"शेयर बाजार की पारिभाषिक शब्दावली": अवतरणों में अंतर

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* '''एसटीटी''' : सिक्योरिटीज ट्रांजेक्शन टेक्स को सारांश में एसटीटी कहते हैं। सरकार के `कर नियम` के अनुसार शेयर सिक्युरिटीज के प्रत्येक सौदे पर एसटीटी लागू होता है। सरकार को इस मार्ग से प्रतिदिन भारी राजस्व मिलता है। यह `कर` ब्रोकरों को भरना होता है हालांकि ब्रोकर इसे अपने ग्राहकों से वसूल लेते हैं। प्रत्येक कांट्रेक्ट नोट या बिल में ब्रोकरेज के साथ-साथ एसटीटी भी वसूला जाता है।
 
* '''एफआईआई''' : शेयर बाजार को नचाने वाला, बाजार की चाल निर्धारित करने वाला यह शब्द बाजार से संबंधित समाचारों में बार-बार सुनने को मिलता है। प्राय''' :प्रायः इस बात पर आप अपना ध्यान देते हैं कि एफआईआई की लिवाली या बिकवाली के कारण बाजार का यह हाल हुआ। एफआईआई, यानि की फॉरेन इंस्टिट्युशनल इन्वेस्टर अर्थात विदेशी संस्थागत निवेशक। ये संस्थागत निवेशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होते हैं। ये अपने स्वयं के देश के लोगों से बड़ी मात्रा में निवेश के लिए धन एकत्रित करते हैं और उनका अनेक देशों के शेयर बाजार में निवेश करते हैं। इन संस्थागत निवेशकों के ग्राहकों की सूची में सामान्य निवेश से लेकर बड़े निवेशक - पेंशन फंड आदि होते हैं, जिसका एकत्रित धन एफआईआई अपनी व्यूहरचना के अनुसार विविध शेयर बाजारों की प्रतिभूतियों में निवेश करके उस पर लाभ कमाते हैं और उसका हिस्सा अपने ग्राहकों को पहुंचाते हैं। चूंकि इन लोगों के पास धन काफी विशाल मात्रा में होता है और प्राय''' : ये भारी मात्रा में ही लेवाली या बिकवाली करते हैं जिससे शेयर बाजार की चाल पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में तो अभी उनका ऐसा वर्चस्व है कि लगता है शेयर बाजार को वे ही चलाते हैं। वर्ष 2008 में जब अमेरिका में आर्थिक मंदी आयी थी तब इस वर्ग ने भारतीय पूंजी बाजार से अपना निवेश निरंतर निकाला था, जिससे भारतीय बाजार में भी गिरावट होती गयी। किसी भी एफआईआई को भारतीय शेयर बाजार में निवेश करने से पहले अपना पंजीकरण भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) तथा भारतीय रिजर्व बैंक के पास करवाना होता है तथा इनके नियमों का पालन करना होता है। वर्तमान समय में सेबी के पास 1100 से अधिक एफआईआई पंजीकृत है।
 
