राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन

अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के विरुद्ध भारतीयों की लड़ाई उसी दिन से प्रारम्भ हो गई थी जिस दिन से इस प्रणाली का बीज भारत की धरती में बोने का प्रयास किया गया था। वस्तुतः, अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली से छुटकारा पाना और राष्ट्र्रीय शिक्षा-प्रणाली का आविष्कार करना भारत के स्वातंत्र्य आन्दोलन की मूल प्रेरणाओं में से एक प्रमुख प्रेरणा रही है। इसलिए ब्रिटिश दासता के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा की खोज की दिशा में भी अनेक प्रयोग प्रारम्भ किए गए। डी०ए०वी० आंदोलन, गुरुकुल काँगड़ी आंदोलन, शांतिनिकेतन की स्थापना, बंग-भंग विरोधी आंदोलन के समय राष्ट्रीय विद्यालयों की शृंखला का जन्म, असहयोग आन्दोलन के समय विद्यापीठों का उद्भव, बेसिक शिक्षा, अरविंद आश्रम का विद्यालय आदि-आदि अनेकानेक प्रयोग ऐसे मनीषियों के द्वारा आरम्भ किए गए।

इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों द्वारा प्रसारित की गई पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति व ज्ञान-विज्ञान के स्थान पर ऐसी शिक्षा का प्रचार करता था, जो भारतीय संस्कृति व जनता के अनुरूप हो। इसके अलावा राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रदूत अंग्रेजी भाषा के घोर विरोधी थे, इसलिए वे शिक्षा की अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा के माध्यम से प्रदान करने के पक्षधर थे। यह आन्दोलन १९वीं और २०वीं शताब्दी के सन्धिकाल में आरम्भ हुआ और स्वतंत्रता प्राप्ति तक ही नहीं, उसके उपरान्त भी न्यूनाधिक चलता रहा।

1905 ई० के बंगाल-विभाजन ने राष्ट्रीय आन्दोलन एवं ‘राष्ट्रीय शिक्षा' की माँग को गति प्रदान की। बंगाल-विभाजन की घोषणा के फलस्वरूप समस्त भारत में असंतोष की लहर उत्पन्न हो गयी। भारतीय विद्यार्थियों ने अपने असंतोष को व्यक्त करने हेतु सभायें कीं और जूलूस निकाले। उन्होंने बंगाल विभाजन की तीखी आलोचना की। कठोर अनुशासन में विश्वास करने वाले कर्जन के लिए उनके ये कार्य असह्य थे। कर्जन ने बंगाल विभाजन का विरोध करने वाले नेताओं पर दमन-चक्र चलाया और छात्रों को राजनीति से अलग रहने की आज्ञा दी। उसने स्पष्ट रूप से यह घोषित किया कि उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा संस्थाओं से निकाल दिया जायेगा। विद्यार्थियों ने उसके आदेशों की अवहेलना करते हुए शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया। ज्यों-ज्यों राष्ट्रीय आन्दोलन तेज होता गया त्यों-त्यों शिक्षा के राष्ट्रीयकरण तथा स्वदेशीकरण की माँग बढ़ती गयी और भारत के कोने-कोने में भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण का विरोध होने लगा।

1906 ई० में जब अंग्रेज सरकार ने 'जापान की शिक्षा प्रणाली' नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित की तब भारतीय लोग शिक्षा के प्रसार की बड़ी तेजी से माँग करने लगे। बड़े-बड़े नेताओं ने देश के लिए औद्योगिक व राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत शिक्षा की आवश्यकता पर बल देना आरम्भ किया।

राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के कारण

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ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली में निहित दोष थे। इसका चरित्र में राष्ट्रीय नहीं था। यह भारतीय विरोधी होने के साथ-साथ मारक भी था। यह एक विशेष वर्ग के लोगों के हाथों में सीमित थी और सामान्य जनता को शिक्षा की तत्कालीन व्यवस्था से लाभ नहीं मिला। शैक्षिक प्रशासन पूरी तरह से यूरोपीय नौकरशाहों के हाथों में था। विदेशी शासक द्वारा शुरू की गई शिक्षा की प्रणाली का भारतीय परम्परा और संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था। छ) शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी था और मातृभाषा को पूरी तरह से उपेक्षित किया गया था।

राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का तात्कालिक कारण लॉर्ड कर्जन की नीतियाँ थीं। कर्जन घोर साम्राज्यवादी था। बंग-भंग के बाद आरम्भ हुआ स्वदेशी आंदोलन ने राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया।

कुछ अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों जैसे बोअर युद्ध, युवा तुर्क आन्दोलन, फ्रांसीसी क्रांति, बर्मी युद्ध, रूस-जापान युद्ध, प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) और मॉर्ले-मिन्टो सुधारों ने भी राष्ट्रीय शिक्षा को प्रभावित किया।

राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के विभिन्न चरण

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प्रथम चरण (1906 -1910)

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यह स्वदेशी आंदोलन या बहिष्कार आंदोलन या बंगाल विभाजन आंदोलन के साथ-साथ चला। यह आन्दोलन बंगाल की सीमा के भीतर सीमित था। लेकिन बंगाल के बाहर, विशेष रूप से महाराष्ट्र और पंजाब में थी लोगों की इससे सहानुभूति थी। पहला चरण राष्ट्रीय शिक्षा परिषद और अन्य राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना से जुड़ा था।

सतीश चंद्र मुखर्जी ने 1902 में 'डॉन सोसाइटी' की स्थापना की। उन दिनों बंगाल के युवाओं पर इसका जबरदस्त प्रभाव था। बिनय सरकार इसके मुख्य आयोजक थे। 'द डॉन' पत्रिका 1904 में प्रकाशित हुई और डॉन सोसाइटी का मुखपत्र बन गया। 1901 में बोलपुर में ब्रह्मचर्य विद्यालय की स्थापना की गई थी।

1903 में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने हरिद्वार में कांगड़ा गुरुकुल की स्थापना की। इसके पूर्व स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की थी और शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली पर जोर दिया था। उन्होंने 1886 में लाहौर में एंग्लो-वैदिक कॉलेज की स्थापना की। ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति के विरोध में 9 नवंबर, 1905 को रंगपुर में पहला राष्ट्रीय स्कूल स्थापित किया गया था। उस दिन राजा सुबोधचंद्र मलिक ने राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना के लिए एक लाख रुपये का उदारतापूर्वक योगदान दिया। इसी के लिये से गौरीपुर (वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित) के विख्यात ज़मींदार ब्रोकेन-दाराकिशोर रायचौधरी, और मुक्ताघाट के महाराजा सूरजकान्त आचार्य ने क्रमशः 5 लाख और ढाई लाख का योगदान दिया।

नेशनल आर्ट स्कूल और नेशनल मेडिकल कॉलेज अस्तित्व में आया। पूर्वी बंगाल में चालीस राष्ट्रीय स्कूल तथा पश्चिम बंगाल में ग्यारह ऐसे स्कूल स्थापित किए गए। 16 मार्च, 1906 को डॉन सोसायटी को राष्ट्रीय शिक्षा परिषद में परिवर्तित कर दिया गया था। परिषद ने बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा के लिए एक व्यापक योजना बनाई। 14 अगस्त, 1906 को कलकत्ता के टाउन हॉल में एक बैठक हुई। इसकी अध्यक्षता श्री आशुतोष चौधरी ने की। इसमें रवीन्द्रनाथ ठाकुर और सर गुरुदास बनर्जी सहित बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया।

बंगाल नेशनल कॉलेज और स्कूल पहले बउबाजार में स्थापित किए गए थे और इन्हें बाद में जादवपुर में स्थानांतरित कर दिया गया था। श्री अरबिंदो इसके पहले प्रमुख और सतीश चंद्र मुखर्जी इसके पहले मानद अधीक्षक बने। श्री अरबिंदो के इस्तीफे के बाद, सतीशचंद्र इसके प्रमुख बन गए। “तकनीकी शिक्षा के संवर्धन के लिए समाज” की स्थापना 1906 में तारकनाथ पालित ने की थी। "बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए समाज" भी सर गुरुदास बनर्जी द्वारा स्थापित किया गया था।

