मुहिबउल्लाह इलाहाबादी
चिश्ती सिलसिले के महान सूफी शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी शाहजहां के शासन काल में ख्याति प्राप्त विद्वान धर्म ज्ञाता एवं दार्शनिक थे। सूफ़ी सम्प्रदाय में वहदत उल वजूद विचारधारा के महान समर्थक थे। मुहिबउल्लाह इलाहाबादी का जन्म २ सफ़र ९९६ हिजरी १ जनवरी १५८८ ई ग्राम सदरपुर ज़िला खैराबाद जो उस समय अवध राज्य के अन्तर्गत था एक शिक्षित परिवार में हुआ था यह वह समय था जब सम्राट अकबर अपने पूर्ण वैभव के साथ दिल्ली की गद्दी पर विराजमान था। मुहिबउल्लाह इलाहाबादी की उपाधि शैख कबीर है इनके पिता का नाम शैख मुबारिज व दादा का नाम शैख पीर था। शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी के पूर्वज हज़रत क़ाज़ी शैख़ शुऐब जो हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंजशकर के दादा थे जो चंगेज खां के शासन काल में लाहौर आए थे और कस्बा कसूर में रहने लगे थे। मुहिबउल्लाह इलाहाबादी का युग सूफीवाद में विरोधी प्रवृत्तियों के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है जिसने अत्यंत उपयोगी परिणाम प्रदान किए उनका जीवन और उस युग का अध्ययन सत्रहवीं शताब्दी ई• के रहस्यवादी विचारों पर प्रकाश डालता है।
दरगाह शरीफ क़ुतुबे इलाहाबाद हज़रत शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी | |
धर्म | इस्लाम, सुन्नी , सूफ़ी, सिलसिला ए चिश्तिया साबिरया |
अन्य नाम: | द्वितीय इब्ने अरबी |
वरिष्ठ पदासीन | |
---|---|
क्षेत्र | इलाहाबाद |
उपाधियाँ | शैख उल कबीर |
काल | 1588-1648 |
पूर्वाधिकारी | अबु सईद गंगोही |
उत्तराधिकारी | शैख ताज उद्दीन•
मोहम्मदी फय्याज• काज़ी सदरउद्दीन घासी• सैयद मो॰ कबीर कन्नौजी• |
वैयक्तिक | |
जन्म तिथि | 1-1-1588 |
जन्म स्थान | सदरपुर, उत्तर प्रदेश |
Date of death | 30 जुलाई, 1648 |
मृत्यु स्थान | इलाहाबाद |
वंशावली
संपादित करेंशजरा ए नसब
शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी बाबा फ़रीदुद्दीन गंजशकर की औलाद जकूर (पुरुषो) के. सिलसिले में बाईसवीं पीढ़ी से है जिसका विवरण निम्नलिखित है-
- शैख़ मुहिबउल्लाह
- पुत्र शैख़ मुबारिज़
- पुत्र शैख़ पीर
- पुत्र शैख़ बडे
- पुत्र शैख़ मटे
- पुत्र शैख़ रज़ीउद्दीन
- पुत्र शैख़ ओहदउद्दीन
- पुत्र क़ाज़ी शैख़ अमजद उद्दीन फ़य्याज
- पुत्र हाजी क़ाज़ी जमील उद्दीन
- पुत्र क़ाज़ी रफ़ी उद्दीन
- पुत्र शैख़ मुहिबउल्लाह फ़य्याज
- पुत्र हाजी शैख़ रुस्तम उल्लाह
- पुत्र शैख हबीब उल्लाह
- पुत्र हाजी शैख इब्राहीम
- पुत्र क़ाज़ी शैख़ अलाउदीन फ़य्याज़
- पुत्र शैख़ इमाम कासिम
- पुत्र क़ाज़ी शैख़ अब्दुल रज्जाक
- पुत्र जमिउलउलूम शैख़ अब्दुल कादिर
- पुत्र हाजी शैख़ अबुल फ़तेह
- पुत्र शैख़ अब्दुस्सलाम
- पुत्र शैख़ खिज्र फ़य्याज़
- पुत्र शैख़ शहाबुद्दीन गंजे इल्म
- पुत्र हज़रत ख्वाजा फ़रीदुद्दीन गंजशकर र.अ [1]
शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी की औलाद
औलाद हज़रत शैख़ मुहिबउल्लाह इलाहबादी
- शैख़ ताज उद्दीन (1)
- शाह मोहम्मद सैफ उल्लाह (2)
- शाह मोहम्मद हबीब उल्लाह (3)
- शाह गुलाम मुहिबउल्लाह (4)
- शाह मोहम्मद खलील उल्लाह (5)
- शाह मोहम्मद उबैदउल्लाह अव्वल (6)
- शाह मोहम्मद हबीब उल्लाह (7)
- शाह मोहम्मद फजलुल्लाह (8)
- शाह मोहम्मद नेमतुल्लाह (9)
- शाह मोहम्मद उबैद उल्लाह सानी (10)
- शाह मोहम्मद सैफ उल्लाह सानी (वर्तमान सज्जादानशीन)(11)
मुफ़्ती हाफिज कारी शाह मोहम्मद मुक़र्रब उल्लाह अली मियां (नायेब सज्जादानशीन हज़रत शैख़ मुहिबउल्लाह इलाहबादी)(12)
शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी के कुछ प्रमुख खलीफा अथवा शिष्य
संपादित करेंशाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी की विशिष्टता का पता इस बात से भी चलता है कि शाह के खलीफा अथवा शिष्यों की गणना भी अपने समय के महान विद्वानों में होती है जिनमें से अनेक उच्च पदों पर आसीन थे, उनके प्रमुख शिष्यों में [3]
- शैख़ ताज उद्दीन
- शाह मोहम्मदी फय्याज
- सय्यद मीर कबीर कन्नौजी
- शाह दिलरुबा
- मोहसिन फानी कश्मीरी
- क़ाज़ी सदर उद्दीन घासी
- क़ाज़ी युसुफ
- क़ाज़ी अब्दुल रशीद
- शैख अहमद
शिक्षा