* '''एफआईआई''' : शेयर बाजार को नचाने वाला, बाजार की चाल निर्धारित करने वाला यह शब्द बाजार से संबंधित समाचारों में बार-बार सुनने को मिलता है। प्राय''' :प्रायः इस बात पर आप अपना ध्यान देते हैं कि एफआईआई की लिवाली या बिकवाली के कारण बाजार का यह हाल हुआ। एफआईआई (इघ्घ्) यानि की फॉरेन इंस्टिट्युशनल इन्वेस्टर अर्थात विदेशी संस्थागत निवेशक। ये संस्थागत निवेशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होते हैं। ये अपने स्वयं के देश के लोगों से बड़ी मात्रा में निवेश के लिए धन एकत्रित करते हैं और उनका अनेक देशों के शेयर बाजार में निवेश करते हैं। इन संस्थागत निवेशकों के ग्राहकों की सूची में सामान्य निवेश से लेकर बड़े निवेशक - पेंशन फंड आदि होते हैं, जिसका एकत्रित धन एफआईआई अपनी व्यूहरचना के अनुसार विविध शेयर बाजारों की प्रतिभूतियों में निवेश करके उस पर लाभ कमाते हैं और उसका हिस्सा अपने ग्राहकों को पहुंचाते हैं। चूंकि इन लोगों के पास धन काफी विशाल मात्रा में होता है और प्राय''' :प्रायः ये भारी मात्रा में ही लेवाली या बिकवाली करते हैं जिससे शेयर बाजार की चाल पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत में तो अभी उनका ऐसा वर्चस्व है कि लगता है शेयर बाजार को वे ही चलाते हैं। वर्ष 2008 में जब अमेरिका में आर्थिक मंदी आयी थी तब इस वर्ग ने भारतीय पूंजी बाजार से अपना निवेश निरंतर निकाला था, जिससे भारतीय बाजार में भी गिरावट होती गयी। किसी भी एफआईआई को भारतीय शेयर बाजार में निवेश करने से पहले अपना पंजीकरण भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) तथा भारतीय रिजर्व बैंक के पास करवाना होता है तथा इनके नियमों का पालन करना होता है। वर्तमान समय में सेबी के पास 1100 से अधिक एफआईआई पंजीकृत है।
 
* '''एक्सपोजर''' : : साधारण शब्दों में इसे जोखिम कहा जा सकता है। जब कोई निवेशक किसी कंपनी में निवेश करता है तो यह कहा जाता है कि उक्त निवेशक ने कंपनी में एक्सपोजर लिया है। एक्सपोजर मात्र कंपनी में ही नहीं बल्कि संपूर्ण उद्योग या अर्थतंत्र में भी लिया जाता है। जब कोई निवेशक अन्य देश में निवेश करता है तो कहा जाता है कि उसने उस देश के अर्थ तंत्र में या उस देश की कंपनियों, उद्योगों में एक्सपोजर अर्थात जोखिम ली है। वायदे के सौदों में यह शब्द काफी उपयोग में लाया जाता है क्योंकि जब कोई ट्रेडर प्युचर कांट्रेक्ट करता है तब वह भविष्य की जोखिम लेता है। व्यक्ति जब भी कोई निवेश करता है तब उसके मूल्य में घट-बढ़ की संभावना होने से उस निवेश का एक्सपोजर कहा जाता है।
 
* '''बेस्ट बाई''' : जो शेयर खरीदने के लिए उत्तम माने जाते हैं या जिन शेयरों का खरीदारी के लिए उत्तम भाव माना जाता है उन्हें ``बेस्ट बाई`` कहा जाता है। ये कंपनियां श्रेष्ठ हैं अथवा भविष्य में उनका भाव अपने वर्तमान भाव से बढ़ने की संभावना होती है ऐसी स्क्रिप या शेयर को बेस्ट बाई के रूप में गिना जाता है। अनेक बार एनालिस्ट विद्यमान स्थित के आधार पर किसी शेयर को बेस्ट बाई कहते हैं, उस समय उन कंपनियों का शेयर भाव बढ़ने की प्रबल संभावनाएं रहती हैं।
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* '''करेक्शन''' : : शेयर बाजार की दैनिक रिपोर्ट में इस शब्द का उपयोग होता रहता है। बाजार खूब बढ़ गया हो और एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने के बाद तेजी के रूझाान के बीच जो गिरावट दर्ज की जाती है उसे बाजार में करेक्शन कहा जाता है। उदाहरण के लिए शेयर बाजार यदि निरंतर 4 दिन एकतरफा बढ़ता रहे और पांचवे दिन उसमें गिरावट आ जाये तो उसे करेक्शन के नाम से जाना जाता है। समय-समय पर इस प्रकार का करेक्शन बाजार के स्वास्थ्य के लिए अच्छा प्रतीक माना जाता है। निरंतर एकतरफा बढ़ते रहने वाला बाजार जोखिमपूर्ण हो जाता है जिसमें आगे जाकर एक साथ भारी गिरावट की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
 