सन् 1910 ई0 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने इलाहाबाद अधिवेशन में और मुस्लिम लीग ने अपने नागपुर अधिवेशन में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किये।

गोपाल कृष्ण गोखले का प्रस्ताव

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बड़ौदा राज्य की निःशुल्क अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की योजना से अनुप्रेरित होकर गोपाल कृष्ण गोखले ने 19 मार्च, 1910 ई. को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल के सदस्य के रूप में इस काउन्सिल के सामने निम्नलिखित प्रस्ताव रखे-

  • जिन क्षेत्रों में तैंतीस प्रतिशत बालक शिक्षा प्राप्त करते हैं, वहाँ 6 से 10 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए।
  • स्थानीय संस्थाएं तथा सरकार मिलकर इस शिक्षा व्यय को 1:2 के अनुपात में वहन करें।
  • प्राथमिक शिक्षा की देखभाल के लिए पृथक रूप से एक सेक्रेटरी रखा जाए।
  • केन्द्र में प्राथमिक शिक्षा के लिये पृथक से एक शिक्षा विभाग गठित किया जाए।
  • प्रतिवर्ष बजट प्रस्तुत करते समय प्राथमिक शिक्षा की प्रगति का उसमें वर्णन किया जाए।

सरकार ने उपर्युक्त प्रस्तावों पर विचार करने का आश्वासन दे दिया तो गोपाल कृष्ण गोखले ने अपने प्रस्ताव वापस ले लिये। सरकार ने केन्द्र में एक प्राथमिक शिक्षा विभाग स्थापित किया। बजट में इसकी प्रगति की चर्चा की जाने लगी। किन्तु सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। परिणामस्वरूप, शिक्षा की वांछनीय प्रगति न हो पाई। इससे क्षुब्ध होकर गोखले ने 16 मार्च, 1911 ई. को एक विधेयक प्रस्तुत किया। गोखले के शब्दों में, “इस विधेयक का उद्देश्य देश की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली को क्रमशः अनिवार्य बनाना है।”

आन्दोलन की तीव्रता में कमी

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1908 के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर फिर से नरमपंथियों का वर्चस्व हो जाने, 1910 में बंगाल-विभाजन को रद्द किये जाने और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किये जाने के परिणामस्वरूप बंगाल-विभाजन द्वारा उत्पन्न गर्मी और भावना समाप्त हो गई। 1910 के बाद राष्ट्रीय राजनीतिक आंदोलन भटक गया और इसके साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन भी चरमरा गया।

सरकार ने प्रशासन को भी कुछ उदार बनाया। दमन के साथ कुछ रियायत भी आई। राष्ट्रीय स्कूलों के छात्रों को आधिकारिक स्कूलों में प्रवेश की अनुमति दी गई थी। राष्ट्रीय नेताओं के बीच मतभेद भी दिखे। तारकनाथ पालित और रासबिहारी घोष ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में उदारतापूर्वक योगदान दिया न कि राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों को, विशेष रूप से राष्ट्रीय शिक्षा परिषद को।

दूसरा चरण (1911 - 1922)

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राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन जितनी तेजी से प्रारम्भ हुआ उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ सका। १९११ ई० में बंगाल-विभाजन की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी और इसके साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा के प्रति उत्साह समाप्त हो गया। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय शिक्षा की लगभग सभी संस्थायें बिखरने लगीं।

परन्तु 1920 ई० में समय ने फिर करवट बदला। माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार से निराश होकर महात्मा गांधी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ चलाया। उन्होंने देशवासियों से स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना और निर्माण का आह्वान किया। परिणाम यह हुआ कि सभी प्रान्तों में ‘राष्ट्रीय विद्यालयों’ की स्थापना हुई। इनमें प्रमुख थे- ‘बंगाल राष्ट्रीय विश्वविद्यालय’, ‘काशी विद्यापीठ’, ‘बिहार विद्यापीठ’ और ‘गुजरात विद्यापीठ’ तथा ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ ।

राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का दूसरा चरण पहले चरण की तुलना में अधिक व्यापक था। यह केवल बंगाल प्रेसीडेंसी तक सीमित नहीं था। आंदोलन के इस चरण में बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब, गुजरात, आंध्र और बिहार सहित पूरा भारत व्यावहारिक रूप से शामिल था।

1920 में नागपुर कांग्रेस में पारित प्रस्ताव ने सरकार द्वारा सहायता प्राप्त या नियंत्रित स्कूलों और कॉलेजों से बच्चों की क्रमिक वापसी तथा ऐसे स्कूलों और कॉलेजों के स्थान पर विभिन्न प्रांतों में राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की सलाह दी।

राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का दूसरा चरण अलीगढ़ में उत्पन्न हुआ। शिक्षकों और छात्रों दोनों ने संयुक्त रूप से ब्रिटिश सरकार के गैर-राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और राष्ट्र-विरोधी रवैये के खिलाफ विरोध किया। उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना की जो 1920 में चरित्र में राष्ट्रीय थी।

दूसरे चरण में राष्ट्रीय शिक्षा के विभिन्न सिद्धांतों की उत्पत्ति की विशेषता थी। श्रीमती एनी बेसेंट उस समय की एक महान शिक्षा-सिद्धांतकार थीं। राष्ट्रीय शिक्षा को उन्होंने निम्नलिखित तरीके से देखा:

हमें अपने अतीत को आँख बंद करके स्वीकार नहीं करना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा को मातृभूमि के लिए प्रेम पैदा करना चाहिए और गर्व और गौरवशाली देशभक्ति के माहौल में रहना चाहिए। इसे हर बिंदु पर राष्ट्रीय स्वभाव को पूरा करना चाहिए और राष्ट्रीय चरित्र का विकास करना चाहिए। मातृभाषा शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए।

महात्मा गांधी ने ‘यंग इण्डिया’ पत्र में एक लेख प्रकाशित कराया जिसमें भारतीय शिक्षा के विदेशी स्वरूप की घोर निन्दा की गई। महात्मा गांधी ने इस शिक्षा के चार प्रमुख दोष बताये, जो निम्न हैं-

  • यह शिक्षा अन्यायपूर्ण शासन से सम्बन्धित है।
  • इस शिक्षा में भारतीय संस्कृति को कोई स्थान नहीं है। यह विदेशी संस्कृति पर आधारित है।
  • इस शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मस्तिष्क का विकास है, वह हृदय को प्रभावित नहीं करती। उसमें हस्त-कार्यों हेतु कोई स्थान नहीं है।
  • इस शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा है जो एक विदेशी भाषा होने के कारण वास्तविक ज्ञान प्रदान नहीं कर सकती।

श्रीमती एनी बेसेण्ट ने भी भारतीय शिक्षा के अंग्रेजीकरण की तीखी आलोचना की और राष्ट्रीय शिक्षा की माँग की। उन्होंने कहा-

राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्रीय चरित्र को अधिक शीघ्रता से और निश्चित रूप से निर्बल बनाने के लिए इससे अधिक उत्तम उपाय और कोई नहीं हो सकता है कि बालकों की शिक्षा पर विदेशी प्रभावों और विदेशी आदर्शों का प्रभुत्व हो।

लाला लाजपत राय ने कहा:

शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली को देश के आर्थिक विकास पर जोर देना चाहिए। इसे व्यावसायिक शिक्षा के लिए पूरा करना चाहिए। देश का पहला कार्य देश की स्वतंत्रता है। स्वराज्य के बिना शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली असंभव है। भारत जैसे बड़े देश के लिए राष्ट्रीय शिक्षा निजी उद्यम द्वारा असंभव है।

गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा कि शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली के लिए पहली आवश्यक शर्त शिक्षा की आधिकारिक प्रणाली का भारतीयकरण है।

