एक अनुमान के अनुसार उनका जन्म 15 फरवरी 1918 को बरोणा  तहसील-खरखौदा (जिला-सोनीपत) हरियाणा में नंदराम के घर हुआ। चार भाइयों भूप सिंह, मांगेराम, कंवर सिंह व एक बहन सहजो में वह सबसे बड़े थे।

फौजी मेहर सिंह
जन्म 15 फ़रवरी 1918
बरौणा, सोनीपत, हरियाणा
मृत्यु 1945
रंगून,म्यांमार

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा संपादित करें

परिवार की माली हालत के चलते पढऩे में होशियार होने के बावजूद वे तीसरी जमात से आगे नहीं पढ़ सके। पढ़ाई छूट जाने के कारण वे पशु चराने व कृषि कार्यों में हाथ बंटाने लगे। घर में रागनी पर पाबंदी होने के कारण जब भी जहां भी मौका मिलता, रागनी गाने बैठ जाते। रागनी गाने में इतने मशगूल हो जाते कि उन्हें अपने काम व समय का ख्याल नहीं रहता था।

आरंभिक दिन संपादित करें

बताया जाता है कि वे एक बार हल जोतने के लिए किढौली गांव की सीमा से लगते खेतों में गए। इससे पहले कि वे अपना काम शुरू करते खाल खोदने के लिए आए किढौली वासियों ने उनसे गाने की फरमाइश कर डाली। लिहाजा सुबह सवेरे ही गाने का दौर चल पड़ा। मेहर सिंह का भाई भूप सिंह दोपहर का खाना लेकर पहुंचा तो देखा कि बैल जहां के तहां खड़े हैं और किढौलीवासी भी खाल खोदने की बजाय रागनी सुनने में मशगूल हैं। घटना का पता चलने पर मेहर सिंह के पिता काफी नाराज हुए, क्योंकि उनका मानना था कि रागनी गाने का काम जाटों का नहीं बल्कि डूमों का है। मेहर सिंह के रागनी गायन से तंग आकर उनके पिता ने उसकी शादी समसपुर के लखीराम की पुत्री प्रेमकौर से करा दी। इसके बावजूद रागनी लिखने व गाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। आखिरकार उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध 1936 में जाट रेजिमेंट में भर्ती करवा दिया। फौज में भर्ती होने पर उन्होंने रागनी के जरिए अपनी अभिव्यक्ति यों दी।


“देश नगर घर गाम छूटग्या,कित का गाणा गाया रै।

कहै जाट तै डूम हो लिया, बाप मेरा बहकाया रै।।”


लेखनी थामने वाले हाथों को बंदूक थामना गवारा नहीं था। शायद इसी कारण उन्हें छुट्टी बिताने के बाद लौटना भारी लगता था। उनके मन का बोझ इन पंक्तियों में साफ झलकता है-


“छुट्टी के दिन पूरे होगे, फिकर करन लगा मन में।

बांध बिस्तरा चाल पड़ा,के बाकि रहगी तन में।”

रचनाओं का फैलाव संपादित करें

हरियाणा के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा राजस्थान में मेहर सिंह के लिखे किस्से व रागनियों को बड़े चाव से गाया व सुना जाता है। फौजी जीवन का उनकी लेखनी पर इतना प्रभाव था कि उन्होंने फौजी जिंदगी को आधार बनाकर अनेक रचनाएं रचीं। ऐसा नहीं है कि केवल फौजी जिंदगी पर ही उनकी लेखनी चली हो, उन्होंने पारस्परिक मिलन, विरह, सुख-दु:ख सहित कृषक जीवन पर भी खूब लिखा।

फौजी के रूप में उनका जीवन संपादित करें

फौजी जीवन का उनका व्यक्तिगत अनुभव कितना ही कटु रहा हो, लेकिन देश के सच्चे सिपाही होने के नाते उन्होंने अपनी रागनियों से सदैव सैनिकों का मनोबल ही बढ़ाया। एक फ़ौजी होने के कारण उनकी रचनाओं में फ़ौज के जीवन, युद्ध इत्यादि का उल्लेख स्वभाविक है।  आजाद हिंद फौज के नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों को उन्होंने एक रागनी में कुछ यूं व्यक्त किया-


“घड़ी ना बीती ना पल गुजरे, उतरा जहाज शिखर तै।

बरसण लागै फूल बोस पै, हाथ मिले हिटलर तै।।”

उनके फौजी जीवन का अहसास एक कवि द्वारा इस रागनी में बखूबी किया गया है –


“साथ रहणियां संग के साथी, दया मेरे पै फेर दियो।

देश के ऊपर जान झौंक दी, लिख चिट्ठी में गेर दियो।”


फौजी जीवन व कला में अनूठा तालमेल बनाने वाले मेहर सिंह ने 1945 में रंगून में नश्वर संसार को छोड़ गए। उनकी शहादत को याद करते हुए शहीद मेहर सिंह स्मारक समिति उनकी जयंती के अवसर पर 15 फरवरी को गांव बरोणा में पिछले कई वर्षों से रागनी गायन कार्यक्रम आयोजित कर रही है।


सन्दर्भ संपादित करें

इन्हें भी देखें संपादित करें