* '''कार्पोरेट एक्शन''' : कंपनी द्वारा जब कभी भी शेयरधारकों या बाजार से संबंधित कोई निर्णय लिया जाता है तो उसे कार्पोरेट एक्शन कहा जाता है। उदाहरण के लिए लाभांश / ब्याज का भुगतान, राइट / बोनस इश्यू, मर्जर/डिमर्जर, बाई बैक, ओपन ऑफर जैसी बातों कार्पोरेट एक्शन कही जाती हैं।
 
* '''कांट्रेक्ट नोट''' : शेयर बाजार में सौदे करते समय कांट्रेक्ट नोट का काफी महत्व है। आप जिस शेयर ब्रोकर के जरिये शेयरों की खरीद बिक्री करें, उससे हर बार कांट्रेक्ट नोट लेने का आग्रह करें। आपके शेयरों के सौदे किस समय तथा किस भाव पर हुए, उस पर कितनी दलाली, सिक्युरिटी ट्रांजेक्शन टैक्स, सर्विस टैक्स लगा है इन सबका उल्लेख कांट्रेक्ट नोट में होता है। आपको ब्रोकर से सौदे के 24 घंटे के भीतर कांट्रेक्ट नोट मिल जाना चाहिए, परंतु सामान्य रूप से ब्रोकर इसमें 3-4 दिन लगा देते हैं। कांट्रेक्ट नोट पाना आपका अधिकार बनता है और यही आपके सौदे का दस्तावेजी प्रमाणित प्रमाण भी है। यदि किसी कारण से आपका ब्रोकर विफल हो जाये और आपको अपने सौदे के शेयर या उसकी रकम उससे लेनी निकलती है तो इस कांट्रेक्ट नोट के आधार पर हीी आप अपना दावा पेश कर सकते हैं। ब्रोकर के विफल होने पर एक्सचेंज कांट्रेक्ट नोट के आधार पर ही आपका दावा मान्य करता है, जिसमें आपको एक्सचेंज की तरफ से 10 लाख रूपये तक की सुरक्षा मिलती है। ऐसी स्थिति में कांट्रेक्ट नोट ही मात्र ऐसा दस्तावेज है जो आपके दावे का आधार बनता है। ऐसा न होने पर आपका दावा वैध नहीं माना जायेगा। अत''' :अतः ब्रोकरों के साथ व्यवहार करते समय कांट्रेक्ट नोट लेने का आग्रह करें, इसकी उपेक्षा न करें तथा इसे संभाल अपने पास रखें। याद रखें इस कांट्रेक्ट नोट पर ब्रोकर का सेबी पंजीकरण क्रमांक होना भी आवश्यक है।
 
* '''कॉर्नरिंग''' : जब कोई निश्चित व्यक्ति या ग्रुप किसी शेयर विशेष की खरीदारी करके उस पर एकाधिकार जमाने के लिए इकùा करता है तो इसे उस शेयर की कॉर्नरिंग हो रही है, ऐसा कहा जाता है। ऐसा करने के अनेक कारण हो सकते हैं परंतु यह बात निश्चित है कि ऐसा करने के पीछे उक्त समूह या व्यक्ति की उस शेयर में रूचि है।
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* '''डीपी (डिपॉजिटरी पर्टिसिपेंट)''' : शेयरधारक, कंपनी और डिपॉजिटरी की कड़ी अर्थात डीपी। बैंक, वित्तीय संस्थाएं और शेयर दलाल आदि डीपी बन सकते हैं। जिस प्रकार बैंक खातेधारकों की रकम संभाल कर रखते हैं उसी प्रकार डिपॉजिटरी निवेशकों की प्रतिभूतियों को इलेक्ट्रानिक स्वरूप में संभाल कर रखते हैं। हमारे देश में एनएसडीएल (नेशनल सिक्युरिटीज डिपॉजिटरी लि.) और सीडीएसएल (सेंट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज इंडिया लि.) नाम की दो डिपॉजिटरी हैं। शेयर बाजार में सौदे करने के लिए निवेशक को अपना डिमैट खाता खुलवाना आवश्यक है। यह खाता डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट के पास खुलवाया जाता है।
 
* '''डाइवर्सिफिकेशन (विविधीकरण)''' : शेयर बाजार ही नहीं निवेश जगत में भी यह शब्द काफी महत्व रखता है। सभी अंडे एक टोकरी में नहीं रखे जाते, आपने यह कहावत तो सुनी ही होगी। इसी प्रकार सारा निवेश एक शेयर में नहीं करना चाहिए बल्कि अलग-अलग शेयरों में करना चाहिए और इतना ही नहीं ये शेयर भी अलग-अलग उद्योगों से जुड़ी कंपनियों के होने चाहिए। इस प्रकार विविध उद्योगों की कंपनियों के शेयरों में निवेश करना विविधीकरण कहलाता है। ऐसा करने से निवेशकों की जोखिम घटती है, कारण कि यदि सारे अंडे एक ही टोकरी में हों और वह टोकरी गिर जाय तो सारे अंडे नष्ट हो जायेंगे। इसी प्रकार सारा निवेश किसी एक ही कंपनी के शेयरों में हो और दुर्भाग्यवश यदि उस कंपनी के साथ कुछ अनहोनी हो जाये तो निवेशकों का सारा निवेश नष्ट हो सकता है। ऐसा करने के बजाय विविध शेयरों में निवेश होने से डाइवर्सिफिकेनशन का लाभ मिलता है। जिसमें यदि किसी एक या दो कंपनियों के शेयर गिर भी जायें तो अन्य शेयरों में किया गया निवेश उसकी जोखिम को कम कर देता है। अलग-अलग उद्योगों के शेयर रखने के पीछे उद्देश्य यह है कि प्राय''' :प्रायः किसी एक समय में सभी उद्योगों की कंपनी में मंदी का दौर नहीं रहता। एक उद्योग में मंदी होने पर दूसरे उद्योग की तेजी का लाभ मिल जाता है। हां, यह दूसरी बात है कि पूरे वित्त बाजार में ही भारी गिरावट का दौर न आ जाय।
 
यहां यह बात भी समझानी जरूरी है कि निवेश का डाइवर्सिफिकेशन मात्र शेयरों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। निवेशकों को मात्र शेयरों में निवेश करने से भी जोखिम होती है। भले ही उसने अनेक प्रकार के शेयरों में निवेश किया हो। पूरा शेयर बाजार ही मंदी की चपेट में आ जाय तो क्या हो? निवेशकों को अपने असेट का भी डाइवर्सिफिकेशन रखना चाहिए। जिसे दूसरे शब्दों में असेट एलोकेशन भी कहा जाता है। सरल शब्दों में कहा जाय तो निवेशकों को शेयरों के बाद सोना, चांदी, प्रापर्टी, बैंक या कार्पोरेट डिपॉजिट, बांड्स, सरकारी बचत योजनाओं इत्यादि में भी निवेश करना चाहिए। ऐसा करने से उसकी संपूर्ण जोखिम का विभाजन हो जाता है और वह अपने पूरे निवेश को खोने से बच सकता है।
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* '''गाइडन्स''' : : कंपनी जब आगामी समय में होने वाले अपने संभावित टर्नओवर या बिजनेस या कार्य के संकेत देती है तो उसे गाइडन्स कहा जाता है। प्राय''' :प्रायः आईटी (इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजीज) कंपनियां इस शब्द का काफी उपयोग करती हैं। इंफोसिस ने आगामी तिमाही के लिए अपना गाइडन्स जाहिर किया था, जिससे उसके शेयरों का भाव काफी चढ़ा, ऐसे समाचार आपने पढ़े होंगे। कंपनी के भावी संकेतों के आधार पर उद्योग विशेष के संकेत का अनुमान भी लगाया जा सकता है।
 
