इंडियन (अमेरिका के आदिवासी)

(मूल अमेरिकी आदिवासी से अनुप्रेषित)

महामेरिका के आदिवासी लोग (अमेरिण्डियन) 15 वीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशवादियों के आने से पहले अमेरिका के निवासी हैं, और जातीय समूह जो अब स्वयं को उन लोगों के साथ पहचानते हैं।

महामेरिका के कई आदिवासी लोग पारम्परिक रूप से शिकारी-संग्राहक थे और कई, विशेष रूप से ऐमज़ॉन घाटी में, अभी भी हैं, लेकिन कई समूह जलीय कृषि और कृषि का अभ्यास करते हैं। जबकि कुछ समाज कृषि पर अत्यधिक निर्भर थे, दूसरों ने कृषि, शिकार और संग्रह करने का मिश्रण किया। कुछ क्षेत्रों में, स्वदेशी लोगों ने स्मारकीय वास्तुकला, बड़े पैमाने पर संगठित शहरों, नगर-राज्यों, मुख्यत्वों, राज्यों, राजतन्त्रों, गणराज्यों, परिसंघों और साम्राज्यों का निर्माण किया। कुछ के पास अभियान्त्रिकी, वास्तुकला, गणित, खगोल शास्त्र, लेखन, भौतिकी, चिकित्सा, वृक्षारोपण और सिंचन, भूविज्ञान, खनन, धातुकर्म, मूर्तिकला और स्वर्णकार्य के ज्ञान की अलग-अलग उपाधि थी।

कोलंबस की भूल के कारण बाह्म जगत् उन्हें "इंडियन" नाम से जानता है। भारत की खोज में चले कोलंबस ने अमरीका को ही भारत जान लिया था और 1493 में लिखे गए अपने एक पत्र में उसने यहाँ के निवासियों का उल्लेख "इंडियोस" के रूप में किया था। इस भूभाग पर गोरी जातियों की सत्ता का विस्तार इंडियन समूहों की जनसंख्या के एक बड़े भाग के नाश का तथा सामान्य रूप से उनकी संस्कृतियों के हास का कारण हुआ। उनके छोटे-छोटे समूह इस विस्तृत भूभाग में विभिन्न क्षेत्रों में अब भी पाए जाते हैं, यद्यपि उनकी संख्या बहुत कम रह गई है। उनमें संस्कृति के कई धरातल हैं और वे कई भिन्न परिवारों की भाषाएँ बोलते हैं। समवर्ती गोरी जातियों के व्यापक सांस्कृतिक प्रभावों के कारण उनकी प्राचीन संस्कृति में बड़ी तीव्र गति से परिवर्तन हो रहे हैं। उन्हें विनष्ट होने से बचाने के लिए पिछले कुछ दशकों में शासन की ओर से विशेष प्रयत्न किए गए हैं।

अमरीकी इंडियनों की उत्पति के संबंध में समय-समय पर अनेक संभावनाएँ, कल्पनाएँ और मान्यताएँ उपस्थित की गई हैं। कुछ लोगों का अनुमान था कि वे इज़रायल की दस खोई हुई जातियों के वंशज है और कुछ लोग उन्हें सिकंदर की जलसेना के भटके हुए बेड़ों के नाविकों की संतान मानते हैं। उसके संबंध में यह धारणा भी थी कि वे किंवदंतियों में वर्णित "एटलांटिस महाद्वीप" अथवा प्रशांत महासागर के "मू" नामक काल्पनिक द्वीप के मूल निवासियों की संतान हैं। मध्य अमरीका की माया इंडियन जाति और प्राचीन मिस्र की स्थापत्यकला में समता दृष्टिगत होने के कारण यह अनुमान भी किया गया कि इंडियन मिस्र अथवा मिस्र से प्रभावित देशों से अमरीका आए। इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि जिस काल में माया इंडियनों ने मंदिरों का निर्माण आरंभ किया उसके कई हजार वर्ष पहले ही मिस्र की प्राचीन स्थापत्यशैली का ह्रास हो चुका था। अमरीका में प्राचीन मानव संबंधी वैज्ञानिक खोजें होने के पहले यह संभावता भी थी कि इंडियनों के पूर्वज इस भूमि पर मानव जाति की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में विकसित हुए हों, परंतु अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अमरीकी महाद्वीपों पर मानव जाति की कोई शाखा के विकासक्रम में इस भूभाग पर केवल लीमर, टारसियर और कतिपय जातियों के बंदरों के प्रस्तीकृत अवशेष ही मिले हैं। प्राचीन मानव जातियों के अध्येता परिश्रमपूर्वक खोज करने पर भी निकटमानव वानर अथवा प्राचीन मानव कोई अवशेष यहाँ नहीं पा सके हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि यहाँ मानव जाति की किसी शाखा के स्वतंत्र विकास की संभावना नहीं थी और यहाँ के प्राचीनतम निवासियों के पूर्वज संसार के किसी अन्य भाग से आकर ही यहाँ बसे होंगे।