संपादित करेंशाह मुहिबउल्लाह के पिता शेख मुबारिज का विवाह काजी ईस्माईल हरगामी की पुत्री के साथ हुआ। काज़ी इस्माईल हरगामी अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान थे। इस कारण काजी इस्माईल को अपने नवासे (शाह मुहिबउल्लाह) से अत्यधिक प्रेम था वह कहा करते थे कि यह लड़का ख्याति प्राप्त विद्वान होगा। उन्होंने अपने पुत्रों को नसीहत की के हमेशा अपने भांजे के साथ प्रेम एवं इज्जत का व्यवहार करना। [5] शाह मुहिबउल्लाह ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता शेख मुबारिज़ से प्राप्त की, साथ ही स्थानीय विद्वानों से भी ज्ञान प्राप्त करने में लगे रहे। दुर्भाग्यवश ज्योही इनकी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त हुई उनके पिता का देहान्त हो गया और परिणामतः परिवार की समस्त ज़िम्मेदारी और उनके पालन पोषण एवं जीविका का बोझ उनके कन्धों पर पड़ा जिसके कारण शेख अत्यन्त दुविधा एवं चिन्ता में पड़ गये। परिणाम यह हुआ कि इनके सगे सम्बन्धियों ने इनकी यह दशा देखकर विवाह कर दिया। किन्तु शाह मुहिबउल्लाह का मन नहीं लगा और ज्ञान प्राप्त करने की पिपासा बढ़ती गयी। वह समय ऐसा था जब यात्रा में अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता था। उन्होंने कष्टों पर ध्यान दिए बिना ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा में अपने दो छोटे ममेरे भाईयों के साथ, जिन्हें यह स्वयं शिक्षा दे रहे थे, लाहौर के लिए प्रस्थान किया। [6] यह समय 1014 हिजरी मुताबिक 1605 ई० के बाद का है जब जहांगीर लाहौर की गद्दी पर विराजमान था उसकी देखरेख में लाहौर उस समय स्वर्ग समान बना हुआ था। सम्पूर्ण देश विदेश के ज्ञानी एवं दार्शनिकों का निरन्तर आगमन हो रहा था और लाहौर ज्ञान ध्यान एवं उच्च धार्मिक शिक्षा का केन्द्र बनाया था। बोखारा, बगदाद, देहली एवं अकबराबाद के समान ही लाहौर का मदरसा ख्याति प्रापत कर चुका था तथा इस्लामी दारुल उलूम बना हुआ था। [7] शेख ने लाहौर पहुंचकर एक मकान किराए पर लिया और मुल्ला अब्दुल सलाम, जो उस समय के महान ज्ञानी थे, का शिष्यत्व स्वीकार किया। मुल्ला अब्दुस्सलाम की गणना उस समय भारत वर्ष के प्रमुख विद्वानों में की जाती थी। वह अपने समय के प्रसिद्ध मुस्लिम धर्मशास्त्र के ज्ञाता एवं आलिम थे। देश विदेश के विद्यार्थी उनसे तफसीर (महाभाष्य) हदीस, फिकह (धर्मशास्त्र) इत्यादि की शिक्षा प्राप्त करते थे।
शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी से संबंधित महत्वपूर्ण वृत्तान्त
संपादित करेंमुहिबउल्लाह इलाहाबादी ने थोड़े समय में हर प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर लिया शाह साहिब के सहपाठियों में मियां मीर लाहौरी एवं बादशाह शाहजहां के वज़ीर नवाब साद उल्लाह खां विशेष उल्लेखनीय हैं। लाहौर के निकट एक रेलवे स्टेशन भी मियां मीर लाहौरी के नाम से प्रसिद्ध है यह तीनों सहपाठी अत्यंत प्रेम व्याहार से रहते थे तीनों साधारण परिवार के व्यक्ति थे उनमें आपस में यह तय हुआ था कि जो व्यक्ति किसी बड़े पद पर आसीन होगा वोह एक दूसरे को भी उसी पे पहुंचायेगा।[8]
हफीज़ इलाहाबादी ने शेख की प्रसिद्ध अरबी पुस्तक अन्फासुलख्वास के हवाले से लिखा है कि लाहौर में शाह मुहिबउल्लाह जिस मकान में रहते थे उसी मकान के एक भाग में एक पागल को रखा गया था एक रात उस पागल व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। मृतक की विधवा ने विलाप करना प्रारम्भ कर दिया जिसके कारण उनके हृदय में व्याकुलता का अनुभव होने लगा और उसी समय उनमें संसार तथा जीव के आगमन और मृत्यु के पश्चात् के उपरान्त की वास्तविकता जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। शेख ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि उनके मन में इस प्रकार के विचार निरन्तर उठते रहे और शैतान उनके मन में शंका और सन्देह उत्पन्न करता रहा और कभी कभी उनके धर्म विहित विश्वासों में भूकम्प आने लगा। जब अत्यधिक परेशान हो गए तो एक रात स्वप्न में हज़रत मुहम्मद साहब ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि "जो कुछ तुमपर प्रकट किया गया है वही सत्य है और उसी पर दृढ़ रहो।" इस स्वप्न का परिणाम यह हुआ कि जब उनकी आंखें खुली तो सभी सन्देह और शंकायें समाप्त हो गयीं। [9] इस घटना के बाद शाह मुहिबउल्लाह ने वह मकान छोड़कर दूसरा मकान किराये पर लिया जो एक बाज़ार के निकट था। और पुनः पैगम्बर मुहम्मद साहब को स्वप्न में देखा कि कोई व्यक्ति कह रहा है कि इस भवन के दाहिनी ओर जो बाजार है उसमें पैगम्बर मुहम्मद साहब मौजूद है, शेख फौरन दोड़कर गए। सर्वप्रथम मुसलमानों के खलीफा हज़रत अली से मिले और उसके बाद कुछ आगे बढ़कर मुहम्मद मुस्तफा ( मुसलमानों के पैगम्बर) के सामने उपस्थित हुए तो मुहम्मद साहब ने कहा "जा तू मकबूलों में से है।" अर्थात शेख को मुहम्मद साहब ने ज्ञान प्रदान किया। ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त शेख अपने घर सदरपुर लौट आए और अपने पारिवारिक जीवन को भली भांति निभाते हुए ज्ञान ध्यान में अपना जीवन व्यतीत करने लगे। किन्तु रोजी रोटी की फिक्र ने दिल को परेशान किया परिणामस्वरूप वह अहमदाबाद गए और वहां मुहम्मद साहब को पुनः स्वप्न में देखा। किन्तु इस बार पैग़म्बर मुहम्मद साहब का ध्यान अपनी ओर कम पाया जिससे शेख मुहिबउल्लाह अत्यन्त दुखी हुए। निरन्तर दुख और अफसोस में अपना रात दिन व्यतीत करने लगे उनका दिल चाहता कि सब कुछ छोड़कर जंगल में चले जायें। दिल इतना अधिक घबराया कि पुनः सदरपुर वापस आकर पठन पाठन में लग गए। वह निरन्तर पाबन्दी के साथ तसव्वुफ एवं मोजाहदात (इन्दिय निग्रह) के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने लगे तथा अपने गुरु द्वारा दी गई इस शिक्षा को आगे बढ़ाने लगे। फकीर एवं साधु सन्यासी, जो वास्तविकता के जानने वाले थे, उनके किस्से कहानियां एवं करामात यह निरन्तर सुनते रहते थे, किन्तु इसे कहानी और झूठी बात कहकर टाल दिया करते थे लेकिन इतना अवश्य था कि दुर्वेशों के करामात सुनकर उसपर आश्चर्य अवश्य करते थे। इन्हीं सब दुविधा में शेख मुहिबउल्लाह का जीवन व्यतीत हो रहा था कि किसी व्यक्ति ने उनसे शेख अबू सईद गंगोही के जीवन से सम्बन्धित कुछ ऐसी घटनाओं का जिक्र किया कि जिसके विषय में उनका कथन है कि मैं सोच भी नहीं सकता था मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ क्योंकि न तो मैं पीरो-मुर्शिद शेख अबू सईद गंगोही को इतना बड़ा फकीर व दुर्वेश मानता था और न तो मेरी उनमें कोई विशेष आस्था थी क्योंकि मैं वर्णन की गई इन समस्त प्रशंसाओं को ईश्वरीय सिद्धान्तों के विरुद्ध समझता था। लेकिन इन विवरणों से शेख मुहिबउल्लाह के हृदय में इन समस्त बातों के सत्य तक पहुंचने की जिज्ञासा हुई कि सूफी सन्तों एवं सन्यासियों के विषय में जो विवरण प्रस्तुत किए जाते हैं उसकी वास्तविकता क्या है।
'शाहजहां के वज़ीरे आज़म नवाब साद उल्लाह खां एवं शाहजहां से मुलाकात तथा वज़ीर की पदवी से सम्मानित होने सम्बन्धी घटना'
पारलौकिक तथ्यों का पता लगाने के लिए शेख मुहिबउल्लाह ने अपने पैतृक निवास सदरपुर से प्रस्थान कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में भ्रमण करने की योजना बनाई और चल पड़े। जिस स्थान पर औलिया और सूफी बुजुर्गों के मज़ार दिखी वहां उपस्थित होते हुए दिल्ली पहुंचे। यहां एक दिन दुर्वेशों वाला वस्त्र पहने सड़क से जा रहे थे कि संयोगवश शाहजहां के वज़ीरे आज़म नवाब साद उल्लाह खां शाही किले से अपने महल वापस आ रहे थे उन्होंने शेख मुहिबउल्लाह को देखकर पहचान लिया। शेख भी वज़ीरे आज़म सादउल्लाह खां को देखकर घबरा गए और पास ही एक दुकान में जाकर छिप गए। नवाब साद उल्लाह खां भी पहचान गए किं फकीर के छिपने का क्या कारण है। उन्होंने अपने नौकरों को यह आज्ञा दी कि अभी जो फकीर दुकान में गया है उसे साथ लेकर आओ और अगर खुशी से न आए तो जबरदस्ती लाना किन्तु किसी प्रकार का अभद्र व्यवहार न करना। यह आज्ञा देने के बाद स्वयं अपने महल जाकर शेख मुहिबउल्लाह की प्रतीक्षा करने लगे। जिस अफसर को वज़ीरे आज़म ने शेख को अपने साथ लाने की आज्ञा दी थी वह शेख की सेवा में उपस्थित हुआ। शेख ने उसे टालना चाहा किन्तु उस अफसर की ज़िद करने पर शेख उसके साथ हो लिये। नवाब सादुल्ला खां पहले से ही अपने महल में शेख की प्रतीक्षा कर रहे थे देखते ही गले से लिपट गए। स्नान कराने के बाद उन्हें अमीरों वाला वस्त्र पहनाया गया और शेख को बताये बिना सादुल्ला खां ने बादशाह शाहजहां की सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया कि "मेरे बड़े भाई मुहिबउल्लाह आए है जो अत्यन्त ज्ञानी एवं सूझबूझ वाले व्यक्ति है। यह इतने बड़े विद्वान है कि इनके लिए वज़ीर का ही पद उचित हो सकता है। मैं तो केवल उनके बताए मार्ग पर चलने के योग्य हूँ। इसी प्रकार की कुछ ऐसी बातें और कहीं कि बादशाह शेख मुहिबउल्लाह को देखने के लिए बेचैन हो गया। तुरन्त विशेष सवारी भेजकर शेख मुहिबउल्लाह को दरबार में बुलाया। न चाहते हुए भी बाध्य होकर शेख को बादशाह शाहजहां के दरबार में जाना पड़ा। बादशाह ने शेख के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न प्रस्तुत किये जिसका उत्तर सुनकर शाहजहां चकित रह गया