* '''गाइड लाइन अर्थात मार्ग रेखा''' : सेबी शेयर बाजार अथवा बाजार के मध्यस्थतों के लिए जब-जब भी नीति-नियम जाहिर करती है तो उसे मार्ग रेखा कहा जाता है, इनका पालन करना आवश्यक होता है। दूसरे शब्दों में इसे शर्त एवं नियम भी कहा जा सकता है।
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* '''लिक्विडिटी (प्रवाहिता)''' : शेयर बाजार में रूपये की आपूर्ति अधिक हो और बढ़ते हुए भाव में भी निरंतर लिवाली बढ़ती रहे तो बाजार में प्रवाहिता अधिक है ऐसा माना जाता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि ले-बेच दोनों निरंतर होती रहे और उनमें वाल्यूम भी काफी हो तो लिक्विडिटी अच्छी कहलाती है। बाजार में तेजी के लिए अच्छी लिक्विडिटी होना महत्वपूर्ण है। मंदी में लिक्विडिटी कम हो जाती है अथवा कम लिक्विडिटी होेने पर बाजार में मंदी आ जाती है। अनेक बार बाजार में अधिक लिक्विडिटी के कारण भाव काफी बढ़ने लगते हैं जिससे बाजार में जोखिम बढ़ जाती है। भारतीय रिजर्व बैंक समय-समय पर बाजार में लिक्विडिटी को अंकुश में रखने के लिए कदम उठाती रहती है।
 
* '''लुढ़कना (एक ही दिन में भारी गिरावट)''' : शेयर बाजार का इंडेक्स सेंसेक्स या फिर निप्टी यदि एक ही दिन में काफी गिर जाये तो इसे लुढ़कना अर्थात भारी गिरावट कहा जाता है। सामान्यत''' :सामान्यतः एक ही दिन में 400-500 अंकों की गिरावट बाजार के लुढ़कने या फिर इतने ही अंकों की वृद्धि बाजार के उछलने का प्रतीक माना जाता है।
 
* '''मार्केÀट ब्रेड्थ''' : : बाजार की चाल एवं प्रवृत्ति को दर्शाने वाली बातों को मार्केÀट ब्रेड्थ कहा जाता है। शेयर बाजार में जब यह जानना हो कि बाजार की चाल सकारात्मक है या नकारात्मक तो इसका अनुमान निकालने के लिए मार्केÀट ब्रेड्थ को देखना चाहिए। एक्सचेंज पर सूचीबद्ध कंपनियों में से जितनी भी कंपनियों के दिन भर के दौरान सौदे होते हैं उनमें से बढ़ने वाली और घटने वाली दोनों स्क्रिपें होती हैं। यदि बढ़ने वाली स्क्रिपों की संख्या अधिक हो तो मार्केÀट ब्रेड्थ पॉजिटिव और यदि घटने वाली स्क्रिपों की संख्या अधिक हो तो मार्केÀट ब्रेड्थ निगेटिव कही जाती है। उदाहरण स्वरूप बीएसई पर सूचीबद्ध कंपनियों में यदि किसी दिन 2500 स्क्रिपों में सौदे हुए हों और उसमें से 1500 स्क्रिपों के भाव बढ़े हों और 1000 स्क्रिपों के भाव घटे हों मार्केÀट ब्रेड्थ पॉजिटिव अर्थात सकारात्मक कही जाती है। इसके विपरीत होने पर मार्केÀट ब्रेड्थ निगेटिव अर्थात नकारात्मक कहलाती है। बाजार का रूझाान जानने के लिए निवेशकों को घटने वाली और बढ़ने वाली स्क्रिपों पर ध्यान देना चाहिए। यह संख्या शेयर बाजार की वेबसाइट पर उपलब्ध है। बीएसई और एनएसई दोनों की वेबसाइट पर मार्केÀट ब्रेड्थ रोज-रोज ऑन लाइन देखने को मिलती है। सेंसेक्स की 30 स्क्रिपों में से 25 स्क्रिपें बढ़ी हों और 5 घटी हों तो सेंसेक्स की मार्केÀट ब्रेड्थ पॉजिटिव कही जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक इंडेक्स की अपनी -अपनी मार्केÀट ब्रेड्थ जानी जा सकती है।
 
