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'''भाई परमानन्द''' (जन्म: ४ नवम्बर, १८७६ - मृत्यु: ८ दिसम्बर, १९४७) [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ]]के महान क्रान्तिकारी थे। भाई जी बहुआयामी व्यक्तित्व के महापुरुष थे। वे जहाँ [[आर्यसमाज]] और वैदिक धर्म के अनन्य प्रचारक थे, वहीं इतिहासकार, साहित्यमनीषी और शिक्षाविद् के रूप में भी उन्होंने ख्याति अर्जित की थी। सरदार [[भगत सिंह]], [[सुखदेव]], पं. [[रामप्रसाद बिस्मिल]], [[करतार सिंह सराबा]] जैसे असंख्य राष्ट्रभक्त युवक उनसे प्रेरणा प्राप्त कर बलि-पथ के राही बने थे।
 
देशभक्ति, राजनीतिक दृढ़ता तथा स्वतंत्र विचारक के रूप में भाई परमानंद का नाम स्मरणीय रहेगा। आपने कठिन तथा संकटपूर्ण स्थितियों का सदा डटकर सामना किया और कभी विचलित नहीं हुए। आपने [[हिंदी]] में भारत का इतिहास लिखा है। इतिहासलेखन में आप राजाओं, युद्धों तथा महापुरुषों के जीवनवृत्तों को ही प्रधानता देने के पक्ष में न थे। आपका मत है कि इतिहास में जाति की भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, संस्कृति एवं सभ्यता को भी महत्व दिया जाना चाहिए। आपने अपने जीवन के संस्मरण भी लिखे हैं।
 
==जीवनी==
भाई जी का जन्म ४ नवम्बर, १८७६ को जिला जेहलम (अब [[पाकिस्तान]] में स्थित) के करियाला ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिताजी का नाम भाई ताराचन्द्र था। इसी पावन कुल के [[भाई मतिदास]] ने [[हिन्दू]] धर्म की रक्षा के लिए [[गुरु तेगबहादुर]] जी के साथ दिल्ली पहुँचकर [[औरंगजेब]] की चुनौती स्वीकार की थी। सन् १९०२ में भाई परमानन्द ने [[पंजाब विश्वविद्यालय]] से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और [[लाहौर]] के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए।
 
भारत की प्राचीन संस्कृति तथा [[अफ्रीकावैदिक धर्म]] में आपकी रुचि देखकर [[वैदिकमहात्मा धर्महंसराज]] परने व्याख्यानआपको देने[[भारतीय संस्कृति]] का प्रचार करने के लिए सन्अक्टूबर, १९०५ में भाई जी [[अफ्रीका]] पहुँचे।भेजा। [[डर्बन]] में भाई जी की [[महात्मा गांधी|गांधीजी]] से भेंट हुई। अफ्रीका में आप तत्कालीन प्रमुख क्रांतिकारियों [[सरदार अजीत सिंह]], [[सूफी अंबाप्रसाद]] आदि के संर्पक में आए। इन क्रांतिकारी नेताओं से संबंध तथा कांतिकारी दल की कारवाही पुलिस की दृष्टि से छिप न सकी। अफ्रीका से भाई जी [[लन्दन]] चले गए। वहाँ उन दिनों श्री [[श्यामजी कृष्ण वर्मा]] तथा [[विनायक दामोदर सावरकर]] क्रान्तिकारी कार्यों में सक्रिय थे। भाई जी इन दोनों के सम्पर्क में आये।
 
भाई जी सन् १९०७ में भारत लौट आये। दयानन्द वैदिक महाविद्यालय में पढ़ाने के साथ-साथ वे युवकों को क्रान्ति के लिए प्रेरित करने के कार्य में सक्रिय रहे। [[सरदार अजीत सिंह]] तथा [[लाला लाजपत राय]] से उनका निकट का सम्पर्क था। इसी दौरान लाहौर पुलिस उनके पीछे पड़ गयी। सन् १९१० में भाई जी को लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया। किन्तु शीघ्र ही उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद भाई जी [[अमरीका]] चले गये। वहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों में वैदिक (हिन्दू) धर्म का प्रचार किया। वहाँ मार्तनक उपनिवेश (Martinique) में आपकी प्रख्यात क्रांतिकारी [[लाला हरदयाल]] आदिसे केभेंट साथ वेहुई। भारत कीमें क्रांति स्वाधीनताकराने के लिए प्रमुख कार्यकर्ताओं के दल को यहाँ संघटित किया जा रहा था। लाला हरदयाल की प्रेरणा से आप भी प्रयासरतइस रहे।दल में सम्मिलित हो गए। करतार सिंह सराबा, [[विष्णु गणेश पिंगले]] तथा अन्य युवकों ने उनकी प्रेरणा से अपना जीवन भारत की स्वाधीनता के लिए समर्पित करने का संकल्प लिया। १९१३ में भारत लौटकर भाई जी पुन: लाहौर में युवकों को क्रान्ति की प्रेरणा देने के कार्य में सक्रिय हो गये।
 