विशेषज्ञों का मत है कि मानव इस भाग में बेरिंग स्ट्रेट के मार्ग से एशिया से आया। शारीरिक विशेषताओं की दृष्टि से इंडियन असंदिग्ध रूप से एशिया की मंगोलायड प्रजाति की एक शाखा माने जा सकते हैं। एशियों से अलास्का के मार्ग द्वारा इंडियनों के जो पूर्वज अमरीका आए थे, निश्चित रूप से वे आधुनिक मानव अथवा "होमो सेपियंस" के स्तर तक विकसित हो चुके थे। वे अपने साथ अपनी मूल एशियाई संस्कृति के अनेक तत्त्व भी अवश्य लाए होंगे। वे संभवत: अग्नि के उपयोग से परिचित थे और उन्होंने प्रस्तरयुगीन संस्कृति के अस्त्र शस्त्रों और उपकरणों का निर्माण और उपयोग भी सीख लिया था। मार्ग में जिस कठिन शीत का सामना करते हुए वे इस भूमि पर आए उससे सहज ही यह अनुमान भी किया जा सकता है कि वे किसी न किसी प्रकार के परिधान से अपने शरीर को अवश्य ढकते होंगे और संभवत: अस्थायी गृह-निर्माण-कला से भी परिचित रहे होंगे। यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने उस समय तक भाषा का कोई प्राथमिक रूप विकसित कर लिया होगा।

एशिया से कई हजार वर्षो तक अलग अलग दलों में मानवसमूह अमरीका की भूमि पर आते रहे। कई सौ वर्षो तक इन समूहों को बर्फ से ढके स्थलमार्ग से ही आना पड़ा; परंतु यह संभव है कि बाद में आनेवाले समूह आंशिक रूप से नावों में भी यात्रा कर सके हों। प्राचीन इंडियनों के प्राप्त अवशेषों के अध्ययन से यह धारणा निश्चित की गई है कि जो दल पहले यहाँ आए उनमें आस्ट्रेलायड-मंगोल प्रजाति की शरीरिक विशेषताएँ अधिक थीं और बाद में आनेवाले समूहों में मंगोलायड प्रजाति के तत्वों की प्रधानता थी। कालांतर में इन समूहों के पारस्परिक मिश्रण से इंडियनों में मंगोलायड प्रजाति की शरीरिक विशेषताएँ प्रमुख हो गई। ये आदि इंडियन अपने अपने साथ नव-प्रस्तर-युग के पहले की संस्कृतियों के कुछ तत्त्व इस भूमि पर लाए। क्रोबर ने उनकी मौलिक संस्कृति की पुनर्रचना का प्रयत्न करते हुए उन संस्कृति तत्वों की सूची बनाई है जो संभवत: आदि इंडियनों के साथ अमरीका आए थे। दबाव द्वारा या घिसकर बनाए हुए पत्थर के औजार, पालिश, किए हुए हड्डी और सींग के उपकरण, आग का उपयोग, जाल और टोकरे बनाने की कला, धनुष और भाला फेंकने के यंत्र और पालतू कुत्ते संभवत: इंडियनों की मूल संस्कृति के मुख्य तत्त्व माने जा सकते हैं।

