"चीनी दर्शन": अवतरणों में अंतर

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== चीनी दर्शन की शाखाएँ ==
जिस प्रकार [[भारतीय दर्शन]] की छह परंपरागत शाखाएँ षड्दर्शनों के नाम से प्रचलित हैं : (1) न्याय (2) वैशेषिक, (3) सांख्य, (4) योग, (5) मीमांसा, और (6) वेदांत। उसी प्रकार चीन दर्शन को उसी संख्या के समान शाखाएँ "लिउ चिआ" के नाम से प्रचलित हैं : (1) "जु-चिआ" या कनफ्यूशिअस शाखा, (2) "ताओ-चिआ" या ताओ शाखा, (3) "मो-चिआ" या मोहिस्ट शाखा, (4) "फा-चिआ" या विधिज्ञ शाखा, (5) "यिन-यङ चिआ" या विश्वविज्ञान शाखा तथा (6) "मिङ-चिआ" या तार्किक शाखा।
 
(1) न्याय (2) वैशेषिक, (3) सांख्य, (4) योग, (5) मीमांसा, और (6) वेदांत।
जिस प्रकार भारतीय दर्शन की छह शाखाएँ तीन समूहों में मिलाई जा सकती हैं : (1) न्याय वैशेषिक (2) सांख्य योग, और (3) मीमांसा वेदांत; उसी प्रकार उन्हीं संख्याओं में चीनी दर्शन की भी छ: शाखाएँ समूहों में संमिलित की जा सकती हैं : (1) कनफ्यूशिअस की विधिज्ञ शाखा, (2) ताओ की विश्वविज्ञान संबंधी शाखा तथा (3) मोहिस्ट तार्किक शाखा।
 
उसी प्रकार चीन दर्शन को उसी संख्या के समान शाखाएँ "लिउ चिआ" के नाम से प्रचलित हैं :
 
(1) "जु-चिआ" या कनफ्यूशिअस शाखा, (2) "ताओ-चिआ" या ताओ शाखा, (3) "मो-चिआ" या मोहिस्ट शाखा,
 
(4) "फा-चिआ" या विधिज्ञ शाखा, (5) "यिन-यङ चिआ" या विश्वविज्ञान शाखा तथा (6) "मिङ-चिआ" या तार्किक शाखा।
 
जिस प्रकार भारतीय दर्शन की छह शाखाएँ तीन समूहों में मिलाई जा सकती हैं :
 
(1) न्याय वैशेषिक (2) सांख्य योग, और (3) मीमांसा वेदांत;
 
उसी प्रकार उन्हीं संख्याओं में चीनी दर्शन की भी छ: शाखाएँ समूहों में संमिलित की जा सकती हैं :
 
(1) कनफ्यूशिअस की विधिज्ञ शाखा, (2) ताओ की विश्वविज्ञान संबंधी शाखा तथा (3) मोहिस्ट तार्किक शाखा।
 
=== कनफ्यूशिअस की विधिज्ञ शाखा ===
कनफ्यूशिअस शाखा का नाम [[कनफ्यूशिअस]] (511-479 ई.पू.) के नाम के पश्चात् पड़ा जो विद्या एवं गुण दोनों में पूर्णताप्राप्त प्रथम एवं सबसे महान् गुरु माना जाता था और जिसने सबसे पहले साधारण जनता को विद्या और सद्गुण सिखलाया, जिसका एकाधिकार पहले आभिजात्य शासक वर्ग के हाथ में था। अतएव कनफ्यूशिअस के अनुयायी अन्य वस्तुआं की अपेक्षा ज्ञान एवं सद्गुण का आदर करते थे।
 
"लुन-यु" या कनफ्यूशिअस की साहित्यिक झाँकियों के संग्रह नामक पुस्तक में कनफ्यूशिअस ने सबसे प्रथम शब्द "ह्सुयेह" का उल्लेख किया है जिसका अर्थ सीखना है। गुरु ने कहा था : "निरंतर उद्योग एवं प्रयोग से सीखना, क्या यह एक मनोहर वस्तु नहीं है?" (पुस्तक 1, अध्याय 1)। तत्पश्चात् अनेक अवसरों पर, कनफ्यूशिअस ने अपने अनुयाइयों के साथ ज्ञान की चर्चा की या उसके संबध में विवाद किया। "गुरु ने कहा, 15 वर्ष की अवस्था में मैंने ज्ञान प्राप्त करने का संकल्प किया। 30 वर्ष की अवस्था में मैं दृढ़ था। 40 की अवस्था में मुझे कोई संदेह नहीं था। 50 की अवस्था में मुझे ईश्वर के आदेशों का भान हुआ। 60 की अवस्था में मेरा कान सत्यग्रहण करने का आज्ञाकारी बना। 70 वर्ष की अवस्था में उसे समझने लगा जिसकी इच्छा मेरा हृदय करता था और ऐसा करने में सत् का अतिक्रमण नहीं किया, (पुस्तक 2, अध्याय 4)। पुन: गुरु ने कहा, "दस कुटुंबो के छोटे ग्राम में मेरे समान प्रतिष्ठित और सच्चा व्यक्ति तो मिल सकता था किंतु ज्ञान का इतना प्रेमी नहीं मिल सकता था। (पुस्तक 5, अध्याय 27)।
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चीनी भाषा में तार्किक शाखा को "मिङ् चिआ" कहते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ "नामों की शाखा" है; या "प" इयन-चे, जिसका अर्थ वादविवाद करनेवाले से है अथवा जिनका अर्थ प्राचीन ग्रीक वितंडावादियों या तर्क करनेवालों से भी लिया जाता है। हम लोग यहाँ "तार्किकों" शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि वे पाश्चात्य दर्शन के तार्किकों के समान व्यवहृत होते हैं। इस शाखा के मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन पहले ही से कनफ्यूशिअस, लाओ-त्जू, मो-जु और विशेषकर मोहिस्टों द्वारा किया गया है। तार्किकों ने केवल उन्हें सुनिश्चित चीनी दर्शन में विकसित किया इसलिए वे मोहिस्त शाखा से संबधित हैं।
 
