मूलबंध
बंध मुद्राएँ शरीर की कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं जिनके द्वारा कुंडलिनी सफलतापूर्वक जाग्रत की जा सकती है। घेरंड संहिता में २५ मुद्राओं एवं महत्वपूर्ण हैं:
- (१) मूलबंध, (२) जालंधरबंध, (३) उड्डीयानबंध, (४) महामुद्रा, (५) महाबंध, (६) महावेध
- (७) योगमुद्रा, (८) विपरीतकरणीमुद्रा, (९) खेचरीमुद्रा, (१०) वज्रिणीमुद्रा, (११) शक्तिचालिनीमुद्रा, (१२) योनिमुद्रा।
उपर्युक्त अनेक क्रियाओं का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। किसी किसी अभ्यास में दो या तीन बंधों और मुद्राओं को सम्मिलित करना पड़ता है। यौगिक क्रियाओं का जब नित्य विधिपूर्वक अभ्यास किया जाता है निश्चय ही उनका इच्छित फल मिलता है। मुद्राओं एवं बंधों के प्रयोग करने से मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, बवासीर, खाँसी, दमा, तिल्ली का बढ़ना, योनिरोग, कोढ़ एवं अनेक असाध्य रोग अच्छे हो जाते हैं। ये ब्रह्मचर्य के लिये प्रभावशाली क्रियाएँ हैं। ये आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनिवार्य हैं।
घेरण्ड संहिता में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
- पार्ष्णिाना वाम पादस्य योनिमाकुचयेत्तत:।
- नाभिग्रंथि मेरूदंडे संपीड्य यत्नत: सुधी: ॥
- मेद्रं दक्षिणामुल्मे तु दृढ़बंध समाचरेत्।
- जरा विनाशिनी मुद्रा मूलबंधो निगद्यते॥
गुह्यप्रदेश को बाईं एड़ी पर संकुचित करके यत्नपूर्वक नाभिग्रंथि को मेरूदंड में दृढ़ता से संयुक्त करें। पुन: नाभि को भीतर खींचकर पीठ से लगाकर फिर उपस्थ को दाहिनी एड़ी से दृढ़ भाव से संबंद्ध करे। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह मुद्रा बुढ़ापे को नष्ट करती है। घेरंड संहिता में मूलबंध का फल इस प्रकार दिया हुआ है:
- जो मनुष्य संसार रूपी समुद्र को पार करना चाहते हैं उन्हें छिपकर इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से निश्चय ही महत् सिद्धि होती है। अत: साधक आलस्य का परित्याग करके मौन होकर यत्न के साथ इसकी साधना करे।
मतांतर में मूलबंध इस प्रकार वर्णित है:
- पादमूलेन संपीड्य गुदमार्ग सुमंत्रितं।
- बलादपानमाकृष्य क्रमादूर्द्ध समम्येसेत्।
- कल्पितीय मूलबंधो जरामरण नाशन:।
एड़ी से मध्यप्रदेश का यत्नपूर्वक संपीडन करते हुए अपान वायु की बलपूर्वक धीरे-धीरे ऊपर की ओर खींचना चाहिए। इसे ही मूलबंध कहते हैं। यह बुढ़ापा एवं मृत्यु को नष्ट करता है। इसके द्वारा योनिमुद्रा सिद्ध होती है। इसके प्रभाव से साधक आकाश में उड़ सकते हैं।
मूलबंध के नित्य अभ्यास करने से अपान वायु पूर्णरूपेण नियंत्रित हो जाती है। उदर रोग से मुक्ति हो जाती है। वीर्य रोग हो ही नहीं सकता। मूलबंध का साधक निर्द्वंद्व होकर वास्तविक स्वस्थ शरीर से आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करता है। आयु बढ़ जाती है। इसका साधक भौतिक कार्यो को भी उल्लासपूर्वक संपन्न करता है। सभी बंधों में मूलबंध सर्वोच्च एवं शरीर के लिये अत्यंत उपयोगी है।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- मूल बंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध (अखण्ड ज्योति)
- लाभदायक मूलबंध योग (वेबदुनिया)
- मूलबंध : ब्रह्रम्चैर्य – उपलब्धि की सफलतम विधि