एशिया से अमरीका आकर इंडियनों के पूर्वज अपनी मूल एशियाई शाखा से एकदम अलग हो गए अथवा उन्होंने उससे किसी प्रकार का संबंध बनाए रखा, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है। इस प्रकार के संबंधों को बनाए रखने में जो भौतिक कठिनाइयाँ थीं उनके आधार पर सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि यदि इन भूभागों में संबंध था भी तो वह अपने विस्तार और प्रभाव में अत्यंत सीमित रहा होगा। कालांतर में सांस्कृतिक विकास की जो दिशाएँ इन समूहों ने अपनाई वे बाह्म संस्कृतियों से प्रभावित नहीं हुई। नव-प्रस्तर-युग की संस्कृति का विकास इन समूहों ने स्वतंत्र रूप से किया। उन्होंने अल्पाका, लामा और टर्की आदि नए प्राणियों को पालतू बनाया। साथ ही, मक्का, कोको, मेनियोक या कसावा, तंबाकू और कई प्रकार की सेमों आदि वनस्पतियों की खेती उन्होंने पहले पहल आरंभ की। यह आश्चर्य का विषय है कि नव-प्रस्तर-युगीन माया इंडियनों ने ऐसे अनेक संस्कृतितत्वों का आविष्कार कर लिया जो यूरोप तथा संसार के अन्य भागों में ताम्र-कांस्य-युग की अपेक्षाकृत विकसित संस्कृतियों में आविष्कृत हुए। धातुयुग इस भाग में देर से आया, परंतु काँसे का उपयोग करने के बहुत पहले ही इज़टेक और माया इंडियन सोने और चाँदी को गलाने की कला सीख चुके थे। लौह संस्कृति इन समूहों में पश्चिम के प्रभाव से आई।

संस्कृति क्षेत्र

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इंडियन संस्कृतियों की समताओं और भिन्नताओं के आधार पर नृत्तत्ववेत्ताओं ने अमरीका को नौ संस्कृतिक्षेत्रों में विभाजित किया है। यहाँ इन संस्कृतिक्षेत्रों में मुख्य समूहों की सांस्कृतिक विशेषताओं की ओर संकेत मात्र ही दिया जाएगा।

1. आर्कटिक क्षेत्र- बरफ से ढके इस क्षेत्र में एस्किमों रहते हैं। शीतकाल में वे बरफ को काटकर विशेष रूप से बनाए गए घरों में रहते हैं। इन घरों को इग्लू कहते हैं। गरमी की ऋतु में वे थोड़े समय के लिए चमड़े के तंबुओं में रह सकते हैं। अधिकांशत: वे समुद्री स्तनपायी प्राणियों और मछलियों का मांस खाते हैं, ग्रीष्मकाल में उन्हें ताजे पानी की मछलियाँ भी मिल जाती हैं। उनका सामाजिक संगठन सरल है। एस्किमों जाति अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र समूहों में विभाजित है। प्रत्येक समूह का एक प्रधान होता है, किंतु वह अधिक शक्तिशाली नहीं होता। सरल सामाजिक संगठनवाले इन समूहों का धार्मिक संगठन बड़ा जटिल है। व्यक्तियों की अपनी दैवी रक्षक शक्तियाँ होती हैं। व्यक्ति और अदृश्य जगत् की शक्तियों में मध्यस्थ्ता का काम शामन करते हैं। सामाजिक वर्जनाओं के उल्लंघन के प्रायश्चित के लिए अपराध की सार्वजनिक स्वीकृति आवश्यक होती है। उनकी भौतिक संस्कृति के मुख्य तत्त्व हैं, चमड़े की नावें, धनुष, हार्पून, कुत्तों द्वारा खींची जानेवाली स्लेज गाड़ियाँ, बरफ काटने के चाकू और चमड़े के वस्त्र। वे हाथीदाँत को कोरकर छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाते हैं।

(2) उत्तर-पश्चिम-तट- इस क्षेत्र के मुख्य समूह हैं उत्तर में लिंजित, हैदा और सिमशियन, मध्य भाग में क्वाकिउट्ल और बेल्ला-कूला तथा दक्षिण में सालिश नूटका चिनूक। उनकी जीविका का अधिकांश समुद्रों से खाद्यप्राप्ति के विभिन्न साधनों द्वारा उपलब्ध किया जाता है। वनों में शिकार से और फलों के संकलन से भी उन्हें कुछ भोजन की प्राप्ति होती है वे वर्गाकार मकानों में रहते हैं जो लकड़ी के तख्तों से बनाए जाते हैं। उनके सामाजिक संगठन में श्रेणीभेद का बड़ा महत्त्व है। उनके तीन प्रमुख वर्ग हैं:-उच्चकुलीन श्रेणी, सामान्य श्रेणी और दास श्रेणी। उनमें पांटलेन नामक प्रथा प्रचलित है जिसमें सामाजिक सम्मान बढ़ाने के लिए संपत्ति का अपव्यव अथवा नाश सार्वजानिक रूप से किया जाता है। इन समूहों में परिवारों की अपनी दैवी रक्षक शक्तियाँ होती हैं। आवश्यक धार्मिक नृत्य के रूप में पौराणिक कथाओं को वे नाट्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। लकड़ी की खुदाई का काम उनकी भौतिक संस्कृति की विशेषता है। वे मिट्टी के बर्तन नहीं बनाते।

