स्पेक्ट्रोस्कोपी

पदार्थ और विद्युत चुम्बकीय विकिरण से जुड़े अध्ययन
(वर्णक्रमिकी से अनुप्रेषित)

स्पेक्ट्रमिकी, भौतिकी विज्ञान की एक शाखा है जिसमें पदार्थों द्वारा उत्सर्जित या अवशोषित विद्युत चुंबकीय विकिरणों के स्पेक्ट्रमों का अध्ययन किया जाता है और इस अध्ययन से पदार्थों की आंतरिक रचना का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस शाखा में मुख्य रूप से वर्णक्रम का ही अध्ययन होता है अत: इसे स्पेक्ट्रमिकी या स्पेक्ट्रमविज्ञान (Spectroscopy) कहते हैं।

स्पेक्ट्रमिकी का सबसे सरल उदाहरण : श्वेत प्रकाश को प्रिज्म होकर ले जाने पर वह सात रंगों में बंट जाती है।

मूलत: विकिरण एवं पदार्थ के बीच अन्तरक्रिया (interaction) के अध्ययन को स्पेक्ट्रमिकी या स्पेक्ट्रोस्कोपी (Spectroscopy) कहा जाता था। वस्तुत: ऐतिहासिक रूप से दृष्य प्रकाश का किसी प्रिज्म से गुजरने पर अलग-अलग आवृत्तियों का अलग-अलग रास्ते पर जाना ही स्पेक्ट्रोस्कोपी कहलाता था।

बाद में 'स्पेक्ट्रोस्कोपी' शब्द के अर्थ का विस्तार हुआ। अब तरंगदैर्ध्य (या आवृत्ति) के फलन के रूप में किसी भी राशि का मापन स्पेक्ट्रोस्कोपी कहलाती है। इसकी परिभाषा का और विस्तार तब मिला जब उर्जा (E) को चर राशि के रूप में सम्मिलित कर लिया गया (क्योंकि पता चला कि उर्जा और आवृत्ति में सीधा सम्बन्ध है : E = hν)

किसी राशि का आवृत्ति के फलन के रूप में आलेख (प्लॉट) वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) कहलाता है। किसी पदार्थ के किसी द्रव्यमान में आयनों, परमाणुओं या अणुओं की उपस्थिति की सघनता (concentration) का मापन स्पेक्ट्रोमेट्री कहलाता है। जो उपकरण स्पेक्ट्रोमेट्री में सहायक होते हैं वे स्पेक्ट्रोमीटर, स्पेक्ट्रोफोटोमीटर या स्पेक्ट्रोग्राफ आदि नामों से जाने जाते हैं। स्पेक्ट्र्स्कोपी/स्पेक्ट्रोमेट्री का उपयोग भौतिक एवं वैश्लेषिक रसायन विज्ञान में बहुधा किया जाता है। इसका उपयोग खगोल विज्ञान एवं सुदूर संवेदन (remote sensing) में भी होता है।


 
अल्कोहल की ज्वाला तथा इसका वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम)
 
प्रदीप्त-बत्ती (फ्लोरिसेन्ट लैम्प) से उत्सर्जित 'प्रकाश' का स्पेक्ट्रम - इसमें पारा के संगत चोटियाँ दर्शनीय हैं।

स्पेक्ट्रमिकी की नींव आइजेक न्यूटन ने सन् 1666 ई. में डाली थी। उन्होंने एक बंद कमरे में खिड़की के छिद्र से आते हुए सौर किरणपुंज (beam of light) को एक प्रिज़्म से होकर पर्दे पर जाने दिया। पर्दे पर सात रंगों पर बैंगनी रंग था। पट्टी में सातो रंग - लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला और बैंगनी - इसी क्रम में दिखाई पड़ते थे। न्यूटन ने इस पट्टी को "स्पेक्ट्रम" कहा। इस प्रयोग से उन्होंने यह सिद्ध किया कि सूर्य का श्वेत प्रकाश वास्तव में सात रंगों का मिश्रण है।

बहुत समय तक "स्पेक्ट्रम" का अर्थ इसी सतरंगी पट्टी से ही लगाया जाता था। बाद में वैज्ञानिकों ने यह देखा कि सौर स्पेक्ट्रम के बैंगनी रंग से नीचे भी कुछ रश्मियाँ पाई जाती हैं जो आँख से नहीं दिखाई पड़ती हैं परंतु फोटोप्लेट पर प्रभाव डालती हैं और उनका फोटो लिया जा सकता है। इन किरणों को पराबैंगनी किरणें (Ultraviolet rays) कहा जाता है। इसी प्रकार लाल रंग से ऊपर अवरक्त किरणें पाई जाती हैं। वास्तव में सभी वर्ण की रश्मियाँ विद्युत चुंबकीय तरंगें होती हैं। रंगीन प्रकाश, अवरक्त, पराबैंगनी प्रकाश, एक्स-किरण, गामा-किरण, माइक्रो तरंगें तथा रेडियो तरंगें - ये सभी विद्युच्चुंबकीय तरंगें हैं। इन सबका स्पेक्ट्रम होता है। पारे को उत्तेजित करने से जो हरे रंग की किरणें निकलती हैं उनका तरंगदैर्घ्य 5461 एंग्स्ट्रॉम होता है। अत: अब विभिन्न वर्ण की रश्मियों का विभाजन रंग के आधार पर नहीं वरन् तरंगदैर्घ्य के आधार पर किया जाता है और स्पेक्ट्रम का अर्थ बहुत व्यापक हो गया है - तरंगदैर्घ्य के अनुसार रश्मियों की सुव्यवस्था को स्पेक्ट्रम कहा जाता है।

स्पेक्ट्रमविज्ञान का संबंध प्राय: सभी प्रकार की विद्युच्चुंबकीय तरंगों से है। सूक्ष्म तरंग स्पेक्ट्रमिकी, इन्फ्रारेड-स्पेक्ट्रमिकी, दृश्य क्षेत्र स्पेक्ट्रमिकी, एक्स किरणस्पेक्ट्रमिकी और न्यूक्लियर-स्पेक्ट्रमिकी आदि सभी विभाग स्पेक्ट्रमिकी के ही अंग हैं किंतु प्रचलित अर्थ में स्पेक्ट्रमिकी के अंतर्गत अवरक्त, दृश्य तथा पराबैंगनी किरणों के स्पेक्ट्रम का अध्ययन ही आता है।

न्यूटन ने सूर्य की किरणों से जो "स्पेक्ट्रम" प्राप्त किया था वह शुद्ध नहीं था अर्थात् सभी रंग पासवाले रंग से पूर्णत: पृथक् नहीं थे; एक रंग दूसरे से मिला था। इसका कारण यह था कि उन्होंने किरणों को एक गोल छेद से लेकर प्रिज्म पर डाला था। सन् 1802 ई. में वोलास्टन (W. H. Wollaston) ने गोल छिद्र के स्थान पर सँकरी झिर्री (Slit) का प्रयोग करके शुद्ध स्पेक्ट्रम प्राप्त किया। आगे चलकर जोसेफ़ फ्राउनहोफर (Fraunhofer) ने प्रिज़्म की सहायता से शुद्ध स्पेक्ट्रम प्राप्त किया और समतल ग्रेटिंग का आविष्कार किया। ग्रेटिंग एक दूसरा उपकरण है जो विभिन्न वर्ण की रश्मियों को परिक्षेपित (Disperse) कर देता है। स्पेक्ट्रमिकी की प्रगति में फ्राउनहोफर का कार्य विशिष्ट महत्व रखता है। सन् 1859 ई. में किरखाफ और बुनशन (G. R. Kirchhoff and Bunsen) ने बहुत से शुद्ध तत्त्वों का स्पेक्ट्रम लिया और यह बताया कि वे एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होते हैं। किरखॉफ़ और बुनशन ने यह भी सिद्ध किया कि कोई पदार्थ उत्तेजित होने पर जिस वर्ण की रश्मियाँ दे सकता है, कम ताप पर केवल उसी वर्ण की रश्मियाँ दे सकता है, कम ताप पर केवल उसी वर्ण की रश्मियों को अवशोषित भी कर सकता है। इन तत्वों की जानकारी के बाद स्पेक्ट्रमिकी की प्रगति बड़ी तीव्रता से हुई। इस विज्ञान ने अणु परमाणुओं की रचना का ज्ञान प्राप्त कराने में महत्तम योगदान किया है।

किसी पदार्थ को विद्युत् या ऊष्मा देकर उत्तेजित किया जाता है तब उससे प्रकाश निकलने लगता है। उस पदार्थ से निकलनेवाली रश्मियों का स्पेक्ट्रम उसकी आंतरिक रचना पर निर्भर करता है। किसी ठोस पदार्थ को इतना गरम किया जाए कि वह तीव्र चमक देने लगे तो उससे जो स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है उसे सतत स्पेक्ट्रम (continuous spectrum) कहते हैं क्योंकि इसमें विभिन्न वर्ण की पट्टियाँ एक दूसरी से मिली जुली रहती हैं, उनकी कोई सीमा नहीं पाई जाती है। बिजली के बल्ब तथा सूर्य से ऐसा ही स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि किसी पदार्थ को इतनी अधिक ऊर्जा दी जाए कि उसे परमाणु उत्तेजित हो जाएँ तो उससे रेखीय स्पेक्ट्रम मिलता है। इसमें विभिन्न वर्ण की तीक्ष्ण रेखाएँ पाई जाती हैं। विद्युत आर्क तथा कुछ तारों (Stars) से भी रेखीय स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है। स्पेक्ट्रम की एक तीसरी श्रेणी भी होती है। यदि किसी गैस में कम दबाव पर विद्युत विसर्जन किया जाए तो वे गैसें उत्तेजित होकर सपट्ट स्पेक्ट्रम देती हैं। इस स्पेक्ट्रम में एक दूसरे से पृथक् बहुत से पट्ट पाए जाते हैं जिनका एक सिरा तीक्ष्ण और दूसरा क्रमश: धूमिल होता है। ये सभी स्पेक्ट्रम उत्सर्जित (Emission) स्पेक्ट्रम कहे जाते हैं।

यदि किसी पदार्थ के भीतर से सभी वर्ण (Colour) की रश्मियाँ भेजी जाएँ तो वह उन रश्मियों को, जिन्हें स्वयं उत्सर्जित कर सकता है, अवशोषित कर लेता है। बिजली के बल्व से दृश्यक्षेत्र की सभी वर्ण की रश्मियाँ निकलती हैं। यदि किसी नली में सोडियम की भाप भरी हो और उसके भीतर से बल्ब का प्रकाश भेजकर बहिर्गत प्रकाश का स्पेक्ट्रम लिया जाए तो उसके पीले भाग में दो काली रेखाएँ पाई जाती हैं। इसका कारण यह है कि सोडियम स्वयं उत्तेजित होने पर रेखीय स्पेक्ट्रम देता है। इस स्पेक्ट्रम में दो पीलो रेखाएँ भी होती हैं जिन्हें सोडियम की "डी" रेखाएँ कहा जाता है। जब बल्ब का प्रकाश सोडियम की भाप से होकर जाता है तो सोडियम डी रेखाओं के अनुकूल वर्ण को अवशोषित कर लेता है और बर्हिगत प्रकाश में इसी स्थान पर दो काली रेखाएँ बन जाती हैं। इस स्पेक्ट्रम का अवशोषण स्पेक्ट्रम (Absorption spectrum) कहते हैं। अवशोषण स्पेक्ट्रम भी तीन प्रकार के होते हैं। जिस अवशोषण स्पेक्ट्रम में काली रेखाएँ पाई जाती हैं उन्हें रेखीय अवशोषण स्पेक्ट्रम, जिनमें काले बैंड पाए जाते हैं उन्हें बैंड अवशोषण स्पेक्ट्रम और जिनमें स्पेक्ट्रम का थोड़ा सा अधिक सतत क्षेत्र ही अवशोषित हो जाता है उन्हें सतत अवशोषण स्पेक्ट्रम कहते हैं।

स्पेक्ट्रमदर्शी

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स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए जिन उपकरणों का प्रयोग किया जाता है उन्हें स्पेक्ट्रमदर्शी, स्पेक्ट्रममापी और स्पेक्ट्रमलेखी कहते हैं। प्रत्येक स्पेक्ट्रोलेखी स्पेक्ट्रोदर्शी में तीन मुख्य अवयव (Components) होते हैं। पहला भाग स्रोत से आनेवाली रश्मियों को उचित दिशा में नियंत्रित करता है, दूसरा भाग विभिन्न वर्णों को पृथक् करता अर्थात् मिश्रित रश्मियों को परिक्षेपित करता है तथा तीसरा भाग उन्हें अलग अलग एक नाभितल (focal surface) पर फोकस करता है। यदि उपकरण में केवल स्पेक्ट्रम देखने मात्र की ही व्यवस्था हो तो उसे स्पेक्ट्रोदर्शी कहते हैं, यदि उसके तीसरे भाग को घुमाकर स्पेक्ट्रम के विभिन्न वर्णों का विचलन (Deviation) पढ़ने की व्यवस्था भी हो तो उसे स्पेक्ट्रोमापी कहते हैं इससे स्पेक्ट्रम का स्थायी चित्र लिया जा सकता है। सभी स्पेक्ट्रोलेखी बनावट में लगभग समान होते हैं किंतु परिक्षेपण के लिए दो साधन काम में लाए जाते हैं - प्रिज्म और ग्रेटिंग। इसीलिए स्पेक्ट्रोलेखी भी दो प्रकार के होते हैं - प्रिज्म स्पेक्ट्रोलेखी और ग्रेटिंग स्पेक्ट्रोलेखी।

स्पेक्ट्रम के विभिन्न क्षेत्र

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अध्ययन की सुविधा के लिए स्पेक्ट्रम को विभिन्न क्षेत्रों में बाँट लिया गया है। यह विभाजन तीन बातों के आधार पर किया गया है - रश्मिस्रोत, परिक्षेपण विधि और अभिलेखन (Recording)। स्पेक्ट्रमिकी विभाग में निम्नांकित क्षेत्रों का अध्ययन किया जाता है - सुदूर अवरक्तकिरण दृश्यक्षेत्र, पराबैंगनी क्षेत्र और निर्वात पराबैंगनी क्षेत्र। विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के स्पेक्ट्रोलेखी काम आते हैं। सारणी में विभिन्न क्षेत्रों की सीमा, परिक्षेपण यंत्र और अभिलेखन यंत्रों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है-

क्षेत्र तरंगदैर्घ्य सीमा रश्मिस्रोत परिक्षेपण संयत्र अभिलेखन
सुदूर इन्फ्रारेड 1 म्यू - 50 म्यू तप्त ठोस वक्रग्रेटिंग ताप-विद्युत रिकार्डर
इन्फ्रारेड 7000-30,000 A तप्त ठोस क्लोराइड तथा फ्लोराइट प्रिज्म वक्र ग्रेटिंग ताप-विद्युत रिकार्डर
दृश्यक्षेत्र 4000 A - 7040 A तप्त ठोस आर्क स्पार्क विद्युत् विसर्जन काँच के प्रिज्म तथा वक्रग्रेटिंग फोटो प्लेट और फ़िल्म
अल्ट्रावायलेट 4000 A - 2000 A आर्क स्पार्क विद्युत् विसर्जन क्वार्ज प्रिज्म तथा वक्र ग्रेटिंग फोटोप्लेट तथा विद्युत् रिकार्डर
निर्वात अल्ट्रावायलेट 2000 A - 200 A स्पार्क विद्युत् विसर्जन फल्यूराइड प्रिज्म तथा विसर्जन वक्र ग्रेटिंग अल्ट्रावायलेट विद्युत् प्रिज्म

रश्मिस्रोत

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स्पेक्ट्रम तीन प्रकार के होते हैं, - रेखीय, पट्टदार तथा सतत। रेखीय स्पेक्ट्रम में केल रेखाएँ पाई जाती हैं। पट्टदार स्पेक्ट्रम में पट्ट बैंड (Band) पाए जाते हैं जिनका एक किनारा तीक्ष्ण और दूसरा क्रमश: धूमिल होता है। सतत स्पेक्ट्रम में सभी वर्ण की रश्मियाँ एक दूसरे से संलग्न रहती हैं। विभिन्न प्रकार के स्पेक्ट्रम पाने के लिए उपयुक्त रश्मिस्रोत काम में लाए जाते हैं।

रेखीय स्पेक्ट्रम के स्रोत

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रेखीय स्पेक्ट्रम उत्तेजित परमाणुओं द्वारा प्राप्त होता है। इन्हें उत्तेजित करने के लिए ऊष्मा, विद्युत् या अत्यधिक ऊर्जायुक्त विद्युच्चुंबकीय रश्मियों की आवश्यकता होती है। सामान्यत: विद्युत आर्क और विद्युत् स्पार्क उपयोग में आते हैं। ज्वाला (Flame), ताप भट्ठी तथा विद्युत् विसर्जन द्वारा भी परमाणुओं को उत्तेजित किया जाता है।

विद्युत् आर्क - धातु के दो इलेक्ट्रोड एक विशेष प्रकार के स्तंभ में कस दिए जाते हैं किंतु स्तंभ से पृथग्न्यस्त रहते हैं। एक स्क्रूहेड को घुमाकर इलेक्ट्रोडों के बीच का रिक्त स्थान कम या अधिक किया जा सकता है। दोनों इलेक्ट्रोड एक परिवर्तनीय अवरोध तथा एक प्रेरकत्व (inductance) श्रेणीक्रम में जोड़ दिए जाते हैं।

आर्क चलाने के लिए आरंभ में दोनों इलेक्ट्रोड सटा दिए जाते हैं अत: विद्युत् परिपथ पूरा हो जाता है और धारा प्रवाहित होने लगती है। जहाँ इलेक्ट्रोड सटते हैं उस बिंदु पर भीषण ऊष्मा ऊत्पन्न होती है क्योंकि वहाँ अवरोध अत्यंत कम होने से सहसा हजारों ऐंपीयर की धारा प्रवाहित होती है। इस उष्मा के कारण इलेक्ट्रोड के अग्र भाग वाष्पित हो जाते हैं और उन्हें थोड़ा विलग करने पर भी यह भाप विद्युत् परिपथ को पूरा किए रहती है। इस भाग में स्थित अणु-परमाणु उत्तेजित होकर प्रकाश देने लगते हैं। आर्क का तापक्रम लगभग 3500 सें. से 8000 सें. तक होता है। मुख्य तार आर्क चलाने के पूर्व इलेक्ट्रोडों के बीच का विभवांतर मेन (Mains) के विभवांतर के बराबर (220 वोल्ट) होता है किंतु आर्क चलते समय यह घट जाता है। प्रत्यावर्तीधारा से भी आर्क चलाए जाते हैं। आजकल कई प्रकार के सुधरे हुए आर्क उपलब्ध हैं।

इलेक्ट्रिक स्फुलिंग - की रचना लगभग आर्क की ही भाँति होती है किंतु स्फुलिंग के इलेक्ट्रोडों का विभवांतर आर्क की अपेक्षा कई सौ गुना अधिक होता है। यही कारण है कि स्फुलिंग का स्तंभ (Stand) अधिक सुरक्षित तथा इलेक्ट्रोडों से भली भाँति पृथग्न्यस्त रखा जाता है। इलेक्ट्रोडों को एक स्टैपअप ट्रान्सफार्मर के सेकंडरी सिरों (Secondary terminals) से जोड़ दिया जाता है। स्फुलिंग रिक्त स्थान का विभवांतर 10,000 वो. से 50,000 वोल्ट तक होता है; अत: इस स्रोत में अणु-परमाणुओं को अत्यधिक उत्तेजना मिलती है। स्फुलिंग रिक्त स्थान इच्छानुसार घटाया बढ़ाया जा सकता है।

