पुष्टिमार्ग

बैरागियों के चार सम्प्रदायों में से एक
(वल्लभ संप्रदाय से अनुप्रेषित)

भक्ति के क्षेत्र में महाप्रभु श्रीवल्‍लभाचार्य जी का साधन मार्ग पुष्टिमार्ग कहलाता है। पुष्टिमार्ग के अनुसार सेवा दो प्रकार से होती है - नाम-सेवा और स्‍वरूप-सेवा। स्‍वरूप-सेवा भी तीन प्रकार की होती है -- तनुजा, वित्तजा और मानसी। मानसी सेवा के दो प्रकार होते हैं - मर्यादा-मार्गीय और पुष्टिमार्गीय। मर्यादा-मार्गीय मानसी-सेवा पद्धति का आचरण करने वाला साधक जहाँ अपनी ममता और अहं को देर करता है, वहाँ पुष्टि-मार्गीय मानसी-सेवा पद्धति वाला साधक अपने शुद्ध प्रेम के द्वारा श्रीकृष्‍ण भक्ति में लीन हो जाता है और उनके अनुग्रह से सहज में ही अपनी वांक्षित वस्‍तु प्राप्‍त कर लेता है।

वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैतवाद दर्शन के भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग कहते हैं। शुद्धाद्वैतवापुष्टि करना

द के अनुसार ब्रह्म माया से अलिप्त है, इसलिये शुद्ध है। माया से अलिप्त होने के कारण ही यह अद्वैत है। यह ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी। सामान्य बुद्धि को परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली बातों का ब्रह्म में सहज अन्तर्भाव हो जाता है। वह अणु से भी छोटा और सुमेरु से भी बड़ा है। वह अनेक होकर भी एक है। यह ब्रह्म स्वाधीन होकर भी भक्त के अधीन हो जाता है। विशिष्टाद्वैत की तरह शुद्धाद्वैतवादी ने भी ब्रह्म के साथ साथ जगत को भी सत्य बताया है। कारणरूप ब्रह्म के सत्य होने पर कार्यरूप जगत मिथ्या नहीं हो सकता। ब्रह्म की प्रतिकृति होने के कारण जगत की त्रिकालाबाध सत्ता है। जीव और जगत का नाश नहीं होता, सिर्फ़ आविर्भाव और तिरोभाव होता है।

पुष्टिमार्ग शुद्धाद्वैत के दर्शन को ही भक्ति में ढालता है। पुष्टि का शाब्दिक अर्थ है ‘पोषण’। श्रीमद्भागवत में ईश्वर के अनुग्रह को पोषण कहा गया है- “पोषणं तदनुग्रहः”। वल्लभाचार्य के अनुसार, “कृष्णानुग्रहरूपा हि पुष्टिः कालादि बाधक”। अर्थात् कालादि के प्रभाव से मुक्त करने वाला कृष्ण का अनुग्रह ही पुष्टि है। पुष्टिमार्गी भक्ति का मूलाधार भगवतकृपा और उनके प्रति पूर्ण समर्पण है। भक्त के भगवान की ओर ध्यान ले जाने के पहले ही भगवान भक्त पर अपनी कृपा वर्षा कर देता है। कृष्ण की मुरली द्वारा गोपियों पर कृपा वर्षा होती है। कृष्ण की यह मुरली अनुग्रह संचारिका है। पुष्टिमार्ग में भक्त स्वय को पूर्णतया भगवान के आसरे छोड़ देता है।

पुष्टिमार्ग में जीवों के तीन प्रकार बताये जाते हैं- प्रवाह जीव, मर्यादा जीव और पुष्टि जीव। जन्म मरण के बंधन में बँधे जीव को ‘प्रवाह जीव’ कहते हैं। जो जीव वेद, उपनिषद आदि के अध्ययन से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करता है उसे ‘मर्यादा जीव’ कहते हैं और जीव भगवान की भक्ति और स्नेह को अपना अवलंब बनाता है, उसे ‘पुष्टि जीव’ कहते हैं।

पुष्टि मार्ग में भक्ति की भी तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं- प्रवाह पुष्टि भक्ति, मर्यादा पुष्टि भक्ति और शुद्ध पुष्टि भक्ति। ‘प्रवाह पुष्टि भक्ति’ के अन्तर्गत जन्म मरण के चक्र में बँधा भक्त ईश्वर का स्मरण करता हुआ क्रमिक मोक्ष प्राप्त करता है। ‘मर्यादा पुष्टि भक्ति’ के अन्तर्गत भक्त शास्त्रों से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान की ओर उन्मुख होता है और मोक्ष की ओर बढ़ता है। ‘शुद्ध पुष्टि भक्ति’ में भक्त स्वयं को पूर्णतया भगवान की शरण में समर्पित कर देता है। यहाँ भगवान अपने बच्चे की तरह भक्त का पालन करते हैं। भगवान के चरणों में पूर्णतया समर्पित भक्त भगवान के स्नेह का भाजन बनता है। शुद्ध पुष्टि भक्त की मुक्ति सबसे शुद्ध, सरल और सुगम होती है। भगवान की शरण मे आते ही भक्त के सारे दुःख दूर हो जाते हैं। पुष्टि मार्गी भक्ति को माधुर्य भक्ति, प्रेमाभक्ति या रागानुगा भक्ति कहते हैं। इस भक्ति में शृंगार के स्वरूप का आध्यात्मिक रूपांतर होता है। यहाँ भगवान कृष्ण भक्त के एकमात्र अवलंबन होते हैं, जबकि जीव और गोपियाँ आश्रय। भक्ति के विकास के तीन चरण होते हैं-प्रेम, आसक्ति और व्यसन। व्यसन इस प्रेम की चरम अवस्था है, जहाँ पहुँचकर भक्त को भगवान के सिवा कुछ नज़र नहीं आता।

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