* '''प्लेज शेयर (गिरवी रखे गये शेयर)''' : : कोई भी निवेशक या खुद कंपनियों के प्रमोटर शेयरों को बैंक या अन्य वित्तीय संस्थानों के पास गिरवी रखकर ऋण ले सकते हैं। इस प्रकार ऋण के लिए बतौर गारंटी गिरवी रखे गये शेयरों को प्लेज शेयर कहा जाता है। कंपनियां इस मार्ग से शेयर गिरवी रखकर ऋण सुविधाएं लेती हैं और उसका उपयोग कंपनी के विकास कार्यों पर करती हैं। ऋण लेने के लिए यह एक आसान एवं अच्छा मार्ग है। परंतु सत्यम कंप्यूटर घोटाले के बाद हुई जांच में सेबी का ध्यान इस तरफ गया कि कंपनी के प्रमोटर भारी संख्या में शेयर गिरवी रखकर धन इकùा करके उसका अन्यत्र उपयोग कर लेते हैं, जिससे कंपनी को कोई फायदा नहीं होता। इस विषय में पारदर्शिता के अभाव में निवेशकों को इस सच्चाई का पता नहीं लग पाता है कि प्रमोटरों की कंपनी में कितनी शेयरधारिता है क्योंकि प्रमोटरों की शेयरधारिता ही इस बात का संकेत है कि प्रमोटरों का कंपनी के साथ कितना हित जुड़ा हुआ है। सत्यम घोटाले के उजागर होने के बाद ही सेबी ने समय-समय पर प्रमोटरों द्वारा गिरवी रखे गये उनके हिस्से के शेयरों की जानकारी घोषित करने का दिशा-निर्देश जारी किया। निवेशकों को प्रमोटरों की शेयरधारिता पर ध्यान रखना चाहिए।
 
* '''प्रॉफिट बुकिंग''' : : शेयर बाजार में यह शब्द सबसे अधिक महत्व का है, जो कि न केवल समझाने के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि इसका अमल भी महत्वपूर्ण है। जब आप कोई शेयर 45 रू. के भाव पर लें और एक-आधे वर्ष बाद उसका भाव 85 रू. हो जाये और आप यह शेयर बेचकर नफा कर लें तो इसे प्रॉफिट बुकिंग कहा जाता है। सामान्यत''' :सामान्यतः निवेशक लालच में इतना आकर्षक लाभ मिलने पर भी और अधिक बढ़ने के लालच में उन शेयरों को बेचकर प्रॉफिट बुक नहीं करते, जिससे अनेक बार फिर से भाव घट जाने पर या तो उनका नफा जाता रहता है या वे नुकसान में भी जा सकते हैं। जब तक आप 45 रू. का शेयर 85 रू. में बेचते नहीं हैं तब तक आपका वह नफा सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहता है। वास्तव में उसे बेचकर उसकी रकम प्राप्त करने पर ही आप प्रॉफिट हासिल कर सकते हैं। निवेशकों को कौन सा शेयर किस भाव पर निकाल कर अपना प्रॉफिट बुक कर लेना चाहिए, इसकी समझा होनी जरूरी है।
 
* '''पेनी स्टॉक्स''' : जिन शेयरों का भाव पैसों में अर्थात 10 पैसे से लेकर 90 पैसे तक या फिर 1 रूपये - 2 रूपये में बोला जाता हो उन्हें पेनी स्टॉक्स कहा जाता है। ऐसी कंपनियां बिल्कुल घटिया दर्जे की मानी जाती हैं तथा इनके शेयरों का कोई खरीदार नहीं रहता। प्राय''' :प्रायः ऐसी कंपनियां जेड ग्रुप में रहती हैं और इन कंपनियों में अधिकांशत''' : सटोरियो या ऑपरेटर हिस्सा लेते हैं। अपवाद स्वरूप अनेक बार ऐसी कंपनियों में भी कोई कंपनी ऐसी होती है जो टर्नअराउंड हो सकती है।
 
* '''पीबीटी''' : प्रॉफिट बिफोर टेक्स - अर्थात सरकार को चुकाये जाने वाले करों के भुगतान के पूर्व का लाभ। पीबीटी वह मुनाफा है जिसमें सरकार को चुकाये जाने वाले करों (टैक्स) का समायोजन नहीं किया गया होता है।
 
