रामदहिन मिश्र (चैत्र पूर्णिमा सं. १९४३ वि. - १ दिसम्बर १९५२) हिन्दी साहित्यकार, प्रकाशक एवं साहियशास्त्री थे।

हिन्दि काव्य का उदाहरण।

जीवन परिचय संपादित करें

इनका जन्म चैत्र पूर्णिमा सं. १९४३ वि. ग्राम पथार, जिला आरा (बिहार) के शाकद्वीपीय परिवार में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई और बाद में साहित्य तथा संस्कृत व्याकरणादि की शिक्षा डुमरॉव एवं टेकरी संस्कृत पाठशाला से मिली थी। इसके पश्चात् ये काशी गए और वहीं से व्याकरण, वेदांत, न्याय एवं अंग्रेजी का सम्यक् अध्ययन किया।

इनका सबसे पहला लेख 'बिहार बंधु' (सन् १९०७ ई.) में प्रकाशित हुआ जिससे इनके साहित्यिक जीवन का सूत्रपात्र हुआ। सन १९०३ ई. में इन्होंने निजी प्रकाशन ग्रंथमाला कार्यालय की स्थापना की। ये १९२८ ई. तक प्रकाशन का व्यवसाय और अध्यापनकार्य साथ-साथ चलाते रहे। तत्पश्चात् अध्यापन की नौकरी त्याग दी और पूरी तरह से प्रकाशन व्यवसाय में जुट गए। इन्होंने सन १९३७ से 'किशोर' का संपादन करना शुरू किया। १९४३ ई. में प्रकाशन का संपूर्ण कार्यभार अपने पुत्र के ऊपर छोड़कर स्वयं एकांत साहित्यसाधना में लीन हुए। इनका निधन १ दिसम्बर १९५२ ई. को वाराणसी में हुआ।

कृतियाँ संपादित करें

'काव्यालोक' (द्वितीय उद्योत, १९४० ई.), 'काव्यदर्पण' (१९४७ ई.), 'काव्य में अप्रस्तुत योजना' (१९५० ई.) और 'काव्यविमर्श' इनके प्रधान ग्रंथ हैं। 'काव्यदर्पण' संस्कृत ग्रंथ 'काव्यप्रकाश' और साहित्यदर्पण की पद्धति का ही ग्रंथ है जिसमें काव्य के सर्वगों का विवेचन किया गया है। उदाहरण में आधुनिक कविताओं को रखा गया है, जो इसकी महत्वपूर्ण विशेषताओं में से है। 'काव्यालोक' में शब्दशक्ति - अभिधा, लक्षणा, व्यंजना-आदि का सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद प्रभेदों के साथ विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी प्रकार साहित्य, काव्य, कवि आदि का गभीर विवेचन-विश्लेषण 'काव्यविमर्श' में हुआ है। इस तरह, उन्होंने काव्य के सर्वांगों पर गंभीरता से विचार किया है।

उन्होंने पाश्चात्य और पौर्वात्य साहित्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया।