लौह अयस्क (Iron ores) वे चट्टानें और खनिज हैं जिनसे धात्विक लौह (iron) का आर्थिक निष्कर्षण किया जा सकता है। इन अयस्कों में आमतौर पर आयरन (लौह या iron) ऑक्साइडों की बहुत अधिक मात्रा होती है और इनका रंग गहरे धूसर से लेकर, चमकीला पीला, गहरा बैंगनी और जंग जैसा लाल तक हो सकता है। लौह आमतौर पर मेग्नेटाईट (magnetite) (Fe3O4), हैमेटाईट (hematite) (Fe2O3), गोएथाइट (FeO(OH)), लिमोनाईट (limonite) (FeO(OH)।n(H2O)), या सिडेराईट (siderite) (FeCO3), के रूप में पाया जाता है। हैमेटाईट को "प्राकृतिक अयस्क" भी कहा जाता है। यह नाम खनन के प्रारम्भिक वर्षों से सम्बंधित है, जब हैमेटाईट के विशिष्ट अयस्कों में 66% लौह होता था और इन्हें सीधे लौह बनाने वाली ब्लास्ट फरनेंस (एक विशेष प्रकार की भट्टी जिसका उपयोग धातुओं के निष्कर्षण में किया जाता है) में डाल दिया जाता था। लौह अयस्क कच्चा माल है, जिसका उपयोग पिग आयरन (ढलवां लोहा) बनाने के लिए किया जाता है, जो इस्पात (स्टील) बनाने के लिए बनाने में काम आता है।[1] वास्तव में, यह तर्क दिया गया है कि लौह अयस्क "संभवतया तेल को छोड़कर, किसी भी अन्य वस्तु की तुलना में वैश्विक अर्थव्यवस्था का अधिक अभिन्न अंग है।"[2]

हैमेताईट: ब्राजील की खानों में मुख्य लौह अयस्क
लौह अयस्क के छर्रों के इस ढेर का उपयोग इस्पात के उत्पादन में किया जाएगा।

धात्विक लौह की धरती की सतह पर उपस्थिति वस्तुतः अज्ञात है, परन्तु यह उल्काओं से मिलने वाले लौह-निकल मिश्र धातु में पाया जाता है और कभी कभी गहरे मेंटल ज़ेनोलिथ (xenoliths) में पाया जाता है। इसलिए, मानव उद्योगों के द्वारा काम में लिए जाने वाले लौह के सभी स्रोत लौह ऑक्साइड खनिज ही होते हैं, उद्योग में काम में लिए जाने वाला प्रारम्भिक रूप हैमेटाईट है।

हालांकि, कुछ स्थितियों में, लौह अयस्क के निम्न श्रेणी के स्रोतों का उपयोग औद्योगीकृत सोसाइटियों के द्वारा किया गया, जब उच्च श्रेणी का हैमेटाईट अयस्क उपलब्ध नहीं था। इसमें शामिल है, संयुक्त राज्य अमेरिका में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद टैकोनाईट (taconite) का उपयोग और अमेरिकी क्रांति और नेपोलियन के युद्ध के दौरान जोईथाईट और या बोग अयस्क (bog ore) का उपयोग। प्रागैतिहासिक समाज में लौह अयस्क के स्रोत के रूप में लैटराईट (laterite) का उपयोग किया जाता था। मैग्नेटाइट का उपयोग अक्सर इसलिए किया जाता है क्योंकि यह चुम्बकीय होता है और इसलिए इसे गेंग (gangue या अयस्क में पायी जाने वाली अशुद्धियां) से आसानी से मुक्त किया जा सकता है। लौह अयस्क के निम्न श्रेणी के स्रोतों को आमतौर पर शुद्धिकरण की आवश्यकता होती है। सिलिकेट्स के सापेक्ष हैमेटाईट के उच्च घनत्व के कारण, शुद्धिकरण के लिए आमतौर पर इसे छोटे टुकड़ों में तोडा जाता है (crushing जो क्रशिंग कहलाता है), इसके बाद इसे पीसा जाता है (milling जो मिलिंग कहलाता है) और भारी तरल पृथक्करण (heavy liquid separation) का उपयोग किया जाता है। इसके लिए अच्छी तरह से पीसे गए अयस्क को, बेंटोनाईट या किसी और एजेंट से युक्त विलयन के ऊपर से प्रवाहित किया जाता है, जिससे विलयन का घनत्व बढ़ जाता है। जब विलयन का घनत्व उपयुक्त स्तर तक पहुंच जाता है, हैमेटाईट डूब जाता है और सिलिकेट खनिज सतह पर तैरने लगता है और इसे सतह से हटा कर अलग किया जा सकता है।

लौह अयस्क की खनन विधियां अयस्क के प्रकार पर निर्भर करती हैं। वर्तमान में चार मुख्य प्रकार के लौह अयस्क भंडार पाए जाते हैं, जो अयस्क के भण्डार के भू विज्ञान (geology) और खनिज विज्ञान (mineralogy) पर निर्भर करते हैं। ये हैं मैग्नेटाइट (magnetite), टाईटेनोमैग्नेटाइट (titanomagnetite), मेसिव हैमेटाईट (massive hematite) और पिसोलिटिक आयरनस्टोन भण्डार (pisolitic ironstone deposits)।

बंधित लौह भण्डार (Banded iron deposits)

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उपचारित टैको नाईट के छर्रों का उपयोग इस्पात निर्माण उद्योग में किया जाता है, जिसके लिए यू एस क्वार्टर स्केल दर्शाया गया है।

