"प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं": अवतरणों में अंतर
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अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
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स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी. अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे. उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे.
== पूग ==
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे. वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे. कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था. कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है. कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है. उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं. उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था—
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== श्रेणि ==
भारत में सहयोगाधारित व्यापारिक आर्थिक संगठनों के लिए श्रेणि शब्द का उपयोग ईसा से भी आठ सौ वर्ष पहले से होता आ रहा है
जहां तक प्राचीन संदर्भों की बात है, विष्णुधर्मसूत्र में श्रेणि का उल्लेख संगठित समाज के लिए किया गया है, जबकि मिताक्षरा ने श्रेणि को पान के पत्तों के व्यापारियों का समुदाय माना गया है.17 याज्ञवल्क्य ने श्रेणि को विभिन्न जातियों के लोगों का संगठन माना है, जो किसी समान आर्थिक-व्यापारिक उद्देश्य के लिए संगठित होते हैं. जो भी हो इतना सत्य है कि श्रेणि व्यापारियों के संगठित समूह थे, जिनकी अपनी पहचान थी. विद्वानों द्वारा उसके बारे में अलग-अलग व्याख्या, उनके अनुभव और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी संभव है.
उल्लेखनीय है कि व्यापारिक संगठनों को अलग-अलग नाम का दिया जाना किंचित मतवैभिन्न्य तथा सुविधा की दृष्टि से था. किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को अपने हितों की सुरक्षा के अनुसार किसी भी प्रकार के व्यवसाय को अपनाने की छूट थी. हालांकि कई स्थान पर इस नियम में व्यवधान भी थे. व्यवस्था के लिहाज से श्रेणियों को उनके लिए तय व्यवसाय में काम करने की अनुमति प्राप्त थी. ’याज्ञवल्क्य (2/30) ने ऐसे कुलों जातियों, श्रेणियों एवं गणों को दंडित करने को कहा है, जो अपने आचार-व्यवहार से च्युत होते हैं.’18 नारद स्मृति में भी श्रेणि, नैगम, पूग एवं गण का जिक्र करते हुए उनके परंपरानुरूप कार्यों की व्याख्या की गई है.
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== संदर्भानुक्रमणिका ==
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5. The puga and vrata to entities with members that often had economic motivations, but were also residents of an entire town or village devoted to a profession.- Vikramaditya Khanna, in The Economic History of The Corporate Form in Ancient India.
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9. ...the nigama was often considered similar to a guild or city and larger than the sreni). -round the time of the Gupta Empire the nigama may have had control over sreni in a region.- Vikramaditya Khanna.
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11. डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार: प्राचीन भारत की शासन-संस्थाएं एवं राजनीतिक विचार, पृष्ठ-273.
12.
13. बहुउपकार देवस्य च नेगमस्य च. महाबग्ग- 7/1/16
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14. Nigama and sreni refer most often to economic organizations of merchants, crafts people and artisans, and perhaps even para-military entities…Of these the sreni, nigama and pani are the ones most frequently engaged in economic activities.- Vikramaditya Khanna.
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16. Finally, the pani is often interpreted as representing a group of merchants traveling in a caravan to trade their wares.- Vikramaditya Khanna.
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20. डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार: प्राचीन भारत की शासन-संस्थाएं एवं राजनीतिक विचार, पृष्ठ-273.
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== इन्हें भी देखें ==
* [[भारत का आर्थिक इतिहास]]
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://books.google.co.in/books?id=7_GWRA79yJgC&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false प्राचीन भारत का सामाजिक और आर्थिक इतिहास] ( गूगल पुस्तक ; लेखक - शिव स्वरूप सहाय)
* [http://books.google.co.in/books?id=URS5B6wO4lcC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था] (गूगल पुस्तक - कमल किशोर मिश्र)
[[श्रेणी:प्राचीन भारत]]
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