* '''रिकवरी''' : : यह करेक्शन से बिल्कुल विपरीत स्थिति दर्शाती है अर्थात निरंतर घटते हुए बाजार में जब गिरावट रूक जाये और बाजार बढ़ने लगे तो इसे रिकवरी कहा जाता है। बाजार एक साथ घटता ही रहे तो इसे मंदी गिना जाता है परंतु मंदी के कुछ दिनों के बाद बाजार में सुधार हो तो उसे रिकवरी कहते हैं। जिस प्रकार किसी बीमार आदमी के स्वास्थ्य में दवा लेने के बाद कुछ सुधार हो तो उसे रिकवरी कहते हैं उसी प्रकार गिरते हुए बाजार में सुधार होने पर रिकवरी कहा जाता है।
 
* '''रिलिस्टिंग''' : डिलिस्टिंग की तरह ही एक शब्द है रिलिस्टिंग। जब कोई कंपनी एक या अनेक कारणों से नियमों का उल्लंघन करने पर डिलिस्टि कर दी जाती है तो उसके बाद वह कंपनी फिर से उन नियमों का पालन करके एक्सचेंज में अपने शेयर फिर से लिस्ट करवा लेती है। इस प्रकार दुबारा सूचीबद्ध हुई कंपनियों के लिए रिलिस्टिंग शब्द का प्रयोग होता है। निवेशकों के लिए यह खुशी की बात होती है क्योंकि जिस कंपनी के शेयर मात्र कागज के टुकड़े रह गये थे उनमें फिर से प्रवाहिता आ जाती है, उन्हें खरीदा-बेचा जा सकता है।
 
* '''रोल बैक''' : : अभी हाल ही में बजट के बाद वित्त मंत्री के मुंह से यह शब्द बार-बार बोला गया। इसका अर्थ यह है कि उठाया गया कदम पीछे नहीं लेना अर्थात जो निर्णय ले लिया गया वह ले लिया गया, उसे वापस नहीं लिया जायेगा। उदाहरण के लिए पेट्रोल की भाव वृद्धि घोषित करने के बाद वित्त मंत्री ने कहा कि उसका रोल बैक नहीं होगा तो इसका अर्थ यह हुआ कि भाव वृद्धि की घोषणा वापस नहीं ली जायेगी।
 
* '''रेग्युलेशन''' : इस सरल शब्द का अर्थ इसिलये समझाना जरूरी है कि अधिकांश लोग रेग्युलेशन्स को नियंत्रण (कंट्रोल) मानते हैं, जबकि वास्तव में रेग्युलेशन नियमन है। ऐसे तो इन दोनों की भूमिका एक जैसी लगती है परंतु वास्तव में ये कहीं अलग भी हैं। कंट्रोल में स्वामित्व का भाव रहता है, जबकि नियमन में नियम का पालन करवाने का इरादा होता है। सेबी नाम की पूंजी बाजार की नियामक संस्था शेयर बाजार, शेयर ब्रोकर, म्युच्युअल फंड आदि का नियमन करती है। संबंधित हस्तियों से नियमों का पालन करवाने की जवाबदारी का निर्वाहन करवाना नियमन है।
 
* '''रिस्ट्रक्चरिंग''' : : सामान्य अर्थों में इसका मतलब है पुनर्गठन। कार्पोरेट भाषा में कहें तो जब कोई कंपनी खास उद्देश्यों के साथ अपने घाटे में कमी लाने या लाभदायिकता बढ़ाने के प्रयास स्वरूप जो कुछ फेरबदल करती है उसे स्ट्रक्चरिंग कहा जाता है। निवेशकों को कंपनी द्वारा उठाये गये इस प्रकार के कदमों का ध्यान से अध्ययन करना चाहिए। इसका मुख्य उद्देश्य कंपनी की स्थिति सुधारना होता है।
 