बंधित लौह का निर्माण (Banded iron formations (BIF)) कायांतरित अवसादी चट्टानों से होता है जो मुख्य रूप से लौह खनिज और सिलिका (क्वार्टज़ के रूप में) की पतली परतों से बनी होती हैं। इसमें मौजूद लौह खनिज कार्बोनेट सिडेराईट (carbonate siderite) हो सकता है, परन्तु लौह अयस्क के रूप में काम में आने वाले खनिज में ऑक्साइड मैग्नेटाईट या हैमेटाईट होता है।[3] बंधित लौह निर्माण को उत्तरी अमेरिका में टैकोनाईट (taconite) के रूप में जाना जाता है। BIF के खनन में स्थूल क्रशिंग और स्क्रीनिंग की जाती है, इसके बाद क्रशिंग के साथ इसे बारीक पीसा जाता है, जिससे अयस्क ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है कि क्रिस्टलीकृत मैग्नेटाईट और क्वार्टज़ इतने बारीक हो जाते हैं कि जब परिणामी पाउडर को एक चुम्बकीय पृथक्कारक में से होकर प्रवाहित किया जाता है तो क्वार्टज़ पीछे छूट जाता है।

खनन की प्रक्रिया में अयस्क और व्यर्थ पदार्थों की बड़ी मात्रा की गतिविधियां शामिल हैं। व्यर्थ पदार्थ दो रूपों में होता है, खान में से निकली ऐसी चट्टानें जो अयस्क नहीं हैं, जो मुलोक (mullock) कहलाता है और अवांछित खनिज जो खुद अयस्क का आंतरिक हिस्सा है, जो गेंग (gangue) कहलाता है। मुलोक को खान से निकाल कर व्यर्थ पदार्थ के रूप में अलग कर दिया जाता है और गेंग को शुद्धिकरण या परिष्करण की प्रक्रिया के दौरान अलग किया जाता है और अवशेष के रूप में अयस्क में से हटाया जाता है। टैकोनाईट अवशेष अधिकतर खनिज क्वार्टज़ होते हैं, जो रासायनिक रूप से निष्क्रिय होते हैं। इस सामग्री को बड़े, विनियमित स्थिर पानी के तालाबों में संग्रहित कर लिया जाता है।

मुख्य बिंदु जो मैग्नेटाईट को आर्थिक दृष्टि से उपयोगी बनाते हैं, वे हैं, मैग्नेटाईट का क्रिस्टलीय गुण, BIF पोषक चट्टानों में लौह की श्रेणी और संदूषक तत्व जो सांद्रित मैग्नेटाईट में मौजूद होते हैं। अधिकांश मैग्नेटाईट स्रोतों का आकार और पट्टी अनुपात अप्रासंगिक होता है क्योंकि BIF का निर्माण सैंकड़ों मीटर मोटा होता है, इसमें सैंकड़ों किलोमीटर की परतें होती हैं, जिसमें आसानी से 2,500 मिलियन या अधिक टन अयस्क हो सकता है।

लौह की प्रारूपिक श्रेणी जिसमें बंधित लौह निर्माण से युक्त मैग्नेटाईट आर्थिक रूप से उपयुक्त हो जाता है, उसमें मोटे तौर पर 25% Fe (लौह) होता है। जिससे सामान्यतया 33% से 40% मैग्नेटाईट की प्राप्ति की जा सकती है, जो 64% सांद्रित लौह का उत्पादन कर सकता है। प्रारूपिक सांद्रित मैग्नेटाईट लौह अयस्क में 0। 1%से कम फॉस्फोरस, 3–7% सिलिका और 3% से कम एलुमिनियम होता है।

मैग्नेटाइट के कणों का आकार और सिलिका के द्रव्यमान के अनुसार इसका अंश यह निर्धारित करता है कि चट्टान को किस सीमा तक पीसा जाये ताकि एक उच्च शुद्धता से युक्त सांद्रित मैग्नेटाईट उपलब्ध कराने के लिए चुम्बकीय पृथक्करण की प्रक्रिया को प्रभावी रूप से किया जा सके। इससे यह निर्धारित होता है कि एक मिलिंग प्रक्रिया (पीसने की प्रक्रिया) के लिए कितनी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होगी। आम तौर पर अधिकांश मैग्नेटाईट BIF भण्डार को इतना पीसा जाता है कि कणों का आकार 32 से 45 माइक्रो मीटर हो जाए, ताकि कम सिलिका से युक्त सांद्रित मैग्नेटाईट प्राप्त किया जा सके। सांद्रित मैग्नेटाइट में सामान्यतया भार का 63% Fe (लौह) होता है और आमतौर पर कम फास्फोरस, कम एल्यूमीनियम, कम टाइटेनियम और कम सिलिका होते हैं और एक प्रीमियम कीमत पर इसकी मांग होती है।

वर्तमान में मैग्नेटाइट लौह अयस्क का खनन अमेरिका में मिनेसोटा और मिशिगन में किया जाता है और टैकोनाईट का खनन पूर्वी कनाडा में किया जाता है। BIF से युक्त मैग्नेटाइट का खनन वर्तमान में विशेष रूप से ब्राजील में किया जाता है, जो काफी अधिक मात्रा में इसे एशिया को निर्यात कर देता है और ऑस्ट्रेलिया में एक नया और बड़ा मैग्नेटाईट लौह अयस्क उद्योग है।

मेग्मा से बनने वाले मैग्नेटाइट अयस्क के भंडार

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कभी कभी ग्रेनाइट और अल्ट्रापोटेसिक आग्नेय चट्टानें मैग्नेटाईट के क्रिस्टलों को अलग करती हैं और सांद्रण के लिए आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त मैग्नेटाईट के पिंड बनाती हैं। लौह के कुछ भण्डार, खासकर जो चिली में हैं, ज्वालामुखी के प्रवाह से बनते हैं, जिनमें मैग्नेटाईट के लक्षण प्रारूप क्रिस्टलों (phenocrysts) का संग्रह होता है। अटाकामा रेगिस्तान में चिली के मैग्नेटाईट के लौह अयस्क भण्डार, इन ज्वालामुखी निर्माणों से निकलने वाली धाराओं में मैग्नेटाईट के जलोढ़ संचय बनाते हैं। iska mukhya ayask hematite hota hai अतीत में कुछ मैग्नेटाइट स्कार्न (skarn) और हाइड्रोथर्मल के भण्डार उच्च श्रेणी के लौह अयस्क भण्डार के रूप में काम करते थे जिन्हें बहुत कम परिष्करण की आवश्यकता होती थी। मलेशिया और इंडोनेशिया में इसी प्रकृति के कई ग्रेनाईट से सम्बंधित भण्डार भी हैं।

