अनिवार्य यंत्र 'स्वचालित भरण' (Automatic feed) और 'रबर ऑफसेट' हैं। दूसरे शब्दों में यंत्र में कागज का भरण यंत्र के अपने भरण साधन से होता है। जस्ते के प्लेट से छाप रबर के आवरण पर अंतरित कर देता है। कागज और छपाई प्लेट के सीधे सम्पर्क से जैसी छाप प्राप्त होती है उससे उन्नत और तीव्रतर छाप ऑफसेट विधि से प्राप्त होती है। प्रत्येक कागज के तख्ते को कई बार मशीन में से गुजरना पड़ता है। यह संख्या प्लेटों की संख्या निर्भर है और प्लेटों की पर संख्या अंतिम मानचित्र में रंगों की संख्या पर निर्भर है। आधुनिक मशीनों में अधिकतर दो रोलर होते हैं। दो रोलरों से एक साथ दो रंगों में दो प्लेटों की छपाई हो सकती है।

पैमाना या मापनी

मानचित्र-प्रक्षेप

मानचित्रों के प्रकार

मानचित्रों के साधारणतया निम्नलिखित प्रकार हैं :

  • (क) भौगोलिक मानचित्र,
  • (ख) स्थालाकृतिक मानचित्र,
  • (ग) भू कर तथा राजस्व मानचित्र,
  • (घ) नगर तथा कस्बों के दर्शक मानचित्र,
  • (ङ) छावनी मानचित्र,
  • (च) विशिष्ट उपयोग के मानचित्र तथा
  • (छ) विविध मानचित्र।

भौगोलिक मानचित्र

इन मानचित्रों में देश की साधारण भौगोलिक आकृतियाँ होती हैं और उनमें अप्रधान स्थलाकृति के विवरण नहीं दिखाए जाते। ऊँची नीची धराकृति (height relief) के ऊँचे नीचे स्तर रंगों या रेखाच्छादन द्वारा दर्शाते हैं। इन मानचित्रों का पैमाना 1 इंच से 8 मील से लेकर 1/120 लाख या इससे भी छोटा हो सकता है।

स्थलाकृतिक मानचित्र

स्थलाकृतिक मानचित्रों में अभी प्राकृतिक और कृत्रिम आकृतियाँ विवरण सहित पैमाने के अंदर यथासंभव सुपाठ्य और स्पष्ट रूप दर्शाई जाती हैं। पहाड़ी आकृतियाँ, समतल रेखापद्धति से जिसे समोच्च रेखा कहते हैं, दिखाई जाती हैं। विशेष आकृति वाले स्थलों को औसत समुद्रतल से ऊपर की ऊँचाई के अंक देकर दिखाया जाता है। भौतिक तथा सांस्कृतिक लक्षणों, राजनीतिक तथा प्रशासनिक सीमाओं, आकृतियों और स्थानों के नामों से युक्त होने के कारण ये मानचित्र बहुत व्यापक होते हैं। ये मानचित्र ही विविध पैमानों में भौगोलिक मानचित्र तैयार करने के आधार बनते हैं। विकास के लिये मूल योजनाएँ बनाने में भी इन मानचित्रों का बहुत बड़ा हाथ रहता है। इनका पैमाना एक मील के 2.5 इंच से, चार मील, के एक इंच तक हो सकता है (भविष्य में मानक स्थलाकृति मानचित्र माला का पैमाना 1:2500; 1:50,000; 1:100,000; और 1:250,000 होगा)।

भू-कर तथा राजस्व मानचित्र

ये मानचित्र राजस्व प्रयोजन के लिये राज्य सरकार द्वार बनाए जाते हैं। इनका उद्देश्य स्थलाकृतिक विशेषताओं के दिखाने को छोड़कर गाँव, शहर, जागीर और व्यक्तिगत भूमि संपत्ति का परिसीमन है। इनका पैमाना प्राय: एक मील के 16 इंच का है। माप का चुनाव 1:500 से 1:25,000 तक हो सकता है और ये काली स्याही में ही छापे जाते हैं।

नगर और कस्बों के दर्शक मानचित्र

जैसा कि नाम से प्रकट है इन मानचित्रों में नगर या कस्ब के सारे विवरण, जैसे सड़क, मकान, नगरपालिका सीमा, सरकारी दफ्तर, अस्पताल, बैंक, सिनेमा, बाजार, शिक्षा संस्थान, अजायबघर, बाग आदि दिखाए जाते हैं। ये मानचित्र स्थानीय संघटनों, परिवहन और नगर विकास समितियों, वाणिज्य संस्थाओं तथा पर्यटकों के लिये उपयोगी होते हैं। पैमाना 24 इंच के 1 मील से, 3 इंच के 1 मील तक होता है। भविष्य में दर्शक मानचित्रों का पैमाना 1:20,000 तथा 1:5000 होगा।

छावनी मानचित्र

ये मानचित्र विशेष रीति से सैनिक इंजीनियरी सेवा और छावनी अधिकारियों के लिये बने होते हैं। इनका पैमाना 16 इंच का एक मील और 64 इंच का एक मील होता है। भविष्य में पैमाना 1:5000 और 1:1000 होगा।

विविध मानचित्र

अनेक सरकारी विभागों और संस्थाओं को प्रशासन और विकास कार्यो के लिये विशेष विषयों से संबंधित नक्शे की आवश्यकता होती है। ये नक्शे ही अनेक विशेष अध्ययन के लिए उपयुक्त नक्शे के आधार बनते हैं। इनके उदाहरण हैं : तटीय और सिंचाई मानचित्र, सड़क और रेलवे मानचित्र, भूवैज्ञानिक, मौसमविज्ञान, पर्यटक, नागरिक उड्डयन, टेलीग्राफ ओर टेलीफोन मानचित्र, नैशनल स्कूल और अन्य ऐटलसों के लिये मानचित्र तथा औद्योगिक संयंत्र स्थल आदि के लिए मानचित्र।

विश्व वैमानिक चार्ट आई. सी. ए. ओ. (इंटरनैशनल सिविल एवियेशन ऑगनाइजेशन) 1:10,00,000 उल्लेखनीय है। इसी प्रकार भारतीय सर्वेक्षण द्वारा तैयार किए हुए अंतरराष्ट्रीय असैनिक वैमानिकी के मानचित्र भी महत्व के हैं। इंटरनैशनल सिविल एवियेशन ऑर्गनाइजेशन के सभी सदस्य राष्ट्रों को इन मानचित्रों का तैयार करना आवश्यक है। प्रत्येक सदस्य राष्ट्र अपनी सीमा के अंदर की मानचित्र माला तैयार करने के लिए उत्तरदायी हैं। शैली और विन्यास, मानक संकेत, रंग और संगमन (convention) और तैयारी की विधि की एकरूपता के लिये नियम बने हैं जिनका पालन होता है। इन मानचित्रों का पैमाना अधिकतर 1:10,00,000 होता है। 1:2,50,000 पैमाने के आई. सी. ए. ओ. इंस्ट्रुमेंट ऐप्रोच चार्ट और संसार के सभी महत्वपूर्ण हवाई अड्डों के पैमाने 1:31,680 के अवतरण चार्ट इन मानचित्रों के अनुषंगी चार्ट हैं।

अन्य मानचित्र

वितरण मानचित्र एवं मानारेख

(1) ज्यामितीय प्रतीक
(2) चित्रमय प्रतीक
(3) मूलाक्षर प्रतीक

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