भाई परमानन्द ने दक्षिण अमेरिका के कई ब्रिटिश उपनिवेशों का दौरा किया और लाला हरदयाल से सान फ्रैंसिस्को में पुनः मिले। [[गदर पार्टी]] के संस्थापकों में वे भी शामिल थे। सन् १९१४ में एक व्याख्यान यात्रा के लिये वे लाला हरदयाल के साथ [[पोर्टलैण्ड]] गये तथा गदर पार्टी के लिये 'तवारिखे-हिन्द' (भारत का इतिहास) नामक ग्रंथ की रचना की। भाई जी द्वारा लिखी पुस्तक "तवारीखे-हिन्द" तथा उनके लेख युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करते थे।
भाई जी द्वारा लिखी पुस्तक "तवारीखे-हिन्द" तथा उनके लेख युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करते थे। २५ फरवरी, १९१५ को लाहौर में भाई जी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके विरुद्ध अमरीका तथा [[इंग्लैण्ड]] में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य अनेक युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करने, आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे आरोप लगाकर [[फाँसी]] की सजा सुना दी गयी। सजा का समाचार मिलते ही देशभर के लोग उद्विग्न हो उठे। अन्तत: भाई जी की फाँसी की सजा रद्द कर उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड देकर दिसम्बर, १९१५ में अण्डमान (कालापानी) भेज दिया गया।
 
भाईभारत जीमें द्वाराक्रांति लिखीकरने पुस्तकके "तवारीखे-हिन्द"उद्देश्य तथा(तथाकथित 'गदर षडयन्त्र') से वे भारत लौट आये। उन्होने दावा किया था कि उनके लेखसाथ युवकोंपाँच कोहजार सशस्त्रक्रांतिकारी (गदरी) भारत आये थे। गदर क्रान्ति के लिएनेताओं प्रेरितमें करतेवे भी थे। उनको [[पेशावर]] में क्रान्ति का नेतृत्व करने का जिम्मा दिया गया था। २५ फरवरी, १९१५ को लाहौर में गदर पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ भाई जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उनके विरुद्ध अमरीका तथा [[इंग्लैण्ड]] में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य अनेक युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करने, आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे आरोप लगाकर [[फाँसी]] की सजा सुना दी गयी। सजा का समाचार मिलते ही देशभर के लोग उद्विग्न हो उठे। अन्तत: भाई जी की [[फाँसी]] की सजा रद्द कर उन्हें [[आजीवन कारावास]] का दण्ड देकर दिसम्बर, १९१५ में [[अण्डमान]] (कालापानी[[काला पानी]]) भेज दिया गया।
 
उधर भाई जी जेल में अमानवीय यातनाएँ सहन कर रहे थे, इधर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भाग्यसुधी धनाभाव के बावजूद पूर्ण स्वाभिमान और साहस के साथ अपने परिवार का पालन-पोषण कर रही थीं।
 
अण्ड्मानअण्डमान की काल कोठरी में भाई जी को [[गीता]] के उपदेशों ने सदैव कर्मठ बनाए रखा। जेल में श्रीमद्भगवद्गीता सम्बन्धी लिखे गये अंशों के आधार पर उन्होंने बाद में "मेरे अन्त समय का आश्रय" नामक ग्रन्थ की रचना की। राजनैतिक बंदियों को कठोर कारावास के विरुद्ध भाई जी ने दो महीने का भूख हड़ताल किया। गान्धीजी को जब कालापानी में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने १९ नवम्बर १९१९ के "[[यंग इंडिया]]" में एक लेख लिखकर यातनाओं की कठोर भर्त्सना की। उन्होंने भाई जी की रिहाई की भी माँग की। २० अप्रैल, १९२० को भाई जी को कालापानी जेल से मुक्त कर दिया गया।
 