मैग्नेटाईट लौह अयस्क के अन्य स्रोतों में प्रभावी मैग्नेटाईट अयस्क के कायांतरित संचय शामिल हैं, जैसे तस्मानिया की सवाज नदी (Savage River) में पाए जाने वाले अयस्क जिनका निर्माण ओफियोलाईट अल्ट्रामाफिक्स (ophiolite ultramafics) के कटने से होता है।

लौह अयस्क का एक अन्य लघु स्रोत है परतों में जमने वाला मेग्मा का संचय जिसमें प्रारूपिक रूप से वेनेडियम से साथ टाईटेनियम से युक्त मैग्नेटाईट अयस्क होता है। ये अयस्क एक आला दर्जे का बाज़ार बनाते हैं, जिनमें लौह, टाइटेनियम और वेनेडियम के निष्कर्षण के लिए विशेष प्रकार के प्रगलकों का उपयोग किया जाता है। इन अयस्कों का शुद्धिकरण अनिवार्य रूप से बंधित लौह निर्माण अयस्क की तरह ही किया जाता है, परन्तु इन्हें आमतौर पर क्रशिंग और स्क्रीनिंग के द्वारा अधिक आसानी से परिष्कृत किया जा सकता है। प्रारूपिक सांद्रित टाईटेनोमैग्नेटाईट में 57% Fe (लौह), 12% Ti (टाईटेनियम) और 0। 5% V2O5 होता है।[उद्धरण चाहिए]

हैमेटाईट अयस्क

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हैमेटाईट लौह अयस्क के भण्डार वर्तमान में सभी महाद्वीपों में प्रयुक्त किये जाते हैं, इनका सबसे अधिक उपयोग दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया में किया जाता है। अधिकांश बड़े हैमेटाईट लौह अयस्क के भण्डार कायांतरित रूपांतरण (metasomatically) के द्वारा निर्मित बंधित लौह निर्माण होते हैं और कभी कभी आग्नेय के संचय भी हो सकते हैं।

हैमेटाईट लौह आमतौर पर BIF से युक्त मैग्नेटाईट या अन्य चट्टानों की तुलना में कम मिलता है, जो इसका मुख्य स्रोत या प्रोटोलिथ चट्टान बनाते हैं, परन्तु इससे लौह का निष्कर्षण सस्ता पड़ता है, क्योंकि इसमें लौह अवयव की उच्च मात्रा होती है, इसलिए इसे शुद्धिकरण या परिष्करण की आवश्यकता नहीं होती है। हालांकि, हैमेटाईट अयस्क मैग्नेटाईट अयस्कों की तुलना में सख्त होते हैं और इसलिए यदि शुद्धिकरण की आवश्यकता हो तो इन्हें क्रश करने (टुकड़ों में तोड़ने) और पीसने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। हैमेटाईट अयस्कों में अन्य अवयवों की उच्च सांद्रता भी हो सकती है, इनमें प्रारूपिक रूप से शामिल हैं, फॉस्फोरस की उच्च मात्रा, जल (विशेष रूप से पिसोलाईट अवसादी संचय) और एलुमिनियम (पिसोलाईट में चिकनी मिट्टी)। निर्यात की श्रेणी के हैमेटाईट अयस्क आमतौर पर 62–64% Fe रेंज में होते हैं[उद्धरण चाहिए]

उत्पादन और उपभोग

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- | उत्पादन -

ऑस्ट्रेलिया || (2020)

- [[ब्राजील] | | (2020) - [[चीन] (2020) - भारत | | (2020) - रूस | | 105 - यूक्रेन | | 73 - संयुक्त राष्ट्र अमेरिका 54
- दक्षिण अफ्रीका | |40 - ईरान | | 35[5] - कनाडा 33 - स्वीडन | | 24 - वेनेजुएला 20 - कजाखस्तान | | 15 - मॉरिटानिया | | 11 - अन्य देश 43 - कुल दुनिया 1690

लौह दुनिया का सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला धातु है, इसका उपयोग मुख्यतया स्टील के रूप में किया जाता है जिसका लौह अयस्क मुख्य अवयव है, जो प्रतिवर्ष काम आने वाले सभी धातुओं का लगभग 95% हिस्सा बनाता है।[2] इसका उपयोग मुख्यु रूप से संरचनात्मक अभियांत्रिकी अनुप्रयोगों में और समुद्री प्रयोजनों, ऑटोमोबाइल्स और सामान्य औद्योगिक अनुप्रयोगों (मशीनरी) में किया जाता है।

लौह या आयरन से युक्त चट्टानें पूरी दुनिया में पाई जाती हैं, परन्तु अयस्क श्रेणी की वाणिज्यिक खनन गतिविधियां कुछ ही देशों में मुख्य रूप से देखी जाती हैं, जिनकी सूची सारणी में दी गयी है। लौह अयस्क के भण्डार के लिए अर्थशास्त्र में मुख्य बाधा आवश्यक रूप से भण्डार की श्रेणी या आकार नहीं है, क्योंकि मौजूद चट्टानों के पर्याप्त टन में भार को भू-वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करने के लिए यह विशेष रूप से सख्त नहीं है। मुख्य बाधा है बाजार के सापेक्ष लौह अयस्क की स्थिति, इसे बाजार में लाने के लिए रेल बुनियादी ढांचे की लागत और ऐसा करने के लिए आवश्यक ऊर्जा की लागत।

लौह अयस्क का खनन एक अधिक मात्रा में होने वाला कम लाभ का व्यापार है, क्योंकि लौह की कीमत आधार धातुओं से बहुत कम होती है।[6] इसमें बहुत अधिक पूंजी लगती है और अधोसरंचना जैसे रेल के लिए इसमें बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसका उपयोग अयस्क को खान से जहाज तक ले जाने में किया जाता है।[6] इन्हीं कारणों से, लौह अयस्क उत्पादन कुछ मुख्य खिलाडियों के हाथों में केन्द्रित है।