(3) कैलिफ़ोर्निया - इस क्षेत्र में यूरोक, करोक, हूपा, शास्ता, पोमो, मिवोक, मोनो, सेरेनो आदि समूह रहते हैं। उत्तर में उनके मकान लकड़ी के तख्तों से बनाए जाते हैं, दक्षिण में घरों के रूप में अधिक विविधता रहती है। खाद्य के लिए ये समूह अन्न पर अधिक अवलंबित हैं, शिकार और मछली पर कम। उनमें आनुवंशिक प्रधान होते हैं, परंतु समूह की शासन व्यवस्था सशक्त नहीं होती। उत्तर में श्रेणी स्थिति भेद की भावना प्रबल है, दक्षिण में नहीं। उनमें उच्च देव की कल्पना पाई जाती है। उत्तरी भाग में लकड़ी पर खुदाई होती है और मध्य तथा दक्षिणी भाग में टोकरे बनाए जाते हैं।

(4) मेकेजी - युकोन क्षेत्र-यहाँ के मुख्य समूह हैं कोहोटाना, कुटचिन, यलोनाइफ़, डोगरिब, स्लेव, केरियर, सर्सी आदि। ये केरिबाऊ, जंगल के छोटे जानवरों, ताजे पानी की मछलियों और जंगली फलों का उपयोग खाद्य के रूप में करते हैं। इनके मकान वायु अवरोधक छड़ियों मात्र से लेकर तख्तों और वृक्षों के तनों तक से बने होते हैं। पश्चिमी भाग में उनका सामाजिक संगठन शक्तिहीन गोत्रविभाजन और सामाजिक श्रेणियों पर आश्रित रहता है, पूर्व में उभयपक्षीय परिवार पर। राजकीय संगठन अधिक शक्तिशाली नहीं है। धर्म के क्षेत्र में व्यक्तिगत दैवी रक्षक शक्तियों में विश्वास तथा शामन लोगों का अस्तित्व पाया जाता है। वृक्षों की छाल का उपयोग इन समूहों की संस्कृति में मिलता है। इस सामग्री से छोटी छोटी नावें और बर्तन आदि बनाए जाते हैं। वे चर्मवस्त्रों का प्रयोग करते हैं। उनमें कला को कोई विशेष रूप विकसित नहीं हुआ।

(5) बेसिन-प्लेटो-क्षेत्र - इस क्षेत्र की संस्कृतियों को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है। बेसिन क्षेत्र के मुख्य समूह हैं--शोशोन, गोशियूट, पाइयूट और पेविओस्टो। कोलंबिया पठार पर थामसन, शुशवेय, फ्लैटहेड, नेज़-पसें और उत्तरी शोशान समूह रहते हैं। दोनों भागों में मरुस्थली संस्कृति के तत्वों का प्राधान्य है। अर्थव्यवस्था सेकलम और शिकार पर आश्रित है। पहले भाग में वायु अनुरोधक टट्टियों और प्यूबली शैली के मकान बनाए जाते हैं। प्रागैतिहासिक काल में जमीन खोदकर रहने का स्थान बनाया जाता था। दूसरे भाग में भूमिगत घरों का प्राधान्य है। दोनों भागों में समाज अनेक उभयपक्षीय दलों में विभाजित है, जिनमें प्रत्येक दल का एक प्रधान होता है। राजकीय संगठन का इन समूहों में अभाव है। धर्म शामन और दैवी रक्षक शक्तियों पर आश्रित रहता है। भौतिक संस्कृति का अल्प विकास और कला के किसी भी रूप का अभाव इन समूहों में दीख पड़ता है।

(6) समतल क्षेत्र - इस क्षेत्र के कुछ समूह, जैसे भंडान, हिदास्ता, एरिकारा, पोंका, आयोवा, ओमाहा और पवनी स्थायी ग्रामों में रहते हैं तथा ब्लैकफुड, ग्रोस वेंचर एसिनी बोइन, क्रो चेयिनी, डाकोटा, अपरापाहो, कियोवा, कोमांचे आति घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करते हैं।

