वासुदेव वामन शास्त्री खरे

वासुदेव वामन शास्त्री खरे (जन्म सं. १८५८, मृत्यु सं. १९२४) प्रसिद्ध शिक्षाविद तथा इतिहासकार थे।

परिचय संपादित करें

इनका जन्म कोंकण के गुहागर नामक गाँव में हुआ थे। प्रारंभिक शिक्षा वहीं पर प्राप्त करने के बाद सतारा में आपने अनंताचार्य गजेंद्रगडकर के पास संस्कृत का विशेष अध्ययन किया। उसके बाद पूना के न्यू इंग्लिश स्कूल में संस्कृत के अध्यापक के रूप में उनकी नियुक्ति उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटना थी। यहीं पर लोकमान्य तिलक के साथ उनका परिचय और दृढ़ स्नेह हुआ। "केसरी" और "मराठा" से उनका संबंध उनके जन्म से ही था। तिलक जी की प्रेरणा से वे मिरज के नए हाई स्कूल में संस्कृत के अध्यापन का काम करने लगे। यहीं उन्होंने ३० वर्षों तक विद्यादान का कार्य किया, यहीं पर अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया तथा इतिहास अन्वेषण के प्रति रुचि यहीं पर उनमें उत्पन्न हुई थी। लगभग २७ वर्षों तक पटवर्धन दफ्तर के अमूल्य ऐतिहासिक साधनों का अध्ययन कर "ऐतिहासिक लेखसंग्रह' के रूप में उसे उन्होंने महाराष्ट्र को दिया।

बचपन से ही वे कविता किया करते थे। "यशवंतराव" नामक एक महाकाव्य की उन्होंने रचना की थी। संस्कृत पढ़ाते समय संस्कृत श्लोकों का समवृत्त मराठी अनुवाद अपने विद्यार्थियों को सुनाते थे। शिक्षक के रूप में वे बहुत अनुशासनप्रिय थे। वे नाटककार भी थे। गुणोत्कर्ष, तारामंडल, उग्रमंडल आदि अनेक ऐतिहासिक नाटकों की उन्होंने रचना की। इसके अतिरिक्त नाना फणनवीस चरित्र, हरिवंशाची बखर, इचल करंजी चा इतिहास, मालोजी व शहाजी, उनकी विशेष प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।

परंतु उनकी कीर्ति इतिहास के प्रति सेवाओं के कारण चिरंतन है। उनके "ऐतिहासिक लेख संग्रह' में १७६० से १८०० तक के मराठों के इतिहास की विवेचना है। रसिक और विद्वान होने के नाते उनसे इतिहास के संबंध में अनेक नई बातें लोगों को सुनने को मिलती थीं। उनका अधिकतर जीवन गरीबी में बीता। उन्होंने बिना किसी की आर्थिक सहायता के अपने ही पैरों पर खड़े होकर श्रेष्ठ इतिहास अन्वेषक और ग्रंथकार के रूप से कीर्ति प्राप्त की थी। इन परिस्थितियों में लगभग तीन दशाब्दियों तक इतिहासअन्वेषण का जो ठोस और सुव्यवस्थित कार्य उन्होंने किया वह किसी भी उच्च कोटि के विद्वान्‌ के लिए अभिमानास्पद है। उनकी विवेचनाशक्ति तथा सारग्रहण करने की क्षमता अद्भत थी। ठोस और बृहत्‌ आधार पर वे अपने मतों का स्थिर करते थे इसीलिए वे अकाट्य और अबाधित रहते थे। इस सुदीर्ध परिश्रम को उनका शरीर न सह सका। वे तपेदिक से पीड़ित हो गए और ११ जून १९२४ को मिरज में उनका देहांत हुआ।