वह उनकी नूरानी शकल देखकर एवं उनके प्रश्नों का उत्तर पाने के बाद अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसी समय शेख के लिए खिलअत, वज़ारत की पदवी एवं जागीर देकर उन्हें शाही दरबार से विदा किया। उस समय दिल्ली में यह प्रथा थी कि जब भी कोई व्यक्ति किसी बड़े उच्च पद पर आसीन किया जाता तो उसके पूर्व वह सलाम के लिए ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के मज़ार पर हाज़िरी देता था इसलिए शेख मुहिबउल्लाह को भी विश्वास भावना के साथ नियमानुसार महरौली शरीफ जाना पड़ा। जब कुतुब साहब के स्थान के निकट पहुंचे तो उन्होंने साथियों एवं फौज को यह आज्ञा दी कि तुम लोग यहीं ठहरो मैं यहां से अकेले दरगाह जाऊंगा। दरगाह पर हाज़री के समय मज़ार से एक दैवी आवाज़ आयी जो इस प्रकार थी कि ईश्वर ने तुझे सांसारिक कार्यों के लिए नहीं उत्पन्न किया है बल्कि तेरा काम है लोगों का अकीदा (विश्वास) ठीक करना ताकि लोग अपना ओकबा (पारलौकिक जीवन) बना सके। गंगोह (जिला सहारनपुर) जा मखदूम अला उद्दीन अली अहमद साबिर के सिलसिले में शेख अबू सईद नाएब रसूले मकबूल की बैयत लें मजार पर यह इशारा होते ही उसी समय शेख वज़ारत की पदवी त्याग कर गंगोह चले गए। लेकिन शाही फौज आज्ञा का पालन करते हुए रुकी हुई थी। प्रतीक्षा करते करते सुबह से शाम हो गई तब दो चार आदमी शेख मुहिबउल्लाह की खोज में दरगाह पहुंचे। दरगाह पर उपस्थित खादिमों ने बताया-"अवश्य एक अमीर सुबह आए थे वह अपना वस्त्र उतार कर हमें दे गए और हमसे गज़ी का तहबन्द लेकर बांधा और मज़ार पर कुछ देर उपस्थित रहने के उपरान्त पहाड़ी की ओर चल गए। फौज ने समस्त जंगल छान डाला मगर शेख का कहीं पता नहीं चला। जब नवाब साद उल्लाह खां को इसकी खबर हुई तो वह बहुत रोए और कहने लगे कि शाह साहब मरदाने खुदा में से हैं मैं उन्हें दुनिया में फंसाना चाहता था मगर वह भला कब फंसने वाले थे। शेख मुहिबउल्लाह के गंगोह आने की सूचना शेख अबू सईद को दैवी रूप से हो चुकी थी वह पहले से ही खादिम को आज्ञा दे चुके थे कि सुबह की नमाज़ के लिए वजू करने के लिए एक आफताबा (जल का पात्र) के बदले दो आफताबा गर्म पानी रखें और जो हलवा दुर्वेशों के लिए पकाया जाता है वह अधिक पकाया जाय। अभी थोड़ी रात बाकी थी कि शेख मुहिबउल्लाह ने गंगोह पहुंचकर शेख अबू सईद का दरवाजा खटखटाया वह बाहर आए और परस्पर मुलाकात हुई। वजू और सुबह की नमाज़ के बाद शेख मुहिबउल्लाह को मुरीद बनाया। बैयत प्राप्त कराई तथा उपस्थित लोगों में हलवा बंटवाया। अजान के बाद शेख अबू सईद ने अपने मुजाहिद नामक नौकर को आज्ञा दी कि दो रकात नमाज पढ़कर एक कोने में बैठकर यह देखो कि शेख मुहिबउल्लाह का ज्ञान किस श्रेणी का है तथा किस नबी की विलायत के समान है। ताकि उसी के अनुसार उनको शिक्षा दी जाय । खादिम शेख मुहिबउल्लाह को एकान्त स्थान पर ले गया तथा परीक्षा के बाद उसने शेख अबू सईद को बताया कि उनका ज्ञान एवं उनकी योग्यता हज़रत मूसा पैगम्बर से मिलता जुलता है। यह सुनकर शेख अबू सईद ने शेख मुहिबउल्लाह को कुछ शिक्षा देकर चिल्ले मे बिठा दिया। अभी चालीस दिन पूरे नहीं थे कि एक दिन शेख अबू सईद ने स्वयं कमरे के दरवाजे पर आकर आवाज़ दी कि चिल्ले से बाहर चले आओ। तुम्हारा काम हो गया चिल्ले की पूर्ण अवधि समाप्त करने की आवश्यकता नहीं। शेख मुहिबउल्लाह चिल्ले से बाहर आए। उनका दिल आईने के समान स्वच्छ हो चुका था। सम्पूर्ण सन्देह एवं भ्रम समाप्त हो गया था और वह ज्ञान की उच्च श्रेणी पर पहुंच चुके थे। शेख अबू सईद ने शेख मुहिबउल्लाह को चिश्ती सिलसिले में खिलाफत का खिरका (वस्त्र) पहनाकर उनके सर पर अमामा बांधकर फातिहे के लिए हाथ उठाया। उन्हें अपने शेख से जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे शेख मुहिबउल्लाह को प्रदान किया और उन्हें जाने की आज्ञा दी। शेख मुहिबउल्लाह गंगोह से अपने घर सदरपुर आए। चूकि मुहिबउल्लाह को अकसर उनके पीर अबू सईद "इलाहाबादी" कहा करते थे इसलिए उस आज्ञा का पालन करते हुए शेख ने सदरपुर से इलाहाबाद के लिए प्रस्थान किया। सर्वप्रथम रुदौली में भी शेख मुहिबउल्लाह को इलाहाबाद जाने की बशारत हुई। रुदौली से शेख मुहिबउल्लाह मानिकपुर होते हुए 42 वर्ष की आयु में लगभग 1628 ई. में इलाहाबाद आए तथा नग की नई एवं पुरानी आबादी के बीच यमुना के किनारे, उस स्थान पर जहां उनका मजार है, विराजमान होकर लोगों को उपदेश देने एवं उनकी सेवा में अपना समय व्यतीत करने लगे। प्रारम्भ में शेख ने अत्यधिक कष्ट का जीवन व्यतीत