विश्व में औसतन एक बिलियन मीट्रिक टन कच्चे अयस्क का सालाना उत्पादन होता है। दुनिया का सबसे बड़ा लौह अयस्क का उत्पादक ब्राजीलियन माइनिंग कोर्पोरेशन वेल है, जिसके बाद अगला स्थान एंग्लो-ऑस्ट्रेलियन कम्पनियों BHP बिलिटन और रिओ टिंटो ग्रुप का है। एक और ऑस्ट्रेलियाई सप्लायर, फोरटेसक्यु मेटल्स ग्रुप लिमिटेड ने ऑस्ट्रेलिया के उत्पादन को दुनिया में दूसरे स्थान पर लाने में मदद की है।

लौह अयस्क समुद्र से होने वाला व्यापार, अर्थात, वह लौह अयस्क जिसे जहाज़ों के द्वारा अन्य देशों को ले जाया जाता था, वह 2004 में 849m टन था।[6] ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील बाजार का 72 प्रतिशत हिस्सा बनाते हुए, समुद्र से होने वाले व्यापार पर हावी हैं।[6] BHP, रियो और वेल उनके बीच बाजार के 66% पर नियंत्रण करते हैं।[6]

ऑस्ट्रेलिया में लौह अयस्क को तीन मुख्य स्रोतों से प्राप्त किया जाता है: पिसोलाईट "चैनल लौह भण्डार" अयस्क प्राथमिक बंधित-लौह निर्माण के यांत्रिक अपरदन से उत्पन्न होता है और एल्यूवियल चैनलों में संचित हो जाता है जैसे पनावोनिका, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया; और प्रभावी कायांतरित रूप से परिवर्तित बंधित लौह निर्माण से सम्बंधित अयस्क जैसे न्यूमेन, चिचेस्टर रेंज, हमर्सले रेंज और कुलिआनोबिंग, वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में। अयस्क के अन्य प्रकार भी हाल ही में सामने आये हैं, जैसे ऑक्सीकृत फेरुजिनस हार्डकैप्स, उदाहरण के लिए पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में अर्गाइल झील के नजदीक लेट्राईट अयस्क के भण्डार।

भारत में लौह अयस्क के कुल वसूली योग्य भंडार लगभग हैमेटाईट के 9602 मिलियन टन और मैग्नेटाईट के 3408 मिलियन टन हैं। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, उड़ीसा, गोवा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, केरल, राजस्थान और तमिलनाडु लौह अयस्क के मुख्य भारतीय उत्पादक हैं।

लौह अयस्क की दुनिया की खपत सालाना 10% बढ़ रही है [उद्धरण चाहिए] इसके मुख्य उपभोक्ता चीन, जापान, कोरिया और संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ हैं।

चीन वर्तमान में लौह अयस्क का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, जो दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है। यह सबसे बड़ा आयातक भी है, जिसने 2004 में लौह अयस्क के 52% समुद्री व्यापार की खरीद की।[6] चीन के बाद अगला स्थान जापान और कोरिया का है जो कच्चे लौह अयस्क और धातुकर्म के कोयले की काफी मात्रा का उपभोग करते हैं। 2006 में, चीन ने 38% की वार्षिक वृद्धि के साथ 588 मिलियन टन लौह अयस्क का उत्पादन किया।

लौह अयस्क का बाजार

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पिछले 40 वर्षों में, लौह अयस्क की कीमतों को, खननकर्ताओं और इस्पात निर्माताओं के बीच, एक तथाकथित बेंचमार्क प्रणाली के द्वारा निर्धारित किया गया है। पारम्परिक रूप से, इन दोनों समूहों के बीच हुई पहली डील ने एक बेंचमार्क स्थापित किया जिसका अनुसरण शेष उद्योग के द्वारा किया गया।[2] इस प्रकार से, एक ही कीमत पर प्रति वर्ष एक बार बातचीत की जाती है। एक स्पोट बाजार भी मौजूद है, हालांकि यह पारंपरिक रूप से बहुत छोटा है। इस प्रणाली के साथ समस्या यह है कि जब स्पोट कीमतें बेंचमार्क से ज्यादा होती हैं, खननकर्ताओं को अतिरिक्त राजस्व नहीं मिल पाता, जो अयस्क को स्पोट बाजार में बेच कर कमाया गया होता है। जब स्पोट कीमतें बेंचमार्क की तुलना में कम होती हैं, कुछ इस्पात मिलें, अपने अयस्क को स्पोट बाजार से खरीद कर धोखेबाजी करती हैं।[2] दूसरे शब्दों में, बेंचमार्क प्रणाली स्टील (इस्पात) मिलों को सुरक्षा प्रदान करती है लेकिन खननकर्ताओं को नहीं। दूसरी ओर, बेंचमार्क प्रणाली खननकर्ताओं और स्टील मिलों के लिए कीमतों में स्थिरता लाती है, जिससे वे अपने उत्पादन की योजना अधिक प्रभावी रूप से बना सकते हैं।

हाल ही के वर्षों में, बेंचमार्क प्रणाली टूटने लगी है, क्योंकि कुछ खननकर्ता अपने ग्राहकों को स्पोट बाजार का उपयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं और सबसे बड़े खरीददार, चीन, के साथ बातचीत घर्षण का कारण बनती है। क्योंकि स्पोट बाजार का आकार और महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, वित्तीय बाधाओं से बचने के साधन जैसे लौह अयस्क में स्वैप (परिवर्तन) उत्पन्न हुआ है। यह देखते हुए कि अधिकांश अन्य थोक की वस्तुएं (जैसे कोयला) एक बाजार आधारित मूल्य प्रणाली के रूप में सामने आयीं हैं, यह एक उचित शर्त है कि लौह अयस्क माध्यम से लम्बी अवधि में इसी पथ का अनुसरण करेगा।[2] हालांकि, कुछ मामलों में, शिपिंग की लागत अयस्क के मूल्य से अधिक है।[6] यह विशेष रूप से ब्राजील के लौह अयस्क के लिए प्रासंगिक है, जिसे ऑस्ट्रेलियाई लौह अयस्क की तुलना में चीन तक पहुंचने के लिए अधिक यात्रा करनी पड़ती है। इसीलिए, अतीत में ऑस्ट्रेलियाई निर्माताओं ने अपने अयस्क पर प्रीमियम के लिए तर्क दिया, इसका कारण यह है कि यह जहाज के लिए बहुत सस्ता है।