* '''रिहेबिलाइजेशन अथवा रिवाइवल''' : ''' : जो कंपनी कंगाल होकर बीमार पड़ गयी हो तो उसके पुनर्रूत्थान की संभावना होने पर इसका प्रयास शुरू कर दिया जाता है। इसके लिए बीआईएफआर अपना मत व्यक्त करती है तथा कंपनी के प्रबंधन को ऐसा करने के लिए उचित समय देती है। ऐसी कंपनियों के पुनर्रूत्थान की प्रक्रिया पर निवेशकों को ध्यान रखना चाहिए और उसके आधार पर निवेश करने का निर्णय लेना चाहिए। हालांकि ऐसी बीमार और पुनर्रूत्थान की संभावनाओं वाली कंपनियों के भाव काफी गिर जाते हैं और उनमें सौदे भी नाम मात्र के होते हैं, परंतु यदि कोई मजबूत ग्रुप ऐसी कंपनी को संभालने के लिए तैयार हो जाये तो कंपनी के शेयरों का भाव रिकवर हो सकता है। ऐसी कंपनियों में जहां निवेश जोखिम भरा होता है वहीं इनमें लाभ की संभावनाएं भी रहती है।
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* '''सेट अर्थात सिक्युरिटीज अपीलेट ट्रिब्युनल (एसएटी)''' : यह सेबी से सम्बद्ध एक न्यायालय के समान ज्युडिसरी बॉडी है। सेबी के आदेश के सामने सेट में अपील की जा सकती है। सेट के आदेश सेबी को मानने पड़ते हैं या सेबी उसके सामने भी अपील कर सकती है और हाईकोर्ट में भी अर्जी कर सकती हैं। जिस प्रकार इन्कम टैक्स के सामने अपील में जाने के लिए इन्कम टैक्स अपीलेट ट्रिब्युनल होती है उसी प्रकार `सेट` एक ट्रिब्युनल है।
 
* '''स्वीट (स्वेट) इक्विटी''' : आईपीएल मैच के विवाद के दौरान यह शब्द थोड़ा चर्चा में आया था, परंतु शेयर बाजार और आर्थिक जगत में यह शब्द वर्षों से प्रचलित है। कंपनी जब अपने कर्मचारियों एवं निदेशकों को रियायती शर्तों पर इक्विटी शेयर देती है तब ऐसे शेयरों को स्वीट शेयर कहा जाता है। सामान्यत''' :सामान्यतः ये स्वीट (स्वेट) इक्विटी शेयर कर्मचारियों एवं निदेशकों को उनके द्वारा कंपनी के हित में किये गये महत्वपूर्ण योगदान के बदले दिये जाते हैं। कभी -कभी ये शेयर बिल्कुल निःशुल्क भी दिये जाते हैं।
 
* '''सिक कंपनी''' : बीमार कंपनी या मंद कंपनी को सिक कंपनी कहा जाता है। कंपनी अधिनियम में बीमार कंपनी की व्याख्या की गयी है जिसके अनुसार जिस कंपनी की नेटवर्थ समाप्त हो गयी हो अर्थात जिस कंपनी का संचित घाटा बढ़कर उसकी नेटवर्थ से अधिक हो गया हो तो उसे बीमार कंपनी माना जाता है और ऐसी कंपनी बीमार कंपनी कही जाती है। बीमार हो चुकी कंपनी का इलाज हो सकता है, जिसके तहत प्रमोटर कंपनी में अन्य धन का निवेश करते हैं, दूसरे प्रमोटरों को सहभागी बनाते हैं जिससे वह कंपनी बीमारी से बाहर आ सकती है। बीमार कंपनी को बीआईएफआर (बोर्ड फार इंडस्ट्रीयल एंड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन्स) में सूचीबद्ध कराना होता है। यह बोर्ड कंपनी की स्थिति की जांच करके उसके इलाज की सलाह देता है। यदि उसे सुधरने का कोई रास्ता नजर नहीं आता तो ऐसी कंपनियों को वाइंड-अप (बंद) करने की सलाह दी जा सकती है। निवेशकों को ऐसी कंपनियों पर दोहरी नजर रखनी चाहिए। यदि ऐसी कंपनियों के सुधरने की संभावना हो तो उस कंपनी के शेयर कम भाव पर खरीद लेने चाहिए और यदि कंपनी बंद होती नजर आये तो अपने शेयर बेच देने चाहिए।