स्थायी ग्रामों में रहनेवाले समूह वृक्षों के तनों से बने बड़े मकानों में रहते हैं। समाज गोत्र और गोत्रसमूहों में विभाजित है। इन समूहों के शक्तिशाली जातीय संगठन हैं। धार्मिक उत्सव ये बड़े सुव्यवस्थित रूप से मनाते हैं। व्यक्तिगत रक्षक शक्तियों में विश्वास के अतिरिक्त इनमें अनेक प्रकार से दैवी संकेत पाने के लिए यत्न किए जाते हैं। इन समूहों में चर्मवस्त्रों का प्रचलन है। सिर पर तरह तरह के पंख लगाए जाते हैं। मिट्टी के बर्तन, टोकरे आदि इनमें नहीं बनाए जाते। कला की दो सुनिश्चित शैलियाँ इनमें प्रचलित हैं। वे चमड़े पर यथार्थवादी शैली में चित्र अंकित करते हैं और विभिन्न प्रकार की डिजाइनें भी बनाते हैं।

घुमक्कड़ समूह चमड़े के बने टिपी नामक तंबुओं में रहते हैं और शिकार से अपनी जीविका अर्जित करते हैं। उत्तर और पूर्व में उनमें गोत्रविभाजन पाया जाता है, दक्षिण और पश्चिम में नहीं। राजकीय संगठन प्रजातंत्रीय प्रणाली का है। कोमांचे समूह के अतिरिक्त अन्य समूहों में जातीय संगठन है। युद्ध और शांति के नेता अलग होते हैं। इन समूहों में अनेक प्रकार की सैनिक तथा धार्मिक समितियाँ संगठित हैं। इनमें भी रक्षक शक्तियों में विश्वास पाया जाता है। सूर्यनृत्य तथा सामूहिक धार्मिक कृत्य की दृष्टि से ये प्रथम भाग के समकक्ष हैं।

(7) उत्तर-पश्चिम-क्षेत्र - यह भाग तीन उपसंस्कृति क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।

प्यूब्लो समूह में ताओस, सांटा क्लारा, कोचिटी, सेंटो डोमिनगों, सेन फेलिपी, सिया, जेमेज़, लागुंत, एकोमा, जूनी और होबी जातियाँ मुख्य हैं। आर्थिक व्यवस्था कृषि और पशुपालन पर आश्रित है। प्यूब्लो समूह पत्थरों से बने अनेक मंजिलोंवाले सामुदायिक घरों में रहते हैं। जातीय शासनव्यवस्था में धार्मिक अधिकारियों की सजा होती है। समाज में अनेक धार्मिक समितियाँ संगठित हैं। अनेक धार्मिक कृत्य सूर्य और पूर्वजों से संबंधित हैं। सामूहिक नाट्य इन समूहों के धार्मिक संगठन की एक प्रमुख विशेषता माने जा सकते हैं। भौतिक संस्कृति के क्षेत्र में ये मिट्टी के बर्तन बनाने और कपड़ा बुनने में दक्ष हैं। टोकरे बनाने की कला अधिक विकसित नहीं है। कला में मुख्य रूप हैं बर्तनों पर चित्रों का अंकन और कंबलों में आकर्षक डिजाइनें बुनना।

दूसरा भाग नवाहो और एपाचे आदि समूहों का है जो स्थायी रूप से एक स्थान पर नहीं रहते। ये अधिकांशत: बाजरे की खेती करते हैं। आधुनिक काल में इनमें भेड़ पालना भी आरंभ किया गया है। नवाहो लकड़ी और मिट्टी के बने मकानों में रहते हैं, एपाचे चमड़े के तंबुओं में। दोनों समूहों में केंद्रीय शासकीय व्यवस्था का अभाव है। समूह छोटे-छोटे दलों में विभाजित हैं। प्रत्येक दल का एक प्रधान होता है, पर उसकी शक्ति अधिक नहीं होती। धर्मव्यवस्था में पुजारियों और धार्मिक गायकों का स्थान महत्वपूर्ण होता है। रोगियों की चिकित्सा धार्मिक क्रियाओं और गायन से की जाती है। इन समूहों में बुनाई का कौशल विकसित रूप में दीख पड़ता है। भौतिक संस्कृति के अन्य पक्ष अधिक उन्नत नहीं हैं। दोनों समूहों में कंबलों में तरह-तरह की डिजाइनें बुनी जाती हैं और बालुकाचित्रांकन किया जाता है। नवाहो चाँदी का काम करते हैं औए एपाचे मनकों का।