किया। निर्धनता के कारण उन्हें उपवास का जीवन भी व्यतीत करना पड़ा किन्तु उन्होने धैर्य से काम लिया। धीरे धीरे लोगों को शेख मुहिबउल्लाह के ज्ञान एवं विद्वता का पता चला तो अधिक संख्या में लोगों ने इनके यहां आना प्रारम्भ किया हर समय विद्वान, सूफी, जागीरदार एवं शहज़ादो की भीड़ लगी रहती थी और लोग इनसे ज्ञान प्राप्त करते रहते। शेख मुहिबउल्लाह की ख्याति इतनी अधिक फैली कि सम्राट शाहजहा ने उन्हें एक पत्र लिखकर उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की और शेख को दिल्ली बुलाया [10]किन्तु शेख मुहिबउल्लाह ने दिल्ली जाने से इंकार कर दिया जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि उन्हें धन, दौलत अथवा पदवी का कोई मोह नहीं था जबकि उनका जीवन कष्टमय अवस्था में व्यतीत हो रहा था। शेख मुहिबउल्लाह का मुख्य विषय वहदतुलवुजूद था। शेख मुहिबउल्लाह ने वतदतुलवुजूद जैसे गूढ़ विषय पर अत्यन्त विद्वतापूर्ण बहस की है शेख द्वारा रचित ग्रन्थ "रेसालये तस्वीयह" एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। समकालीन आलिम ( मुस्लिम धर्म ज्ञाता) उनकी विचारधारा से सहमत नहीं थे। उनकी विचारधारा को नकारते हुए इलाहाबाद के उलेमा (धार्मिक गुरुओं) ने शेख मुहिबउल्लाह को मृत्युदण्ड का फतवा दे दिया था किन्तु शेख मुहिबउल्लाह के एक घनिष्ठ मित्र जौनपुर के अब्दुल रशीद ने उलेमा को यह कहकर समझाया और फतवा वापस कराया कि आप लोग शाह मुहिबउल्लाह के कथन का जो अर्थ निकाल रहे है वैसा नहीं है उसके बाद भी मुहिबउल्लाह निरन्तर उस समय के आलिमों का निशाना बने रहे और लोग उन्हें धर्म विरूद्ध बताते रहे। शेख मुहिबउल्लाह ने अपनी समस्त रचनाओं में इसी विषय को मुख्य स्थान दिया तथा वाद विवाद का विषय बनाया। उस समय वहदतुलवुजूद एवं वहदतुशशहूद विषय की विचारधाराओं में अत्यधिक मतभेद था तथा इन दोनों दृष्टिकोणों के मानने वाले दो गिरोह में विभाजित हो गये थे। [11]
दाराशिकोह एवं शाह मुहिबउल्लाह के संबंध
संपादित करेंशाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी के वहदतुलवुजूद के दृष्टिकोण से दाराशिकोह विशेष प्रभावित था और उसे इस दृष्टिकोण में आस्था थी। दाराशिकोह ने एक पत्र के उत्तर में शाह मुहिबउल्लाह को लिखा था कि (अनुवाद) "आपका पत्र प्राप्त हुआ उसके पढ़ने से बड़ी प्रसन्नता हुई और आपका हममशरब (विचारों में समानता) होना भी मालूम हुआ, कहां है ऐसे लोग जो इस मशरब (तथ्य) से अकीदा (विश्वास) रखते हों जबकि इस मशरब को भली भांति जानते है और समझते है।" [12]
दाराशिकोह ने एक अन्य पत्र में शाह मुहिबउल्लाह को लिखा कि (अनुवाद) "अधिक समय तक मशायख के ग्रन्थों का अध्ययन करता रहा चूंकि उन पुस्तकों में एक दूसरे के प्रति अत्यधिक मुखालिफत एवं एक दूसरे में मतभेद पाया, कि इन पुस्तकों का पढ़ना छोड़ कर दिल के अध्ययन में संलग्न हूँ क्योंकि दिल एक ऐसा अथाह समुद्र है जिसमें से निरन्तर ताज़ा जवाहरात (उत्तर) निकलते रहते है। शाह मुहिबउल्लाह का ही महत्वपूर्ण व्यक्तित्व था जिसने दाराशिकोह को इलाहाबाद आने और यहां का गर्वनर का पद स्वीकार करने को आकृष्ट किया था अन्यथा दाराशिकोह की दृष्टि में इलाहाबाद का कोई राजनैतिक और कोई आर्थिक महत्व नही था था। [13] जब इलाहाबाद का सूबा दाराशिकोह को प्राप्त हुआ। और वह इलाहाबाद पहुंचा तो शाह मुहिबउल्लाह को एक पत्र में लिखा कि (अनुवाद) " यहां आने की प्रसन्नता केवल इस कारण से है कि यह जनाब (शाह मुहिबउल्लाह) का निवास स्थान है।"2 दाराशिकोह के इस पत्र के उत्तर में शाह मुहिबउल्लाह ने लिखा कि (अनुवाद) "सूबा इलाहाबाद विलायत में मिलने पर सबसे अधिक प्रसन्नता तुम्हारी वजह से है साहबे आलम पर स्पष्ट है कि आप सा सरपरस्त एवं फकीरों की देखभाल एवं रक्षा करने वाला, समस्त गुणों से पूर्ण व्यक्ति ईश्वर ने भेजा है जिसे देखकर फकीर अल्लाह का शुक्र अदा करता है कि कोई भी बादशाह अथवा शहज़ादा आपके गुणों की प्राप्ति न कर सका लोगों के लिए यह बात कितनी भाग्यशाली है कि आपके ऐसे हाकिम की रियाया है।" एक बार दारा शिकोह ने शाह मुहिबउल्लाह से कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर राय जानना चाहा जिसमें एक विषय यह भी था कि हुकूमत के कार्य कलापों में हिन्दू एवं मुसलमान में भिन्नता करना उचित है अथवा नही,शाह मुहिबउल्लाह ने इसके उत्तर में दारा शिकोह को लिखा कि (अनुवाद) "फकीर कहां और नसीहत कैसी सच बात तो यह है कि खल्के खुदा का ध्यान प्रशासक को होना चाहिए क्या हिंदू व मुसलमान सब पर रहम करना बादशाहों के लिए यही उचित है। और जब फैसला देना तो ये मत देखना कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान बल्कि ये देखना कौन सच पर है बादशाहों की यही पहचान है। [14] रसूल ने कुरान के माध्यम से फुतूहाते मक्किया में इस बात को वर्णित किया है कि 'वमा अर सलनाकुम इल्लारहमतुल आलमीन' किसी एक के लिए आप नहीं भेजे गये अर्थात पूरी दुनिया के लिए आप रहमत है ।