रिक्तिकरण

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वर्तमान में लौह अयस्क के भंडार काफी विशाल हैं, परन्तु कुछ लोगों का कहना है कि जिस दर से इसके उपभोग में निरंतर घातीय वृद्धि हो रही है, इससे यहां तक कि इस संसाधन के स्रोत भी सीमित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, वर्ल्ड वॉच इंस्टीटयूट लेस्टर ब्राउन का सुझाव है कि 2% प्रतिवर्ष की वृद्धि के साथ एक बहुत संरक्षणवादी आकलन के आधार पर लौह अयस्क 64 साल तक ही चल पायेगा।[7]

लौह अयस्क में ऑक्सीजन और लौह के परमाणु परस्पर अणु के रूप में बंधित होते हैं। इसे धात्विक लौह में बदलने के लिए इसका प्रगलन करना पड़ता है और इसमें से ऑक्सीजन को हटाने के लिए इसे एक प्रत्यक्ष अपचयन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ऑक्सीजन-लौह बंध बहुत प्रबल होते हैं और ऑक्सीजन से लौह को अलग करने के लिए, एक अधिक प्रबल तत्व का बंधन उपस्थित होना चाहिए जो ऑक्सीजन को अपने साथ जोड़ सके। इसके लिए कार्बन का उपयोग किया जाता है क्योंकि अधिक तापमान पर कार्बन-ऑक्सीजन बंध की प्रबलता लौह-ऑक्सीजन बंध की तुलना में उच्च होती है। इस प्रकार से, लौह अयस्क को पीस कर कोक के साथ मिलाया जाता है और प्रगलन प्रक्रिया में इसे जलाया जाता है।

हालांकि, यह इतना आसान नहीं है जितना दिखता है; लौह से अलग होने वाली ऑक्सीजन पहले कार्बन मोनो ऑक्साइड बनाती है। इस प्रकार से, लौह और कार्बन के प्रगलन की प्रक्रिया एक अल्प ऑक्सीजन की अवस्था में की जाती है (अपचायक अवस्था) जिससे कार्बन जल कर COबनाये नाकि CO2

  • वायु का तीव्र प्रवाह और चारकोल (कोक): 2 C + O2 → 2 CO।
  • कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) मुख्य अपचायक कारक है।
    • पहली अवस्था: 3 Fe2O3 + CO → 2 Fe3O4 + CO2
    • दूसरी अवस्था: Fe3O4 + CO → 3 FeO + CO2
    • तीसरी अवस्था: FeO + CO → Fe + CO2
  • चूना पत्थर कैल्सीकरण: CaCO3 → CaO + CO2
  • लाइम एक फ्लक्स के रूप में कार्य करता है: CaO + SiO2 → CaSiO3

सूक्ष्म तत्व

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कुछ तत्वों की यहां तक कि बहुत थोड़ी मात्रा का पाया जाना भी लौह अयस्क के व्यवहार या प्रगलन की गतिविधियों को बहुत अधिक प्रभावित करता है। ये प्रभाव अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी, कुछ तो बहुत अधिक बुरे हो सकते हैं। कुछ रसायनों जैसे फ्लक्स (गालक) को जानबूझ कर मिलाया जाता है जो ब्लास्ट फरनेंस की क्रिया को अधिक प्रभावी बनाते हैं। अन्य को इसलिए मिलाया जाता है वे लौह को अधिक तरल बनाते हैं, या इसे कोई और वांछनीय गुण देते हैं। अयस्क, ईंधन और फ्लाक्स (गालक) का चुनाव इस बात को निर्धारित करता है कि धातुमल (slag) कैसे व्यवहार करता है और उत्पन्न लौह की विशेषताएं क्या होंगी। आदर्श रूप से लौह अयस्क में केवल लौह और ऑक्सीजन ही होते हैं। वास्तव में ऐसा बहुत कम देखा जाता है। आमतौर पर, लौह अयस्क में कई तत्व होते हैं, जो आधुनिक स्टील में अक्सर अवांछित होते हैं।

सिलिकॉन (Silicon)

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सिलिका (SiO2) लगभग हमेशा लौह अयस्क में पाया जाता है। इसमें से अधिकांश सिलिका प्रगलन की प्रक्रिया में धातुमल के रूप में अलग हो जाता है। 1300° से अधिक तापमान पर कुछ का अपचयन हो जाता है और यह लौह के साथ मिश्र धातु बनाता है। भट्टी जितनी गर्म होती है, लौह में उतना ही अधिक सिलिकॉन होता है। 16 वीं से 18 वीं शताब्दी के यूरोपीय कच्चे लौह में 1। 5% तक सिलिकॉन का पाया जाना असामान्य नहीं है।

सिलिकॉन का प्रमुख प्रभाव यह है कि यह धूसर लौह के निर्माण को बढ़ावा देता है। धूसर लौह कम भंगुर होता है और सफ़ेद लौह की तुलना में इसे फिनिश देना आसान होता है। इसीलिए ढलाई की प्रक्रिया में इसे प्राथमिकता दी जाती है। Turner (1900, pp. 192–197) की रिपोर्ट के अनुसार सिलिकॉन संकुचन को भी कम करता है, इसके ठंडा होने के समय निकलने वाली गैस से होने वाले छेदों को कम करता है और ढलाई को अधिक बेहतर बनता है।

फॉस्फोरस (Phosphorus)