[[काला पानी|कालेपानी]] की कालकोठरी में पाँच वर्षों में भाई जी ने जो अमानवीय यातनाएँ सहन कीं, भाई जी द्वारा लिखित "मेरी आपबीती" पुस्तक में उनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। [[प्रो. धर्मवीर]] द्वारा लिखित "क्रान्तिकारी भाई परमानन्द" ग्रन्थ में भी इन यातनाओं का रोमांचकारी वर्णन दिया गया है।
 
जेल से मुक्त होकर भाई जी ने पुन: लाहौर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। [[लाला लाजपतराय]] भाई जी के अनन्य मित्रों में थे। उन्होंने "'''राष्ट्रीय विद्यापीठ''' ([[नेशनल कालेज"]]) की स्थापना की तो उसका कार्यभार भाई जी को सौंपा गया। इसी कालेज में [[भगतसिंह]][[सुखदेव]] आदि पढ़ते थे। भाई जी ने उन्हें भी सशस्त्र क्रान्ति के यज्ञ में आहुतियाँ देने के लिए प्रेरित किया। भाई जी ने "वीर बन्दा वैरागी" पुस्तक की रचना की, जो पूरे देश में चर्चित रही।
 
कांग्रेस तथा गान्धी जी ने जब [[मुस्लिम तुष्टीकरण]] की घातक नीति अपनाई तो भाई जी ने उसका कड़ा विरोध किया। यही कारण है कि वे कांग्रेस के आन्दोलनों से दूर रहे। वे जगह-जगह हिन्दू संगठन के महत्व पर बल देते थे। भाई जी ने "हिन्दू" पत्र का प्रकाशन कर देश को खण्डित करने के षड्यन्त्रों को उजागर किया। भाई जी ने सन् १९३० में ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि मुस्लिम नेताओं का अन्तिम उद्देश्य मातृभूमि का विभाजन कर [[पाकिस्तान]] का निर्माण करना है। भाई जी ने यह भी चेतावनी दी थी कि कांग्रेसी नेताओं पर विश्वास न करो, ये किसी दिन विश्वासघात कर देश का विभाजन करायेंगे।
 
बाद में आप [[हिंदू महासभा]] में सम्मिलित हो गए। महामना पंडित [[मदनमोहन मालवीय]] का निर्देश एवं सहयोग आपको बराबर मिला। सन्‌ 1933 ई. में आप अखिल भारतीय हिंदू महासभा के [[अजमेर]] अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए।
जब भाई जी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा भारत विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण की घोषणा हुई तो भाई जी के हृदय में एक ऐसी वेदना पनपी कि वे उससे उबर नहीं पाये तथा ८ दिसम्बर, १९४७ को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।
 
जब भाई जी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा [[भारत का विभाजन|भारत विभाजन]] और पाकिस्तान के निर्माण की घोषणा हुई तो भाई जी के हृदय में एक ऐसी वेदना पनपी कि वे उससे उबर नहीं पाये तथा ८ दिसम्बर, १९४७ को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।
 
भाई जी के सुपुत्र डा. भाई महावीर आज भी अपने पूज्य पिताश्री के पदचिन्हों पर चलते हुए राष्ट्र और हिन्दू समाज की सेवा में सक्रिय हैं। उनकी स्मृति को बनाये रखने के लिये [[दिल्ली]] में एक व्यापार अध्ययन संस्थान का नामकरण उनके नाम पर किया गया है।
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==कृतियाँ==
भाई जी द्वारा लिखित "हिन्दू संगठन", "भारत का इतिहास", "दो लहरों की टक्कर", "मेरे अन्त समय का आश्रय", "पंजाब का इतिहास", "वीर बन्दा वैरागी", "मेरी आपबीती" आदि साहित्य आज भी इस महान विभूति की पावन स्मृति को अक्षुण्ण रखे हुए हैं।
 
==इन्हें भी देखें==
*[[गदर पार्टी]]
 
==बाहरी कड़ियाँ==