इस स्रोत में उत्तेजित होनेवाले अणु परमाणुओं को बहुत अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है। अत: वे आयनित हो जाते हैं। परमाणु या अणु के केंद्रक (nucleus) के चारों और बहुत से इलेक्ट्रान घूमते रहते हैं। ये इलेक्ट्रान निश्चित नियम के अनुसार विभिन्न कक्षाओं में बँटे रहते हैं। सबसे बाहरवाली कक्षा के इलेक्ट्रानों को "आप्टिकल इलेक्ट्रान" कहा जाता है। यदि किसी अणु या परमाणु में से एक या अधिक आप्टिकल इलेक्ट्रान निकाल दिए जाएँ तो वह "आयनित" कहा जाता है। केवल एक इलेक्ट्रॉन निकल जाने पर परमाणु पहली आयनित स्थिति में हो जाता है। यदि दूसरे, तीसरे आदि इलेक्ट्रान भी निकल जाएँ तो परमाणु क्रमश: दूसरी, तीसरी आदि आयनित स्थिति में चला जाता है। इन स्थितियों के लिए उत्तरोत्तर अधिक ऊर्जा देनी होती है। अत्यंत उच्च विभवांतर पर चलनेवाले स्फुलिंग से टिन की 23वीं आयनित स्थिति प्राप्त की जा चुकी है।

स्पेक्ट्रो रासायनिक विश्लेषण (Spectro Chemical analysis) के लिए विद्युत् स्फुलिंग मुख्य रूप से उपयोगी होता है। स्फुलिंग को स्थिर रूप से देर तक चलाने के लिए इसमें विविध प्रकार के सुधार किए गए हैं।

पट्टदार स्पेक्ट्रम के स्रोत

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पदार्थों को प्रज्वलित करने या बुनसन ज्वाल्क की ज्वाला में जलाने पर पट्टदार स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है। कुछ पदार्थों को विद्युत् आर्क में प्रज्वलित करने से भी पट्टदार स्पेक्ट्रम प्राप्त किया जा सकता है। गैसों में विद्युत् विसर्जन से पट्टदार स्पेक्ट्रम बड़ी सुविधा से प्राप्त होते हैं। विद्युत् विसर्जन के लिए गैस को बहुत कम दाब पर एक नली में भरकर उसके सिरों के बीच कई हजार वोल्ट का विभवांतर (Potential difference) देना पड़ता है। निऑन गैस में विद्युत् विसर्जन से रक्त वर्ण की रश्मियाँ निकलती हैं। आजकल प्रदर्शन और प्रचार के लिए अक्षरों और चित्रों के आकार की विसर्जन नलियाँ बनाई जाती हैं जिनमें नीऑन गैस भरी रहती है। इन्हें निऑन साइन (Neon sign) कहते हैं।

सतत स्पेक्ट्रम के स्रोत

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किसी ठोस पदार्थ को इतनी ऊष्मा दी जाए कि वह लाल होकर चमकने लगे तो उससे सतत रश्मिपुंज निकलता है। बिजली के बल्व से दृश्यक्षेत्र में सतत स्पेक्ट्रम पाने के लिए विशेष प्रकार के हाइड्रोजन लैंप, ज़ीनान आर्क लैंप तथा पारद-वाष्प विसर्जन काम में लाए जाते हैं।

स्पेक्ट्रोलेखी

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विभिन्न प्रकार के रश्मिस्रोतों से जो रश्मियाँ निकलती हैं उनका स्थायी स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए स्पेक्ट्रोलेखी काम में लाए जाते हैं। प्रत्येक स्पेक्ट्रोलेखी में लाया हुआ परिक्षेपण संयंत्र विभिन्न वर्ण की मिश्रित रश्मियों को पृथक् कर देता है। रश्मियों का परिक्षेपण तीन रीतियों से होता है:

(1) जब रश्मियाँ किसी प्रिज्म से होकर जाती हैं तब अपवर्तन के कारण पृथक् हो जाती हैं। इसे अपवर्तनीय परिक्षेपण कहते हैं;

(2) यदि बहुत सी सँकरी झिरियों को एक दूसरी के समांतर पास पास रखकर उनमें से मिश्रित प्रकाशपुंज भेजा जाए तो विवर्तन के कारण रश्मियाँ अलग अलग हो जाती हैं और स्पेक्ट्रम बन जाता है। ऐसे परिक्षेपण को विवर्तनीय परिक्षेपण (Diffractive dispersion) कहते हैं;

(3) रश्मियों के व्यतिकरण (Interference) द्वारा भी परिक्षेपण उत्पन्न किया जाता है। पहली दो रीतियाँ अधिक प्रचलित हैं।

प्रिज्म स्पेक्ट्रोलेखी

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इसके तीन मुख्य भाग होते हैं - कॉलीमेटर, प्रिज्म और कैमरा। कॉलीमेटर एक खोखली नली होती है जिसके एक सिरे पर पतली झिरी और दूसरे सिरे पर लेंस लगा होता है। झिरी और लेंस की दूरी परिवर्तनीय होती है तथा झिरी की चौड़ाई भी परिवर्तनीय होती है तथा झिरी की चौड़ाई भी परिवर्तनीय होती है। प्रिज्म एक दृढ़ आधार पर इस प्रकार रखा जाता है। कि लेंस से आनेवाला समांतर रश्मिपुंज इसपर पड़े। प्रिज्म से परिक्षेपित रश्मियाँ कैमरे में जाती हैं और कैमरा लेंस द्वारा फोटोप्लेट पर केंद्रित (Focus) की जाती हैं। पूरी व्यवस्था एक साथ इस प्रकार ढकी रहती है कि झिरी के अतिरिक्त और कहीं से भी प्रकाश भीतर न जा सके।

सामान्यत: दृश्य और पराबैंगनी क्षेत्र में काम आनेवाले स्पेक्ट्रोग्राफ ऐसे ही होते हैं। दृश्यक्षेत्र में काम आनेवाले स्पेक्ट्रोलेखी में काँच के लेंस और प्रिज्म लगे रहते हैं। पराबैंगनी क्षेत्र के लिए क्वार्ट्ज, फ्लोराइड तथा फ्लोराइड के प्रिज्म और लेंस काम आते हैं। दूरस्थ अवरक्त के लिए उपयोगी प्रिज्म नहीं मिलते हैं। विक्षेपण बढ़ाने के लिए दो या तीन प्रिज्म वाले स्पेक्ट्रोलेखी बनाए गए हैं। निर्वात पराबैंगनी क्षेत्र के लिए ऐसे स्पेक्ट्रोग्राफ काम आते हैं जिनसे वायु निकाल दी जाती है। इन्हें निर्वात स्पेक्ट्रोग्राफ कहते हैं। ये बड़े मूल्यवान होते हैं।

अवरक्त के लिए विशेष प्रकार के स्पेक्ट्रोमापी काम में लाए जाते हैं। इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर से किसी पदार्थ का शोषण वर्णक्रम प्राप्त होता है। सततवर्णी इन्फ्रारेड रश्मियों को पदार्थ से होकर जाने दिया जाता है। पदार्थ से निकलने के बाद इन्हें प्रिज्म या ग्रेटिंग से विक्षेपित किया जाता है। विक्षेपित रश्मियों का अभिलेख (Recording) तापविद्युत् रिकार्डरों द्वारा किया जाता है। इन स्पेक्ट्रोमीटरों में क्लोराइड तथा फ्लोराइड के प्रिज्म लगे रहते हैं और लेंसों के स्थान पर धातु की कलईवाले दर्पण लगाए जाते हैं।

ग्रेटिंग स्पेक्ट्रोग्राफ (Grating Spectrograph)

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कई सँकरी झिरियों को समानांतर रखकर जो झिरीसमूह बनाया जाता है उसे ग्रेटिंग कहते हैं। यदि स्वच्छ पारदर्शक काँच पर समांतर रेखाएँ खुरच दी जाएँ तो प्रत्यक दो रेखाओं के बीच का पारदर्शक स्थान झिरी का काम देता है। ऐसे शीशे को समतल पारगामी (plane transmission) ग्रेटिंग कहते हैं। इनका उपयोग प्रिज्म की ही भाँति सीमित है। यदि किसी वक्रतल पर एलुमिनियम या चाँदी की कलई की जाए और इसी पर समांतर रेखाएँ खुरच दी जाएँ तो यह उपकरण अवतल परावर्तक ग्रेटिंग (Concave reflection grating) कहा जाता है। प्रत्येक दो रेखाओं के बीच का तल रश्मियों को परावर्तित कर देता है, इन्हीं परावर्तित रश्मियों के विवर्तन (diffraction) से स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है। इस प्रकार की ग्रेटिंग सर्वप्रथम हेनरी रोलैड (Henry Rowland) ने सन् 1882 ई. में बनाई थी। रेखाएँ खुरचने के लिए रोलैंड ने रूलिंग मशीन भी बनाई थी जो सुधारे हुए रूप में अब भी प्रचलित है।

वक्र ग्रेटिंग स्पेक्ट्रोलेखी में लेंस की आवश्यकता नहीं होती है। रश्मिपुंज एक सँकरी झिरी से होकर ग्रेटिंग पर पड़ता है। परावर्तित रश्मियाँ स्वत: एक वृत्त पर केंद्रित हो जाती हैं। इस वृत्त को "रोलैंड वृत्त" कहते हैं। जिस वक्रतल पर रेखाएँ खुरची जाती हैं उसे "ग्रेटिंग ब्लैक" कहते हैं। रोलैंड वृत्त का अर्धव्यास "ब्लैक" के वक्रतार्धव्यास का आधा होता है। यह वृत्त ग्रेटिंग को उस स्थान पर स्पर्श करता है जहाँ इसका व्यास-ग्रेटिंग पर अभिलंब होता है। इसी अभिलंब के दूसरे सिरे पर झिरी का प्रत्यक्ष बिंब बनता है। इसे शून्य कोटि का स्पेक्ट्रम कहते हैं। इसके दोनों ओर रोलैंड वृत्त पर जो सर्वप्रथम स्पेक्ट्रम पाए जाते हैं उन्हें प्रथम कोटि का स्पेक्ट्रम कहा जाता है। इसी वृत्त पर और आगे क्रमश: कम तीव्रता के कई स्पेक्ट्रम मिलते हैं। इन्हें क्रमश: द्वितीय, तृतीय आदि कोटि का स्पेक्ट्रम कहा जाता है।