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फॉस्फोरस (P) के लौह पर चार प्रमुख प्रभाव पड़ते हैं: यह इसकी कठोरता और प्रबलता को बढ़ता है, ठोस होने के तापमान को कम करता है, तरलता को बढ़ाता है, जल्दी ठंडा होने में मदद करता है। लौह का उपयोग किस प्रयोजन के लिए किया जाएगा, इस आधार पर यह अच्छा या बुरा प्रभाव डाल सकता है। बोग अयस्क में अक्सर फॉस्फोरस की उंची मात्रा होती है।(Gordon 1996, p. 57)

फॉस्फोरस के सांद्रण के साथ लौह की प्रबलता और कठोरता बढ़ जाती है। ढलवां लौह में 0। 05% फॉस्फोरस इसे मध्यम कार्बन स्टील जैसा कठोर बनाता है। अधिक फॉस्फोरस से युक्त लौह को ठन्डे में ही हथौड़ों से कठोर किया जा सकता है। फॉस्फोरस के किसी भी सांद्रण के लिए कठोरता का प्रभाव सच है। जितना ज्यादा इसमें फॉस्फोरस होता है उतना ही लौह अधिक कठोर हो जाता है और इसे हथौड़ों के द्वारा और अधिक कठोर बनाया जा सकता है। आधुनिक इस्पात निर्माता कठोरता को 30% तक बढ़ा सकते हैं, इसके लिए उन्हें फॉस्फोरस के स्तर को 0। 07 और 0। 12% के बीच बनाये रखना होता है और साथ ही लौह आघात रोधी भी बना रहता है। यह शमन के कारण कठोरता को और अधिक बढ़ाता है, लेकिन साथ ही उच्च तापमान पर लौह में कार्बन की विलेयता को भी कम करता है। यह ब्लिस्टर या फफोलेदार इस्पात (सीमेंटीकरण) के निर्माण में इसकी उपयोगिता को कम करता है, जहां कार्बन के अवशोषण की मात्रा और गति बहुत महत्वपूर्ण होती है।

फास्फोरस के लौह में पाए जाने का एक निम्न पक्ष भी है। 0। 2% से अधिक सांद्रता में पाए जाने पर लौह तेजी से कम अवधि में ठंडा हो जाता है, या कम तापमान पर भंगुर हो जाता है। जल्दी ठंडा होना विशेष रूप से लौह की छड़ी (बार आयरन) में महत्वपूर्ण है। हालांकि, छड़ी वाला लौह आमतौर पर गर्म कर के ही काम में लिया जाता है, लेकिन या सख्त, होना चाहिए, आसानी से मुड़ जाने योग्य होना चाहिए और कमरे के तापमान पर आघात रोधी भी होना चाहिए। एक कील जो कि एक हथौड़े की मार से टुकड़े टुकड़े होकर बिखर जाता है या एक पहिया जो एक चट्टान से टकराक टूट जाता है, उसे बेचने पर अच्छी कीमत नहीं मिलेगी। फॉस्फोरस की उच्च सांद्रता किसी भी लौह को व्यर्थ बना सकती है। (Rostoker & Bronson 1990, p. 22) जल्दी ठंडा होने के प्रभाव तापमान के साथ बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से, लौह का एक टुकडा, जो गर्मियों में पूर्ण रूप से उपयोगी है, वह सर्दियों में बहुत अधिक भंगुर हो सकता है। इस बात के प्रमाण हैं कि मध्य युग के दौरान बहुत अमीर लोग गर्मियों में उच्च फॉस्फोरस से युक्त तलवार रखते थे और सर्दियों में कम फॉस्फोरस से युक्त तलवार रखते थे।(Rostoker & Bronson 1990, p. 22)

फॉस्फोरस का सावधानीपूर्वक नियंत्रण ढलाई की प्रक्रिया में बहुत अधिक फायदेमंद हो सकता है। फॉस्फोरस तरलता के तापमान को कम करता है, जिससे iquidus तापमान depresses, लोहा अब और बढ़ जाती है पिघला हुआ द्रवता के लिए रहने के लिए अनुमति देता है। 1% मात्रा का बढाया जाना पिघले हुए लौह को बहा कर दोगुनी दूरी तक ले जाएगा। (Rostoker & Bronson 1990, p. 22) अधिकतम प्रभाव, लगभग 500 डिग्री सेल्सियस, को 10। 2% सांद्रता पर प्राप्त किया जाता है। (Rostocker & Bronson 1990, p. 194) फाउंड्री काम के लिए टर्नर ने पाया कि आदर्श लौह में 0। 2-0। 55% फास्फोरस था। परिणामी लौह को जब सांचों में भरा गया तो इसमें रिक्त स्थान कम थे और इसमें संकुचन भी कम हुआ। 19 वीं सदी में सजावटी कच्चे लौह के कुछ उत्पादकों ने 5% फास्फोरस से युक्त लौह का इस्तेमाल किया। चरम तरलता ने उन्हें बहुत अधिक जटिल लेकिन नाजुक ढलाई में मदद की। लेकिन, वे भार नहीं ले सकते थे क्योंकि उनमें प्रबलता नहीं थी। (Turner 1900, pp. 202–204)

वहाँ उच्च फास्फोरस लोहे के लिए दो उपचार कर रहे हैं। पुराना है और आसान, परिहार है। यदि किसी के द्वारा उत्पादित लौह जल्दी ठंडा होता है, तो वह लौह अयस्क का ने स्रोत खोजेगा। दूसरी विधि में शामिल है लौह ऑक्साइड मिला कर खनन की प्रक्रिया के दौरान फॉस्फोरस को ऑक्सीकृत कर देना। यह तकनीक आमतौर पर 19 वीं सदी में पुडलिंग (तरल के किसी गड्ढे में रुकना) से सम्बंधित है, जिसे संभवतया जल्दी नहीं समझा गया। उदाहरण के लिए मार्लबोरो आयरन के मालिक आइज़क ज़ाने इसे 1772 में नहीं जान पाए। बताया जाता है कि ज़ाने आधुनिक विकास के लिए प्रतिष्ठित थे, यह तकनीक वर्जिना और पेन्सिलवेनिया के आयरन मास्टर्स के लिए भी अज्ञात थी।