द्वितीय चरण के दौरान बड़ी संख्या में स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय अस्तित्व में आए। इनमें अलीगढ़ के राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय, गुजरात विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, बंगाल राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, कौमी विद्यापीठ, आंध्र प्रदेशपीठ आदि शामिल थे।

तीसरा चरण (1930-1938)

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1930 में गांधीजी द्वारा शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का तीसरा चरण शुरू हुआ। यह चरन व्यावहारिक रूप से अधिक सैद्धांतिक था। इस चरण के दौरान कोई ठोस या रचनात्मक कदम नहीं उठाया गया था।

इस चरण के दौरान गांधीजी ने बेसिक शिक्षा की अपनी प्रसिद्ध योजना को लागू किया। इस चरण के दौरान, राष्ट्रीय योजना समिति ने 1938 में शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय योजना बनाई थी। इसे राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा शुरू किया गया था क्योंकि यह नए संविधान के तहत वह नौ प्रांतों में सत्ता में आई थी। समिति की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने के कारण यह योजना निश्चित रूप से लागू नहीं की जा सकी। लेकिन निस्संदेह इसने भारत में बाद के शैक्षिक विकासों को प्रभावित किया।

राष्ट्रीय शैक्षिक आंदोलन स्थायी होने में विफल रहा। इस आंदोलन के दौरान स्थापित कई संस्थान धीरे-धीरे गुमनामी में चले गए। समय की कसौटी पर कुछ ही अस्तित्व में हैं। इनमें से जामिया मिलिया इस्लामिया, कांगड़ा गुरुकुल, नेशनल मेडिकल कॉलेज, जादवपुर पॉलिटेक्निक, विश्व-भारती, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, गुजरात विद्यापीठ के नाम विशेष रूप से शामिल हैं। ये अब देश के प्रमुख संस्थान हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन को विफल करने के लिये अंग्रेज सरकार ने विशेष प्रयत्न किये। सरकार की दमन और विरोध की नीति ने आंदोलन को कमजोर कर दिया। अनुशासन बनाए रखने के बहाने, सरकार ने कार्लाइल और पेडलर जैसे कुख्यात परिपत्र जारी किए। राष्ट्रीय संस्थानों के प्रमाण पत्र सरकार द्वारा रोजगार के प्रयोजनों के लिए मान्य नहीं थे। परिणामस्वरूप कई छात्र बाद में सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त स्कूलों में भर्ती हो गये। वित्त, आंदोलन से पहले एक बड़ी बाधा थी। देश के करोड़ों लोगों की शिक्षा केवल कुछ उदार-उदार जमींदारों के स्वैच्छिक दान के आधार पर नहीं की जा सकती थी। उनमें से कुछ ने आंदोलन के दौरान अजीबोगरीब समर्थन बंद कर दिया। राष्ट्रीय शिक्षा की अवधारणा और पैटर्न के संबंध में राष्ट्रीय नेताओं के बीच पूर्ण मतैक्य नहीं था।

सरकार का दृष्टिकोण आंशिक रूप से उदार था। इसने कुछ राजनीतिक रियायतों को स्वीकार किया और राष्ट्रवादी राय के साथ समझौता किया। तदनुसार बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया गया जिसने राष्ट्रीय भावना को शांत किया। सरकार द्वारा भारतीय मंत्रियों के नियंत्रण में शिक्षा के विषय का स्थानांतरण करके भी सरकार ने इस आन्दोलन को कमजोर कर दिया। भारत अधिनियम, 1919 ने आंदोलन की तीव्रता को कमजोर कर दिया।

राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त

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भारतीय राष्ट्रनायकों और शिक्षाविदों ने भारत में जिस राष्ट्रीय शिक्षा की माँग की उसके जो प्रमुख सिद्धान्त थे, वे निम्नलिखित हैं-