शाह मुहिबउल्लाह की रचनायें
संपादित करेंशाह मुहिबउल्लाह का सम्पूर्ण जीवन पठन पाठन उपदेश एवं महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना में व्यतीत हुआ। उन्होंने फारसी एवं अरबी में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे उनका मुख्य विषय अथवा केन्द्र बिन्दु वहदतुलवुजूद था उन्होंने अपनी समस्त रचनाओं में इसी विषय को मुख्य स्थान दिया। भारत वर्ष के इतिहास में सत्रहवीं शताब्दी को इस कारण विशेषता प्राप्त है कि इस समय वहदतुलवुजूद और वहदतुश शहूद के विचारों में मतभेद का काल था तथा इन विचारों में आस्था रखने वाले दो भाग में विभाजित हो गये थे। शाह मुहिबउल्लाह की पुस्तकों में शेख मुहीउद्दीन इब्ने अरबी के विचारों को विभिन्न प्रकार से दर्शाया गया है ताकि एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी वहदतुलवुजूद जैसे सूक्ष्म विषय को सरलतापूर्वक समझ ले। शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी का उपनाम शेख कबीर इसी कारण पड़ कि यह शेख अकबर के विचारों को बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते थे कि उस समय क बड़े से बड़ा विद्वान भी मानने के लिए विवश हो जाते थे। यही तरीका उन्होंने अपनी रचनाओं में भी अपनाया। इलाहाबादी की रचनाओं में निम्नलिखित ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय है।
- तर्जुमतुल किताब (अरबी) एक जिल्द खानकाह में मौजूद है
- शरह फुसुसुल हिकम (अरबी) 2 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- शरह फुसुसुल हिकम (फ़ारसी) 1 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- मनाज़िर अख्सुल खवास (फ़ारसी) 4 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- अन्फासुल ख़वास (अरबी) 2 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- अक़ाएदुल ख़वास (अरबी) 3 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- ग़ायातुल गायात (फ़ारसी) 1 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- हफ़्ते अहकाम (फ़ारसी) 3 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- रिसलाये तसविया (अरबी) एक जिल्द खानकाह में मौजूद है- उर्दू तर्जुमा के साथ खानकाह से छप चुकी है
- शरह तसविया (फ़ारसी) एक जिल्द खानकाह में मौजूद है
- इबदतुल ख़वास (फ़ारसी) एक जिल्द खानकाह में मौजूद है
- औरादे मुहिब्बी (फ़ारसी) 3 जिल्द खानकाह में मौजूद है
- रिसाला तौहीद कल्मतुत तौहीद (फ़ारसी) एक जिल्द खानकाह में मौजूद है
- रिसाला सैरे इलाही (फ़ारसी) एक जिल्द खानकाह में मौजूद है बक़ोल एक ईरानी
रिसाला वजूद मुतलक़ (फ़ारसी) एक लंबा खत है जो शैख़ अब्दुल रहीम मानिकपुरी को लिखा गया था और उसको नही भेजा जा सका-
वोह किताबें जो खानकाह में उपलब्ध नहीं हैं
- हाशिया तर्जुमतुल किताब (अरबी)
- तर्कुल ख़वास (फ़ारसी)
- इमालतुल क़ुलूब (फ़ारसी)
- मुफ़ालीत आमा (अरबी)
- सिर्रुल खवास (फ़ारसी)
- किताबुल मुबीन (अरबी)
- मुरातिब वजूद (फ़ारसी)
- रिसाला इआनतुल अख्वान (फ़ारसी)
- मोनिसुल आरीफीन (फ़ारसी)
शाह मुहिबउल्लाह द्वारा रचित इन समस्त पुस्तकों में शेख मुहीउद्दीन इब्ने अरबी के विचारों की व्याख्या विभिन्न रूप में की गई है ताकि साधारण से साधारण व्यक्ति भी वहदतुल वुजूद जैसे सूक्ष्म विषय से अवगत हो जाये। इनमें से अनेक पुस्तकें आज भी आधुनिक सज्जादानशीन शाह सैफउल्लाह साद मियां बहादुरगंज इलाहाबाद के पुस्तकालय में मौजूद है।
दायरा हज़रत शाह मुहिबउल्लाह
संपादित करें
शाह मुहिबउल्लाह के इलाहाबाद आगमन से पूर्व दायरे का स्थान विशेष आबाद नहीं था। दायरे के
स्थापन से पूर्व यह स्थान शाह मुहिबउल्लाह के प्रमुख मुरीद काज़ी दाऊद का आवास था [16] जिसे
उन्होंने शाह मुहिबउल्लाह को खानकाह के तौर पर निवास करने के लिए प्रदान किया था। कुछ
समय बाद धीरे धीरे लोग यहां बसने लगे और आसपास भवनों का निर्माण होने लगा।
शाहजहां की फौज के शाही अफसर खानेजहां बहादुर लोधी ने उन्हें विशेष आदर दिया