स्पेक्ट्रोलेखी की उपयोगिता दो बातों पर निर्भर करती है। पहली उसकी परिक्षेपण क्षमता और दूसरी विभेदन क्षमता (Resolving power) है। किसी स्पेक्ट्रोलेखी में परिक्षेपक संयंत्र से निकलने पर विभिन्न तरंगदैर्घ्य की रश्मियाँ एक दूसरी से जितना ही अधिक पृथक् हो जाती हैं उस स्पेक्ट्रोलेखी की परिक्षेपण क्षमता उतना ही अधिक होती है। इसी प्रकार दो अत्यंत समीपवर्ती तरंगदैर्घ्य की रेखाओं को एक दूसरी से ठीक ठीक अलग दिखाने की क्षमता को विभेदनक्षमता कहते हैं। यदि किसी स्पेक्ट्रम में दो ऐसी रेखाएँ ली जाएँ जिनमें एक का तरंगदैर्घ्य   और दूसरी का   +  हो तो अधिक विभेदनक्षमतावाले स्पेक्ट्रोलेखी में दोनों रेखाएँ एक दूसरी से अलग दिखाई देती हैं किंतु कम विभेदक स्पेक्ट्रोलेखी में दोनों मिलकर केवल एक ही रेखा दिखाई पड़ती है। विभेदनक्षमता को निम्नलिखित अनुपात द्वारा व्यक्त किया जाता है।

 

रश्मियों का अभिलेखन

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स्पेक्ट्रोलेखी में परिक्षेपित रश्मियों का फोटो उतार लिया जाता है। इसे स्पेक्ट्रोलेखी कहते हैं। जहाँ फोटो नहीं उतारा जा सकता है वहाँ रश्मियों का अभिलेखन (Recording) किया जाता है। फोटो उतारने तथा अभिलेखन के लिए जो उपकरण काम आते हैं उन्हें "डिक्टेटर" कहा जाता है। स्पेक्ट्रामिकी के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के डिक्टेटर काम में लाए जाते हैं।

तरंगदैर्घ्य की माप

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किसी एकवर्ण रश्मि का तरंगदैर्घ्य अत्यंत शुद्धतापूर्वक ज्ञात करने के लिए व्यतिकरणमापी (Interferometer) काम में लाए जाते हैं। फेवरीपेरो इंटरफेरोमीटर और माइकेल्सन इंटरफेरोमीटर इस कार्य के लिए अत्यधिक उपयोगी होते हैं।

सभी रेखाओं का तरंगदैर्घ्य व्यक्तिकरणमापी से ही ज्ञात करना कठिन और बहुधा असंभ्ाव है अत: किसी तत्व की तीक्ष्ण और प्रखर रेखा को प्राथमिक मानक (Primary standard) मान लिया जाता है और इसकी सहायता से अन्य रेखाओं के तरंगदैर्घ्य ज्ञात किए जाते हैं। कैडगियम तत्व की जाल रेखा का तरंगदैर्घ्य 6438.4696 A को प्राथमिक मानक माना गया है। हाल ही में (1958-59 ई.) बहुत से वैज्ञानिकों ने हीलियम् गैस की रेखा 5015.6784 (A°) को प्राथमिक मानक मानने का निर्णय किया है। शुद्ध लौह तथा विरल गैसों के तरंगदैर्घ्य गौण मादक (Secondary standard) माने जाते हैं। किसी स्पेक्ट्रम का फोटो लेते समय फोटोप्लेट को यथास्थान रखकर मुख्य स्पेक्ट्रम के साथ-साथ लोहे या ताँबे के विद्युत्आर्क का स्पेक्ट्रम भी ले लिया जाता है और इसकी रेखाओं से तुलना करके, सूत्रों की सहायता से, स्पेक्ट्रम की रेखाओं या बैंडशीर्षों का तरंगदैर्घ्य ज्ञात कर लिया जाता है। रेखाओं की पारस्परिक दूरियाँ कैंपरेटर नामक उपकरण का सहायता से मापी जाती हैं।