  • भारतीय नियन्त्रण : भारत के राष्ट्रीय नेता और राष्ट्रप्रेमी शिक्षाविदों ने भारतीय शिक्षा पर विदेशी नियन्त्रण को पूर्णतया अनुचित कहा। उन्होंने यह माँग की कि शिक्षा पर भारतीयों का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए। इस सम्बन्ध में श्रीमती एनी बेसेण्ट ने अत्यन्त स्पष्ट – शब्दों में कहा- ‘भारतीय शिक्षा – भारतवासियों द्वारा नियंत्रित, भारतवासियों द्वारा निर्मित और भारतवासियों द्वारा संचालित की जानी चाहिए।’
  • शिक्षा के आदर्श : राष्ट्रीय शिक्षा के आदर्श राष्ट्र के प्रति प्रेम और धार्मिक भावना का विकास होना चाहिए। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा के आदर्शों को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘भारतीय शिक्षा को भक्ति, ज्ञान एवं नैतिकता के भारतीय आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए और उसमें भारतीय धार्मिक भावना का समावेश होना चाहिए।’
  • मातृभूमि के प्रति प्रेम : तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत राजभक्ति की शिक्षा दी जाती थी। राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा सिद्धान्तों के अन्तर्गत ऐसी प्रणाली विकसित करने का सुझाव दिया जो मातृभूमि के प्रति प्रेम उत्पन्न करे। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने कहा कि छात्रों को इस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए जिससे उनमें मातृभूमि के प्रति प्रेम और आदर का भाव उत्पन्न हो ।
  • राष्ट्रीय चरित्र का विकास : राष्ट्रवादी नायकों ने यह मत व्यक्त किया कि तत्कालीन शिक्षा-व्यवस्था राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने में सक्षम नहीं है। इसके स्थान पर इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने में सक्षम हो। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते हुए यह कहा- ‘राष्ट्रीय शिक्षा को राष्ट्रीय चरित्र का विकास करना चाहिए।’
  • भारतीय भाषाओं पर बल : भारत के नेताओं ने यह कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा में भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर बल देकर इन्हीं भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए।
  • ब्रिटिश आदर्शों की समाप्ति : तत्कालीन शिक्षा भारतवासियों के सम्मुख ब्रिटिश आदर्शों को प्रस्तुत करती थी। राष्ट्रनायकों का यह विचार था कि यह आदर्श भारतीयों के लिए अहितकर है। अतएव उन्होंने इस शिक्षा का विरोध किया और भारतीयों के लिए भारतीय आदर्शों को उपयुक्त बताया। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने स्पष्ट किया- ‘ब्रिटिश आदर्श, ब्रिटेन के लिए अच्छे हैं, किन्तु भारत के लिए भारत के आदर्श ही अच्छे हैं।’
  • व्यावसायिक शिक्षा पर बल : भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग थी। स्वदेशी वस्तुओं का निर्माण पर्याप्त मात्रा में तभी हो सकता था जबकि भारतीय उद्योगों को बढ़ावा मिले। भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग हेतु व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक था। राष्ट्रीय नेताओं का यह भी विचार था कि देश की आर्थिक समस्या और भारतीयों की निर्धनता को दूर करने के लिए भी व्यावसायिक शिक्षा अति आवश्यक है। इसी कारण उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा में औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था पर बल दिया।
  • पाश्चात्य ज्ञान के समावेश पर बल : यह ठीक है कि राष्ट्रीय शिक्षा के अन्तर्गत भारतीय आदर्शों और भारतीय भाषाओं पर बल दिया गया। परन्तु साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थकों का यह भी विश्वास था कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में भारत का अन्य देशों से सम्पर्क होना आवश्यक था और इस कारण उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतीय छात्रों को पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञानों का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना चाहिए। लाला लाजपत राय का विचार था- ‘मेरे विचार से भारत में यूरोपीय भाषाओं, साहित्यों और विज्ञानों के अध्ययन को प्रोत्साहित न करने का प्रयास मूर्खता और पागलपन होगा।’

राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन की उपलब्धियाँ

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राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन ने देश में बाद के शैक्षिक विकास पर अनुकूल प्रभाव डाला। इसने भारत में शिक्षा की प्रगति पर 1912 -1917, 1917 -1922, 1922 -1927 और 1927-1932 बने रिपोर्टों को प्रभावित किया। देश में प्राथमिक शिक्षा के विकास पर इसका प्रभाव पड़ा। इसने प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त, सार्वभौमिक और अनिवार्य बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। श्री जीके गोखले ने 1910 और 1911 में प्राथमिक शिक्षा पर दो बिल इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में पेश किए। उनका मुख्य उद्देश्य कस्बों और शहरों में 6-10 आयु वर्ग के लड़कों के लिए प्राथमिक शिक्षा मुफ्त, सार्वभौमिक और अनिवार्य बनाना था। हालाँकि बिलों का दायरा बहुत सीमित था लेकिन उन्हें साम्राज्यवादी हाथों में हार का सामना करना पड़ा। फिर भी गोखले के बिलों से प्रेरित होकर, इसे स्वतंत्र, सार्वभौमिक और अनिवार्य बनाने के लिए विभिन्न प्रांतीय विधानसभाओं में बड़ी संख्या में प्राथमिक शिक्षा अधिनियम पारित किए गए थे। इनमें से बॉम्बे में पटेल अधिनियम (1918), बंगाल प्राथमिक शिक्षा अधिनियम (1919), मद्रास प्राथमिक शिक्षा अधिनियम (1920), बंगाल (ग्रामीण) प्राथमिक शिक्षा अधिनियम (1930) का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है। माध्यमिक शिक्षा भी राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के दूरगामी प्रभावों से मुक्त नहीं थी। इसने माध्यमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम को प्रभावी तरीके से प्रभावित किया। इसने माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायिक और तकनीकी से युक्त होने की तरफ अग्रसर किया।

राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन ने एक राष्ट्रीय भाषा के विकास पर जोर दिया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रश्न इसी काल में उत्पन्न हुआ। राष्ट्रेय शिक्षा आन्दोलन से नारी शिक्षा को भी बढ़ावा मिला। इसने महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाया। उच्च शिक्षा को भी राष्ट्रीय नेताओं के हाथों नई प्रेरणा मिली। यह आंदोलन के पुनरुद्धार की प्रवृत्ति का प्रत्यक्ष परिणाम था। कई विद्वान भारतविद्या (इंडोलॉजी) में रुचि रखने लगे और राष्ट्र के पिछले गौरव पर शोध कार्य शुरू किया। राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के परिणामस्वरूप स्कूल का माहौल भी बदला गया था। "वन्दे मातरम्" प्रार्थना को विभिन्न स्कूलों में लागू किया गया जो देशभक्ति बन गया। राष्ट्रीय नेताओं के चित्र विद्यालय की इमारतों की दीवारों पर लिखे गये। राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के कारण राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ जिसने बदले में मुक्ति के लिए राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया।

राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना

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देश के प्रति प्रेम रखने वाले उत्साही शिक्षाविदों ने शिक्षा का समुचित प्रबन्ध करना अपना राष्ट्रीय कर्त्तव्य माना। फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गयी। इस कार्य का नेतृत्व बंगाल ने किया। बंगाल में गुरुदास बनर्जी की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय शिक्षा प्रसार समिति’ (National Education Expansion Committee) का गठन किया गया जिसने सम्पूर्ण बंगाल में 51 हाईस्कूलों का निर्माण किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर, रास बिहारी बोस तथा अरविन्द घोष के प्रयासों के फलस्वरूप ‘नेशनल कॉलेज’ की स्थापना की गयी।

राष्ट्रीय शिक्षा परिषद

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सतीश चंद्र मुखर्जी ने बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद नामक एक संस्था स्थापित की जिसमें एक व्यापक, उदार तथा जीवनोपयोगी शिक्षा की रूपरेखा तैयार की गई। इस रूपरेखा में प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयों की शिक्षा तक के सभी प्रश्नों पर विचार करने की इच्छा व्यक्त की गई।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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