इस शाखा के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि निम्नलिखित हैं :
इस शाखा के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि निम्नलिखित हैं : (1) हिय-शिह (लगभग 350-260 ई.पू.) और (2) कुङ- सुन कुङ् (लगभग 284-259 ई.पू.) हिय शिह की पुस्तक "वन-वु-शुओ" या दस सहस्त्र उपादानों पर निबंध जो बहुत पहले खो गया था। कुङ् सुन लुङ् की कृति "लुङ्-सुन-कुङ्-जु" की प्रामाणिकता संदेहात्मक है। हम लोग जो उनके सिद्धांतां के संबध में जानते हैं वे "शिह शिह" या हिय शिह की दस समस्याएँ, ओर अर्ह-शिह-यि-शिह या कुङ्-सुन-लुङ्. और अन्य तार्किकों की 21 समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ अधिकतर विरोधाभास के रूप में समझी जाती हैं। वास्तव में ये विरोधाभास नहीं हैं बल्कि दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रश्न, तात्विक और प्रत्यक्ष, सत्ताशास्त्रीय और विश्वविज्ञान संबंधी, ज्ञानवाद संबंधी और तार्किक समस्याएँ हैं : वे सभी विश्व में वस्तुओं की सापेक्षता के उदाहरण हैं। मुख्य विषय ये हैं : (1) समय और दूरी के समस्त विभाजन और अंतर कृत्रिम और कल्पित हैं। (2) स्थूल पदार्थो और वस्तुओं के अंतर और भेद बाह्म एवं सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं। (3) सभी वस्तुएँ और जीव वास्तव में एक और समान हैं (4) समय, दूरी और सृष्टि शाश्वत हैं, प्रारंभरहित, अंतरहित और सीमारहित हैं। अतएव हिय शिह का निष्कर्ष है : "समस्त् वस्तुओं को मान रूप से प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए, आकाश एवं पृथ्वी एक हैं।"
 
इस शाखा के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि निम्नलिखित हैं : (1) हिय-शिह (लगभग 350-260 ई.पू.) और (2) कुङ- सुन कुङ् (लगभग 284-259 ई.पू.) हिय शिह की पुस्तक "वन-वु-शुओ" या दस सहस्त्र उपादानों पर निबंध जो बहुत पहले खो गया था। कुङ् सुन लुङ् की कृति "लुङ्-सुन-कुङ्-जु" की प्रामाणिकता संदेहात्मक है। हम लोग जो उनके सिद्धांतां के संबध में जानते हैं वे "शिह शिह" या हिय शिह की दस समस्याएँ, ओर अर्ह-शिह-यि-शिह या कुङ्-सुन-लुङ्. और अन्य तार्किकों की 21 समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ अधिकतर विरोधाभास के रूप में समझी जाती हैं। वास्तव में ये विरोधाभास नहीं हैं बल्कि दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रश्न, तात्विक और प्रत्यक्ष, सत्ताशास्त्रीय और विश्वविज्ञान संबंधी, ज्ञानवाद संबंधी और तार्किक समस्याएँ हैं : वे सभी विश्व में वस्तुओं की सापेक्षता के उदाहरण हैं। मुख्य विषय ये हैं : (1) समय और दूरी के समस्त विभाजन और अंतर कृत्रिम और कल्पित हैं। (2) स्थूल पदार्थो और वस्तुओं के अंतर और भेद बाह्म एवं सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं। (3) सभी वस्तुएँ और जीव वास्तव में एक और समान हैं (4) समय, दूरी और सृष्टि शाश्वत हैं, प्रारंभरहित, अंतरहित और सीमारहित हैं। अतएव हिय शिह का निष्कर्ष है : "समस्त् वस्तुओं को मान रूप से प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए, आकाश एवं पृथ्वी एक हैं।"
 
== उपसंहार ==