फॉस्फोरस एक हानिकारक संदुशक है, क्योंकि यह इस्पात को भंगुर बनाता है, चाहे 0। 6% की अल्प सांद्रता में ही उपस्थित हो। फॉस्फोरस को फ्लक्स या प्रगलन की सहायता से आसानी से हटाया नहीं जा सकता और इसलिए लौह अयस्क पर काम करने के लिए इसमें फॉस्फोरस की मात्रा कम होनी चाहिए। भारत का लौह स्तंभ जिसमें जंग नहीं लगता उसे फॉस्फोरिक संघटन के द्वारा परिरक्षित किया गया है। फॉस्फोरिक एसिड का उपयोग जंग रूपांतरक के रूप में किया गया है, क्योंकि फॉस्फोरिक लौह ऑक्सीकरण के लिए कम संवेदनशील है।

एल्युमीनियम (Aluminium)

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एल्यूमीनियम(Al) की लघु मात्रा कई अयस्कों (अक्सर चिकनी मिटटी के रूप में) और कुछ लाइम स्टोन (चूना पत्थर) में उपस्थित होती हैं। पहले वाले को हटाने के लिए अयस्क को प्रगलन से पहले धोया जाता है। ईंट के अस्तर वाली भट्टी में डालने से पहले, एल्युमिनियम का संदूषण इतना कम होता था कि इसका लौह या धातुमल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। हालांकि, जब भट्टियों के तल और ब्लास्ट फरनेंस के अस्तर आंतरिक बनाने के लिए ईंटों का उपयोग शुरू हुआ, एल्युमिनियम की मात्रा नाटकीय रूप से बढ़ गयी। ऐसा धातुमल के द्वारा भट्टी के आंतरिक स्तर के अपरदन के करण होता था।

एल्यूमिनियम का अपचयन करना बहुत मुश्किल होता है। इसके परिणामस्वरूप लौह का एल्युमिनियम संदूषण एक समस्या नहीं है। हालांकि, यह धातुमल ( Kato & Minowa 1969, पृष्ठ 37 और Rosenqvist 1983, पृष्ठ 311) की विस्कासिता या श्यानता को बढ़ाता है। इसके भट्ठी के संचालन पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। घना धातुमल धीरे आवेशित होगा और इससे इस प्रक्रिया में लगने वाला समय बढ़ जाएगा। एल्यूमीनियम की अधिक मात्रा भी द्रवित धातुमल को हटाने में समस्या पैदा करेगी। चरम पर यह एक जमी हुई भट्टी का करण बनेगा।

अधिक एल्यूमीनियम से युक्त धातुमल में कई विलयन होते हैं। पहला है रोक पाना; अधिक एल्युमिनियम से युक्त स्रोत में अयस्क या चूने के स्रोत का उपयोग ना करें। लाइम फ्लक्स के अनुपात के बढ़ने से विस्कासिता कम हो जायेगी। (Rosenqvist 1983, p. 311)

सल्फर या गंधक (S) कोयले में अक्सर पाया जाने वाला एक संदूषक है। यह कई अयस्कों में अल्प मात्रा में पाया जाता है, परन्तु इसे कैल्सिकरण के द्वारा हटाया जा सकता है। लौह के प्रगलन में उपस्थित तापमान पर गंधक लौह की द्रव और ठोस दोनों अवस्थाओं में जल्दी से पिघल जाता है। सल्फर या गन्धक की बहुत कम मात्रा के प्रभाव तात्कालिक और गम्भीर होते हैं। इन पर सबसे पहले लौह निर्माताओं के द्वारा काम किया गया। सल्फर लौह को लाल बनाता है और इससे यह जल्दी गर्म होता है। (Gordon 1996, p. 7)

लौह जब जल्दी गर्म होता है, तो वह गर्म अवस्था में भंगुर होता है। यह एक गंभीर समस्या थी क्योंकि 17 वीं और 18 वीं सदी के दौरान प्रयुक्त लौह ढलवां लौह या बार आयरन होता था। ढलवां लौह को आकार देने के लिए गर्म अवस्था में बार बार हथौड़े से पीटा जाता है। एक जल्दी गर्म होने वाले लौह का टुकडा हथौड़ा मारने पर टूट जाएगा। जब गर्म लोहे या स्टील (इस्पात) का कोई टुकडा टूट जाता है तो खुली सतह तुरंत ऑक्सीकृत हो जाती है। ऑक्साइड की यह परत वेल्डिंग द्वारा दरार की मरम्मत करने में बाधा पहुंचाती है। बड़ी दरारें लोहे या स्टील के टूट जाने का कारण बनती हैं। छोटी दरारों के करण वस्तु का समय पर उपयोग नहीं किया जा सकता है। यह कितना जल्दी गर्म होता है, यह उपस्थित गंधक की मात्रा पर निर्भर करता है। वर्तमान में 0। 03% से अधिक सल्फर से युक्त लौह का उपयोग नहीं किया जाता है।

जल्दी गर्म होने वाला लौह काम कर सकता है, लेकिन यह कम तापमान पर काम करता है। कम तापमान पर काम करने के लिए स्मिथ या फोरमेन से अधिक भौतिक प्रयास की आवश्यकता होती है। ऐसा परिणाम प्राप्त करने के लिए धातु को प्राप्त करना अधिक कठिन होता है। एक अल्प गंधक से युक्त बार काम कर सकता है, परन्तु इसके लिए अधिक समय और प्रयास की जरुरत होती है।