सम्भवतः इसीलिये यह स्थान मुहल्ला बहादुरगंज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। [17]
सज्जादानशीन शाह हबीबउल्लाह के समय उनके मुरीदों ने इस दायरे को दायरा शाह हबीबउल्लाह कहना प्रारम्भ कर दिया उसके बाद यह प्रथा सी हो गयी कि प्रत्येक सज्जादानशीन के समय दायरे का नाम परिवर्तित होकर उसी के नाम के अनुसार पुकारा जाने लगा जैसे—दायरा शाह खलीलउल्लाह, दायरा शाह हुज्जतुल्ला। यह प्रथा बाद तक बनी रही तथा शाह हुज्जतुल्ला के बाद इसे फज़ल मियां का दायरा भी कह जाता रहा किन्तु अन्तोगत्वा इसे दायरा शाह मुहीबुल्ला के नाम से ही जाना गया और आधुनिक समय में भी इसी नाम से प्रसिद्ध है [18] इस दायरे को दायरा शाह मुहिबउल्लाह नाम से प्रसिद्ध होने के दो कारण है प्रथम यह कि शाह मुहिबउल्लाह ने इस दायरे की स्थापना की और द्वितीय यह कि नगर महापालिका में दायरा इसी नाम से अभिलिखित है। [19]
- शाह मुहिबउल्लाह की खानकाह:
लगभग तीन वर्ष बाद (1623 ई.) में शेख ने अपने परिवार को सदरपुर से इलाहाबाद बुलाया मुरीदों की भीड़ तथा मकान की कमी देखकर शेख के एक मुरीद काजी घासी ने बहादुरगंज स्थित एक मकान जहां आधुनिक समय दायरा स्थित है शेख को दे दिया। शेख ने भी उचित समझते हुए इसे स्वीकार कर लिया और इस स्थान पर परिवार वालों के साथ रहने लगे।[20] शाह मुहिबउल्लाह लगभग 20 वर्ष इलाहाबाद में रहे। हज़ारो की संख्या में लोग उनके मुरीद होकर लाभान्वित हुए। उनकी मृत्यु की तारीख का कता-निम्नलिखित है।
"शेख इरफा पनाह आली जाह-मज़हरे फैजे हक मुहिबउल्लाह, गौहरे मादने हकीकत बूद-अखतरे दरजए हकीकृत बूद" साले तरहीम ऊब नेक नफस-गुफत कुत्बुश शयूख मज़हरे हक-मरकदे ऊस्त दर इलाहाबाद–मौकए फैज़ मन्ज़िले इरशाद ।।
- खानकाह का आधुनिक स्वरूप
दायरा शाह मुहिबउल्लाह की शाही मस्जिद के साथ ही साथ दक्षिण एवं पूर्व की ओर खानकाह की एक भव्य इमारत है। दोहरे दालान वाली यह खानकाह पश्चिम पूर्व 35 फिट लम्बी और 16 फिट चौड़ी है। खानकाह के पांच दर बड़े और दो छोटे छोटे हैं। किनारे पर लाल पत्थर के दोहरे खंबे है।
- उर्स का आयोजन
प्रत्येक वर्ष इस्लामी पंचांग के अनुसार आठ और नौ रजब को शाह मुहिबउल्लाह का उर्स एवं फातिहा होता है। आठ रजब को सूर्यास्त के समय कीडगंज मज़ार पर फातिहा पढ़ा जाता है तथा नौ रजब को सुबह की नमाज़ के बाद कुरानखानी (कुरान का पाठ ) तथा जुहर की नमाज़ (मध्यान्ह) के बाद महफ़िल ए समा क़व्वाली व असिर की नमाज़ के बाद फातिहा बहादुरगंज स्थित शाह मुहिबउल्लाह के दायरे में होता है। इन अवसरों पर बड़ी संख्या में लोग उपस्थित होकर श्रद्धा के सुमन अर्पित करते हैं।
शाही मस्जिद दायरा शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी
संपादित करेंशाह मुहिबउल्लाह की मृत्यु का समाचार सुनकर बादशाह दारा शिकोह अत्यन्त दुखी हुआ उसने गवर्नर सूबा इलाहाबाद को आज्ञा भेजा कि शेख की सन्तान की सेवा में वजीफा निश्चित किया जाए तथा शेख के मजार पर एक भव्य एवं पक्के मकबरे का निर्माण कराया जाए जिसके लिये कुछ सामान दिल्ली से जा रहा है। गवर्नर मिर्ज़ा बाकी बेग ने निर्माण का कार्य प्रारम्भ ही कराया था कि शेख के खलीफा शेख मुहम्मद कबीर कन्नौजी एव दिलरूबा शाह तथा अन्य लोगो ने जो उस समय वहा उपस्थित थे शाह मुहिबउल्लाह ने उन्हें स्वप्न में दिखाया कि मेरी कब्र जिस दशा मे है वैसी ही रहने दो पक्का मकबरा एवं गुम्बद न बनाया जाए चूकि कब्र के चबूतरे का निर्माण कार्य हो चुका था उसी दशा में काम रोक दिया गया। आज भी मज़ार एव चबूतरा उसी स्थिति मे है मकबरे के लिए जो सामान आ चुका था वह वर्तमान समय जहां बहादुरगज में दायरा है वहां की मस्जिद एव दायरे के भवन निर्माण में लगा दिया गया।
शेख मुहिबउल्लाह की मृत्यु के उपरान्त पांच वर्षों मे शाही धन से मस्जिद बनकर तय्यार हुई। दायराशाह मुहिबउल्लाह बहादुरगंज स्थित इस भव्य मस्जिद जिसका निर्माण, उस निर्माण सामग्री से हुआ था जिसे दाराशिकोह ने शाह मुहिबउल्लाह का रौजा बनाने के लिए भेजा था किन्तु शाह ने अपने खलीफा दिलरुबा शाह को स्वप्न दिखाकर अपना रौजा बनवाने को मना कर दिया उसी निर्माण सामग्री से दायरे की कच्ची मस्जिद एवं खानकाह का निर्माण किया गया। मस्जिद के अन्दर अत्यन्त सुन्दर फारसी अक्षरों में मस्जिद निर्माण की तिथि फारसी कविता की पंक्तियों में खुदी हुई है।
- "शाह दरवेश दोस्त दारा शाह
- के दरश किबलए दुआ-आमद"
- "मस्जिदे साख्त बहरे आरिफे बकृत
- का बेना फख हर बेना आमद"
- दिल रोबा शाह बूद दर इरफा
- मिट गया है.