स्पेक्ट्रमों की उत्पत्ति का सिद्धांत

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प्रत्येक परमाणु में एक नाभिक (nucleus) होता है। इसके चारों ओर कई इलेक्ट्रान नियत कक्षाओं में घूमते रहते हैं। इलेक्ट्रोनों की कुल संख्या नाभिक के पोटानों की संख्या के बराबर होती है। भिन्न-भिन्न कक्षाओं में इलेक्ट्रानों की संख्या भी नियत होती है। कोई भी इलेक्ट्रान किसी नियत कक्षा में ही रह सकता है। वास्तव में ये कक्षाएँ परमाणु की उर्जास्थिति की द्योतक होती हैं। यदि कोई इलेक्ट्रान किसी अन्य रिक्त कक्षा में चला जाए तो परमाणु की ऊर्जास्थिति बदल जाती हैं। भीतरी कक्षाओं के इलेक्ट्रानों का हटना प्राय: संभव नहीं होता है किंतु अंतिम कक्षा का इलेक्ट्रान बाहरी ऊष्मा या विद्युत् शक्ति से उत्तेजित होने पर अगली कक्षा में जा सकता है। यदि पहली कक्षा में उससे संबद्ध ऊर्जा क1 और उससे ठीक अगली कक्षा में क2 है तो पहली से दूसरी उच्चतर ऊर्जास्थिति में जाने के लिए इलेक्ट्रान केवल क2 - क1 ऊर्जा ही ले सकता है। उत्तेजित स्तर पर जाने के बाद ही वह पुन: पूर्वस्थिति में वापस आता है और क2 - क1 ऊर्जा उत्सर्जित करता है। इस उत्सर्जित या अवशोषित ऊर्जा का मान hn ही होता है अर्थात् इलेक्ट्रान एक ऊर्जास्तर से ठीक अगले ऊर्जास्तर में जाने या वापस आने में निश्चित ऊर्जा ण्द अर्ग ही ले सकता है या दे सकता है। इससे कम ऊर्जा का आदान-प्रदान नहीं हो सकता है। h एक स्थिर संख्या है और n उत्सर्जित रश्मि की आवृत्ति (frequency) है। h n अर्ग ऊर्जा का एक पैकेट या "क्वांटम" कहा जाता है। इसी प्रकार जब इलेक्ट्रान अन्य ऊर्जास्तरों में संक्रमण करता है तो भिन्न-भिन्न आवृत्ति की रश्मियाँ प्राप्त होती हैं और स्पेक्ट्रम में तदनुकूल बहुत सी रेखाएँ बन जाती हैं। अणु, परमाणुओं में इलेक्ट्रानों की व्यवस्था के अनुसार कई इलेक्ट्रानिक ऊर्जास्तर पाए जाते हैं और इलेक्ट्रानिक संक्रमण के कारण विभिन्न प्रकार के स्पेक्ट्रम प्राप्त होते हैं। परमाणुओं में केवल इलेक्ट्रानिक ऊर्जास्थितियाँ ही पाई जाती हैं। अत: इलेक्ट्रानों के संक्रमण (transition) से निश्चित तरंगदैर्घ्य की रश्मियाँ निकलती हैं और रेखीय स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है। अणुओं में तीन प्रकार की ऊर्जा होती है - इलेक्ट्रानिक, कंपनजन्य (vibrational) और घूर्णनजन्य (rotational)। इलेक्ट्रानिक ऊर्जा का मान और भी कम होता है। जिस प्रकार इलेक्ट्रानिक ऊर्जास्थितियाँ नियत हैं उसी प्रकार कंपनजन्य और घूर्णनजन्य ऊर्जा की स्थितियाँ भी नियत हैं। अत: कंपनजन्य संक्रमण से पट्ट या बैंड प्राप्त होता है। प्रत्येक बैड में घूर्णनजन्य संक्रमण से रेखाएँ प्राप्त होती हैं। ये बहुत पास पास होती हैं अत: छोटे स्पेक्ट्रोदर्शी से अलग-अलग नहीं दिखाई पड़ती हैं और स्पेक्ट्रम में विभिन्न वर्ण के बैंड ही दिखाई पड़ते हैं। अधिक परिक्षेपण तथा विभेदनक्षमतावाले स्पेक्ट्रोदर्शी से इन रेखाओं को देखा जा सकता है। दो से अधिक परमाणुवाले अणुओं की घूणन रेखाएँ और भी पास-पास होती हैं अत: उन्हें देखना कठिन होता है। बहुपरमाणुक अणुओं की घूर्णनरेखाओं को देखना अब तक संभव नहीं हुआ है।

स्पेक्ट्रमदर्शी के उपयोग

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  • (1) स्पेक्ट्रमी रासायनिक विश्लेषण : आर्क या स्फुलिंग द्वारा किसी पदार्थ को उत्तेजित करके उसके स्पेक्ट्रम द्वारा यह जाना जा सकता है कि उक्त पदार्थ किन-किन तत्वों से बना है तथा इसमें उनका अनुपात क्या है। ऐसे विश्लेषण से किसी तत्व की अत्यंत सूक्ष्म मात्रा का अनुपात ज्ञात किया जा सकता है। किसी धातु में दूसरी धात्वीय अशुद्धि यदि 0.0010% तक है तब भी इसका पता लगाया जा सकता है। रासायनिक रीतियों से यह संभव नहीं है।
  • (2) अणु-परमाणुओं की आंतरिक रचना ज्ञात की जाती है।
  • (3) नाभिकीय भ्रमि (Nuclear spin) और समस्थानिकों का पता सुविधापूर्वक लगाया जा सकता है।
  • (4) द्विपरमाणुक पदार्थों के चुंबकीय गुणों का पता लगाया जाता है।
  • (5) जहाँ सीधी रीतियों से ताप ज्ञात करना संभव नहीं है वहाँ स्पेक्ट्रमदर्शी की रीति अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई है। स्पेक्ट्रम की रेखाओं की दीप्ति नापकर उनके स्रोत का ताप बताया जा सकता है।
  • (6) पदार्थों के ऊष्मागतिक (Thermodynamical) गुणों की गणना भी स्पेक्ट्रमदर्शी की रीति से की जा सकती है।
  • (7) बहुत से ऐसे "रेडिकल" या परमाणुसमूह, जिनका बनना रासायनिक क्रियाओं द्वारा असंभव है और जो मुक्त रूप में नहीं बन सकते, उनका अध्ययन भी स्पेक्ट्रमदर्शी में बहुधा अत्यंत सरल है। क् ग़् और ग्र् क्त मूलक स्वतंत्र रूप में कभी नहीं पाए जाते हैं पर स्पेक्ट्रोदर्शी की रीतियों से इनका यथेष्ट अध्ययन किया गया है। तारों का ताप और उनकी बनावट का ज्ञान भी स्पेक्ट्रमदर्शी की विधियों से ही प्राप्त किया जाता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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