कच्चे लौह में सल्फर सफ़ेद लौह के निर्माण को बढ़ावा देता है। केवल 0। 5% तक मात्रा के कारन यह धीरे धीरे ठंडा होने लगता है और सिलिकॉन की उच्च मात्रा(Rostoker & Bronson 1990, p. 21)। सफेद कच्चा लोहा अधिक भंगुर होता है, लेकिन यह सख्त भी होता है। इससे आम तौर पर बचा जाता है, क्योंकि इस पर काम करना मुश्किल होता है, केवल चीन के अलावा जहां सल्फर की उच्च मात्रा से युक्त कच्चा लौह 0। 57% से युक्त होता है, यह कोयले और कोक से बनाया जाता है और इसका उपयोग घंटियां और झंकार बनाने के लिए किया जाता है।(Rostoker, Bronson & Dvorak 1984, p. 760) Turner (1900, pp. 200) के अनुसार, अच्छे फाउंड्री लौह में 0। 15। प्रतिशत से कम सल्फर होना चाहिए। शेष दुनिया में उच्च सल्फर से युक्त कच्चा लौह ढलाई में काम आ सकता है, लेकिन यह बुरी गुणवत्ता का ढलवां लौह बनाएगा।

सल्फर संदूषण के उपचार के कई तरीके हैं। पहला और इतिहास में सबसे ज्यादा प्रयुक्त किये जाने वाला प्रागैतिहासिक तरीका है इससे बचना। चीन के विपरीत यूरोप में कोयले का उपयोग प्रग्लन के लिए ईंधन के रूप में नहीं किया जाता था, क्योंकि इसमें सल्फर होता है और इसलिए इसके कारन लौह जल्दी गर्म हो जाता है। अगर एक अयस्क से ऐसा धातु बनता है जो जल्दी गर्म होता है, तो आयरनमास्टर किसी दूसरे की खोज करेंगे। जब खनिज कोयले का सर्वप्रथम उपयोग यूरोपीय ब्लास्ट फरनेंस में 1709 में किया गया, (या संभवतया इससे पहले) तो इसमें कोक मिलाया जाता है। 1829 से गर्म ब्लास्ट की शुरुआत से पहले कच्चे कोयले का उपयोग किया जाता था।

सल्फर को अयस्क से रोस्टिंग (भर्जन) और वाशिंग (धोकर) हटाया जा सकता है। भर्जन से सफ़र ऑक्सीकृत हो जाता है, जिससे सल्फर डाइऑक्साइड का निर्माण होता है, जो या तो वातावरण में उड़ जाता है या इसे धो कर हटाया जा सकता है। गर्म जलवायु में यह संभव है की पायरिटिक अयस्क को बरसात में छोड़ दिया जाता है। बरसात, जीवाणु और उष्मा के संयुक्त प्रभाव से सल्फाइड ऑक्सीकृत होकर सल्फेट बनाते हैं, जो पानी में घुलनशील हैं(Turner 1900, pp. 77)। हालांकि, ऐतिहासिक रूप से (कम से कम), लौह सल्फाइड (लौह पायराईट FeS2), एक आम लौह खनिज है, इसका उपयोग लौह धातु के उत्पादन के लिए एक अयस्क के रूप में नहीं किया जाता था। प्राकृतिक अपक्षय का उपयोग स्वीडन में किया जाता था। यही प्रक्रिया, भूवैज्ञानिक गति पर, गोस्सन लिमोनाईट अयस्क बनाती है।

कम सल्फर से युक्त लौह का महत्त्व निरंतर उंचे मूल्यों के द्वारा प्रदर्शित होता है, जिसके लिए 16 वीं से 18 वीं शताब्दी से स्वीडन, रूस और स्पेन के लौह के भुगतान के लिए किया जाता था। वर्तमान में सल्फर कोई समस्या नहीं है। आधुनिक उपचार है मैंगनीज का अतिरिक्त होना है। लेकिन, ऑपरेटर को पता होना चाहिए कि लौह में कितना सल्फर है, क्योंकि मैंगनीज का पांच गुना इसमें मिलाया जाना चाहिए, ताकि यह इसे निरावेशित कर सके। कुछ ऐतिहासिक लौह मैंगनीज के स्तर को डिस्प्ले करते हैं, लेकिन अधिकांश सल्फर को निरावेशित करने के लिए आवश्यक स्तर से कम होते हैं।(Rostoker & Bronson 1990, p. 21)

  1. "IRON ORE - Hematite, Magnetite & Taconite" जाँचें |url= मान (मदद). Mineral Information Institute. अभिगमन तिथि 7 अप्रैल 2006.[मृत कड़ियाँ]
  2. Iron ore pricing emerges from stone age, फाइनेंशियल टाइम्स, 26 अक्टूबर 2009
  3. Harry Klemic, Harold L। James, and G। Donald Eberlein, (1973) "Iron," in United States Mineral Resources, US Geological Survey, Professional Paper 820, p। 298-299।
  4. "U।S। Geological Survey". मूल से 27 मई 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2008-01-29.
  5. "संग्रहीत प्रति". मूल से 27 मार्च 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 अगस्त 2010.
  6. Iron ore pricing war, फाइनेंशियल टाइम्स, 14 अक्टूबर 2009
  7. Brown, Lester Plan B 2। 0, New York: W।W। Norton, 2006। p। 109
  • Gordon, Robert B। (1996), American Iron 1607-1900, The Johns Hopkins University Press
  • Rostoker, William; Bronson, Bennet (1990), Pre-Industrial Iron: Its Technology and Ethnology, Archeomaterials Monograph No। 1
  • Turner, Thomas (1900), The Metallurgy of Iron (2nd संस्करण), Charles Griffin & Company, Limited
  • Kato, Makoto and Susumu Minowa (1969), "Viscosity Measurement of Molten Slag- Properties of Slag at Elevated Temperature (Part 1)", Transactions of the Iron and Steel Institute of Japan, Tokyo: Nihon Tekko Kyokai, 9, पपृ॰ 31–38
  • Rosenqvist, Terkel (1983), Principles of Extractive Metallurgy, McGraw-Hill Book Company
  • Rostoker, William; Bronson, Bennet; Dvorak, James (1984), "The Cast-Iron Bells of China", Technology and Culture, The Society for the History of Technology, 25 (4), पपृ॰ 750–767

बाहरी कड़ियाँ

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