तीसरे भाग में कोलोराडो-गिला क्षेत्र में मोहावे, यूमा, पिमा, पपागो, आदि समूह आते हैं। इनका सामाजिक संगठन बहुत कुछ नवाहो, एपाचे आदि के संगठनों से मिलता जुलता है। धर्म का सामूहिक पक्ष अविकसित है, व्यक्ति और परिवार धार्मिक संगठन की स्वतंत्र इकाइयाँ माने जा सकते हैं। इनकी भौतिक संस्कृति के मुख्य तत्त्व हैं टोकरे बनाना और कपड़े बुनना। कला का विकास इनमें बहुत कम हुआ है।

(8) उत्तर पूर्व का वनक्षेत्र - इस क्षेत्र के मुख्य समूह हैं क्री, ओजिबर्व, इरोक्वाई, मोहिकन, विनेबागौ, फाक्स, साऊक आदि। ये वनाच्छादित प्रदेश में रहते हैं जहाँ कठिन शीत पड़ता है। ये समूह खेती के साथ बड़े पैमाने पर शिकार भी करते हैं। झीलों में मछलियों पकड़ी जाती हैं और जंगली धान की खेती होती है। समाज का विभाजन गोत्रों में होता है जिनके अपने गोत्रचिह्न (टोटेम) होते हैं। उत्तरी भाग को छोड़कर शेष क्षेत्र में सशक्त तथा सुसंगठित शासनव्यवस्था है। इरोक्वाई समूहों ने तो अपना स्वतंत्र राज्यसंघ बना लिया था जिसका विधान उल्लेखनीय था। इन समूहों में व्यक्ति की दैवी रक्षक शक्तियों में विश्वास किया जाता है। भौतिक संस्कृति के मुख्य तत्त्व हैं धनुष, युद्ध की गदाएँ, लकड़ी को खोदकर बनाई गई और वृक्षों की छाल की नावें, चमड़े के वस्त्र, बरफ़ में पहनने के जूते और मिट्टी के बर्तन। इन समूहों में मनकों का कलापूर्ण काम किया जाता है। इरोक्वाई लकड़ी के चेहरे भी बनाते हैं।

(9) दक्षिण पूर्व का वनक्षेत्र - शावनी, चेरोकी, क्रीक, नाबेज़ आदि समूह इस क्षेत्र में निवास करते हैं। आर्थिक व्यवस्था में कृषि और शिकार का समान महत्त्व है। वर्गाकार और वृत्ताकार, दोनों प्रकार के घर इन समूहों में बनाए जाते हैं। समाज गोत्र और गोत्रसमूहों में संगठित है। वर्गभेद के साथ सशक्त राजकीय संगठन भी इन समूहों में विकसित हुआ है। सूर्य और अग्नि को केंद्र बनाकर अनेक धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं। ये समूह मंदिरों का निर्माण भी करते हैं। पुजारी और शामन, दोनों शक्तिशाली होते हैं। चमड़े और वृक्षों की छाल के वस्त्रों का उपयोग किया जाता है। विशेष प्रकार की चटाइयाँ और टोकरे बनाना तथा बेत का उपयोग इन समूहों की भौतिक संस्कृति की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। इनकी कला पर मध्य अमरीका के अनेक प्रभाव लक्षित होते हैं।

इंडियन समूहों में बड़ी तीव्र गति से संस्कृति परिवर्तन हो रहा है। उनके जीवन के प्रत्येक पक्ष में अमरीका की नव संस्कृति के व्यापक प्रभाव सहज ही देखे जा सकते हैं।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ ग्रन्थ

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  • कालिगर, जान: द इंडियन ऑव द अमेरिकाज़, न्यूयार्क, नार्टन ऐंड कंपनी, 1947;
  • वर्टेन, ई. (संपादक) : द इंडियन्स ऑव नार्थ अमेरिका, न्यूर्याक, हार्कोट प्रेस ऐंड कंपनी, 1927;
  • क्रोबर, ए.एल. : कल्चरल ऐंड नैचुरल एरियाज़ ऑव नेटिव नार्थ अमरीका, बर्कले, युनिवर्सिटी ऑव केलिफोर्निया प्रेस, 1949;
  • लिंटन, राल्फ: द ट्री ऑव कल्चरल न्यूयार्क, एल्फ्रेड ए. कनाफ़, 1955।

बाहरी कड़ियाँ

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