- ब हसब हर कसे बऊन रसद
- जाके फरज़न्द मुरतज़ा आमद"
"चू दिले ताला रबूदर ओस्त
- नामे ऊ शाह दिल रोबा आमद"
- "ब जहूर आयद अज़ करामाते ऊ
- उनचे अज़ जुमला औलिया आमद"
- "दर तरीके हेदायतो इरशाद
- आ मोहम्मद की हकनोमा आमद"
- "चूं ज़बराए सूरतो मानी
- अमरे खैरे चुनीबजा आमद"
- "साले तारीख इं खजिस्ता मोकाम
- मस्जिदे आरिफे खोदा आमद"
1063 हिजरी अर्थात 1652 ई. अनुवाद : दाराशिकोह ऐसा बादशाह है जो फकीरों से मित्रता करने वाला है जिसका दरवाजा दोआ का किबला बन गया। वक़्त के सूफी के लिए उसने मस्जिद बनवाई जिसकी बुनियाद हर बुनियाद (नींव) के लिए फ़ख़्र (गर्व) का कारण बन गई। दिलरुबा शाह मारफत वाले थे (उच्चकोटि के सूफी) (दूसरी पंक्ति मिटी हुई है पढ़ी नहीं जा सकती) जो लोग बातिनी शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे उनके हृदय को दिलरुबा शाह ने मोह लिया। उनका नाम शाह दिलरुबा है। उनकी करामात से ऐसी ऐसी चीजें प्रकाश में आती है जितनी कि कुल औलिया में होती है। बातिनी शिक्षा के तरीके में वह हज़रत मुहम्मद साहब के समान है। जाहिरी एवं बातिनी (दृश्य अदृश्य ) तरीके से उनसे भलाई के कार्य सम्पन्न हुए। इस मुबारक जगह की साले तारीख इस तरह निकलती है। "खुदा के पहचानने वाले बुजुर्ग की यह मस्जिद है। 1063 हिजरी मुताबिक 1652 ई. । मुगल स्थापत्य कला की यह शाही मस्जिद अत्यन्त सुन्दर बनी हुई है मस्जिद में विशेषकर खुसरूबाग में निर्मित भवनों एवं मकबरों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। मस्जिद का निर्माण काफी ऊंचाई पर किया गया है। मस्जिद में जाने के लिए सीढ़ियां बनी है। सर्वप्रथम बड़ा आंगन है सामने लगभग 2 फिट ऊंचाई पर मस्जिद का एक बड़ा भव्य दर है तथा इसके दोनों ओर दो छोटे दर हैं। अन्तिम दर के पास ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी है। मस्जिद के ऊपर एक अत्यन्त सुन्दर बहुत बड़ा गुम्बद है इसके उत्तर और दक्षिण में एक एक छोटे गुम्बद है। मस्जिद के प्रांगण के सामने पांच कमरे तथा उत्तर और दक्षिण में भी तीन कमरे है मस्जिद की सम्पूर्ण इमारत में अत्यन्त सुन्दर बेल बूटे बने हैं जो मुगल स्थापत्य कला का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण है। गुम्बद का अपना स्वयं एक सुन्दर स्वस्प है। मस्जिद के अन्दर छत में सुन्दर झाड़, बेल एवं गुलदस्ते की नक्काशी की गयी है।
सन्दर्भ
संपादित करें[[https://web.archive.org/web/20200720195833/https://www.qutubeallahabad.com/ Archived 2020-07-20 at the वेबैक मशीन]]
- ↑ हुसैन सैयद शौकत ज़िक्रउलमारिफ् पृष्ठ 10
- ↑ हयाते शैख़ उल कबीर खानकाह हज़रत शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी बहादुरगंज इलाहाबाद
- ↑ हुसैन, सैय्यद शौकत—जिकरुल मआरिफ पृष्ठ 113-114
- ↑ हकीम मुहम्मद बाकर-स्वान्हे उम्री हजरत शेख मुहीबुल्ला शाह इलाहाबादी पृष्ठ 26
- ↑ हफीज इलाहाबादी-मोख्तसर स्वान्हे हयात हजरत शेख मुहिबउल्लाह पृष्ठ 6, 7, 8
- ↑ हुसैन,सैय्यद शौकत-जिकरुल मआरिफ पृष्ठ 14, 15 हकीम, मुहम्मद बाकर-हजरत शेख मुहिबउल्लाह इलाहाबादी पृष्ठ 11, 12
- ↑ एस० एन० काकोरवी ने अपनी पुस्तक कवाकिब के पृष्ठ 54 पर शेख के लाहौर जाकर शिक्षा प्राप्त करने का समय 1037 हिजरी अर्थात 1627-28 ई० लिखा है।
- ↑ मुख्तसर सवाने हयात हज़रत शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी.
- ↑ हकीम मुहम्मद बाकर-स्वान्हे हयात हजरत शेख मुहिबउल्लाह इलाहाबादी पृष्ठ 32-33.
- ↑ शाह वली उल्ला मोहदिसे देहल्वी–अन्फासुल आरफीन पृष्ठ 243-244.
- ↑ हाफिज मुहम्मद ताहिर-शेख मुहिबउल्लाह आफ इलाहाबाद लाईफ एण्ड टाईम्स-इस्लामिक कल्चर हैदराबाद.
- ↑ कानूनगो डा० के० आर०-दाराशिकोह भाग प्रथम पृष्ठ 17
- ↑ नजीब अशरफ नदवी (एडिट) रुक्काते आलम गीरी भाग प्रथम पृष्ठ 325
- ↑ मकतुबात ए शेख़ उल कबीर खानकाह हज़रत शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी
- ↑ मसूद अनवर अलवी काकोरवी शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी मआरिफ उर्दू अगस्त 1984 पृष्ठ 135
- ↑ हफीज इलाहाबादी-मोख्तसर स्वान्हे हयात शेख मुहीबुल्ला इलाहावादी पृष्ठ 19-20
- ↑ हकीम मुहम्मद बाकर-स्वान्हे उमी हजरत शेख मुहीबुल्ला इलाहाबादी पृष्ठ 18
- ↑ मोलवी रहमान अली–तजकिरए ओलमाए हिन्द पृष्ठ 404
- ↑ हकीम मुहम्मद बाकर-स्वान्हे उम्री हजरत शेख मुहीबुल्ला इलाहाबादी पृष्ठ 18-33
- ↑ उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर इलाहाबाद 1968 पृष्ठ 404
- ↑ पत्रिका, समाचार पत्र, अक्तूबर 1990 पृष्ठ 4