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सामान्यत: किसी रचना (विशेष रूप से गद्य अथवा नाटकीय) के अंत में प्रस्तुत किया जानेवाला वह हिस्सा जिसमें संपूर्ण कृति का सार, उसका अभिप्राय और स्पष्टीकरण (कभी-कभी निबंध के लिए प्रसंगेतर लेकिन तत्संबंधी आवश्यक, अतिरिक्त सूचनाएँ) समाविष्ट हों, '''उपसंहार''' (या, पुश्तलेख, या अंत्यलेख ; [[अंग्रेजी]] में - एपिलॉग) कहलाता है।
 
मूलत: इसका उपयोग नाटकों में होता था जिनमें प्राय: [[नाटक]] के अंत में नाटक का सूत्रधार अथवा कोई पात्र नाटक के बारे में श्रोताओं की धारणा को अनुकूल बनाने के लिए एक संक्षिप्त वक्तव्य प्रस्तुत करता था। [[शेक्सपियर]] के एकाध नाटकों में इस प्रकार के उपसंहारों का महत्वपूर्ण स्थान है। [[बेन जानसन]] के नाटकों में इस पद्धति के नियमित व्यवहार का एक कारण यह भी कहा जा सकता है कि वह प्राय: श्रोताओं के सामने नाटक के दोषों को छिपाने के लिए ही इनकी योजना करता था। 1660 तक आते-आते जब नाटकों की परंपरा का ह्रास होने लगा तो इनका महत्व बहुत ज्यादा हो गया-यहाँ तक कि प्राय: नाटककार अथवा नाट्यनिर्देशक प्रसिद्ध कवियों से यह भाग लिखवाने लगे। इस स्थिति में की अच्छी समीक्षा [[ड्राइडन]] ने अपने विख्यात निबंध 'डिफेंस ऑव एपीलोग' में की है।