"भारतीय रंगमंच": अवतरणों में अंतर

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[[भारत]] में [[रंगमंच]] का इतिहास बहुत पुराना है। ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। [[ऋग्वेद]] के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, [[पुरुरवा]] और [[उर्वशी]] आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय [[भरतमुनि]] ने उसे शास्त्रीय रूप दिया।
 
== परिचय ==
भरत मुनि ने अपने [[नाट्यशास्त्र]] में [[नाटक|नाटकों]] के विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया है:
: ''नाट्यकला की उत्पत्ति दैवी है, अर्थात् दु:खरहित सत्ययुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने स्रष्टा ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की जिससे देवता लोग अपना दु:ख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलत: उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर, नाटक का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया'' आदि आदि।
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इतना सब होते हुए भी यह निश्चित रूप से पता नहीं लगता कि वे नाटक किस प्रकार के नाट्यमंडपों में खेले जाते थे तथा उन मंडपों के क्या रूप थे। अभी तक की खोज के फलस्वरूप सीतावंगा गुफा को छोड़कर कोई ऐसा गृह नहीं मिला जिसे साधिकार नाट्यमंडप कहा जा सके।
 
== भारत के आदिकालीन रंगमंच ==
[[सीतावंगा की गुफा]] के देखने से पुराने नाट्यमंडपों के स्वरूप का कुछ अनुमान हो जाता है। यह गुफा १३.८ मीटर लंबी तथा ७.२ मीटर चौड़ी है। भीतर प्रवेश करने के लिए बाईं ओर से सीढ़ियाँ हैं, जिनसे कदाचित अभिनेता प्रवेश करते थे। भीतरी भाग में रंगमंच की व्यवस्था है। यह २.३ मीटर चौड़ी तीन सीढ़ियों (चबूतरों) से बना है, जो एक दूसरे से ७५ सेंमी. ऊँची हैं। चबूतरों के समने दो छेद हैं, जिनमें शायद बाँस या लकड़ी के खंभे लगाकर पर्दें लगाए जाया करते थे। दर्शकों के लिए जो स्थान है, वह ग्रीक ऐंफीथिएटर की भाँति सीढ़ीनुमा है। यहाँ ५० व्यक्ति बैठ सकते हैं। यह आदिकालीन रंगमंच का स्वरूप भी ऊपर वर्णित विकसित स्वरूप से मेल खाता है। भरत नाट्यशास्त्र से भी हमें नाट्यमंडप के प्राचीन स्वरूप का संकेत मिलता है। आदिवासियों के मंडप गुफारूपी (शैलगुहाकारी) हुआ करते थे, किंतु आर्य लोग अपनी आश्रम सभ्यता के अनुरूप अस्थायी तंबूनुमा नाट्यमंडपों से ही काम चलाया करते थे।
 
भरत नाट्यशास्त्र पहली अथवा दूसरी शती ई. में संकलित हुआ समझा जाता है। भरत ने आदिवासियों तथा आर्यों दोनों के नाट्यमंडपों के आकार को अपनाया है। इन दोनों के सम्मिश्रण से इन्होंने नाट्यमंडपों के जो रूप निर्धारित किए, वे सर्वथा भारतीय हैं। प्राचीन यूनानी और रोमन स्वरूपों से इनका कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। पाश्चात्य नाट्यमंडप खुले मैदानों में बनते थे और उनमें दर्शकों के हेतु सीढ़ीनुमा अर्धचंद्राकार प्रेक्षास्थान बनते थे। इसके विपरीत भारत में नाट्यमंडप की व्यवस्था एक गृह के भीतर होती थी।
 
== भरत के रंगमंच ==
भरत ने तीन प्रकार के नाट्यमंडपों का विधान बताया है : विकृष्ट (अर्थात् आयताकार), चतुरस्र (वर्गाकार) तथा त्रयस्र (त्रिभुजाकार)। उन्होंने इन तीनों के फिर तीन तीन भेद किए हैं : ज्येष्ठ (देवताओं के लिए), मध्यम (राजाओं के लिए), तथा अवर (औरों के लिए)। इनकी माप के विषय के दिए गए निर्देशों के अनुसार ज्येष्ठ की लंबाई लगभग ५१ मीटर, मध्यम की लगभग २९ मीटर और अवर की लगभग श्मीटर होगी। चतुरस्र मंडप की चौड़ाई लंबाइ के बराबर, और विकृष्ट की लंबाई से आधी होगी।
 
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भरत नाट्यशास्त्र में दिए हुए नाट्यमंडप के आकार प्रकार तथा सजावट से ऐसा ज्ञात होता है कि उस समय तक भारत के आदिवासियों के नाट्यमंडपों का प्राथमिक रूप, जो हमें सीतावंगा गुफा, [[हाथीगुंफा]], तथा [[नासिक]] के पास [[फुलुमई गुफा]] में प्राप्त होता है, आर्यों के प्राचीनतम लकड़ी के मकानों के रूप में समन्वित होकर तथा दोनों के सम्मिश्रण से एक नया ढाँचा खड़ा हो चुका था। यही नहीं, नाट्यमंडप के रूप के विषय में नियम भी बन चुके थे तथा उनपर धर्म का नियंत्रण भी प्रारंभ हो चुका था। ये नियम इतने कड़े थे कि मापने की रस्सी टूट जाना तथा एक भी स्तंभ का दोषयुक्त होना, नाट्यमंडप के स्वामी के मरण का सूचक समझा जाने लगा था। भरत के समय तक भारतीय रंगमंच इस महान् संसार का द्योतक माना जाने लगा था, जहाँ स्त्री-पुरुष प्रविष्ट होकर अपनी पूर्वनिश्चित लीला करते हैं तथा उसकी समाप्ति पर यहाँ से विदा लेते हैं।
 
== वर्तमान भारतीय रंगमंच ==
आधुनिक भारतीय नाट्य साहित्य का इतिहास एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। [[इस्लाम धर्म]] की कट्टरता के कारण नाटक को मुगल काल में उस प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला जिस प्रकार का प्रोत्साहन अन्य कलाओं को मुगल शासकों से प्राप्त हुआ था। इस कारण मुगल काल में के दो ढाई सौ वर्षों में भारतीय परंपरा की अभिनयशालाओं अथवा प्रेक्षागारों का सर्वथा लोप हो गया। अंग्रेजों का प्रभुत्व देश में व्याप्त होने पर उनके देश की अनेक वस्तुओं ने हमारे देश में प्रवेश किया। उनके मनोरंजन के निमित्त पाश्चात्य नाटकों का भी प्रवेश हुआ। उन लोगों ने अपने नाटकों के अभिनय के लिए यहाँ अभिनयशालाओं का संयोजन किया, जो '''थिएटर''' के नाम से अधिक विख्यात हैं। इस ढंग का पहला थिएटर, कहा जाता है, [[प्लासी का युद्ध|पलासी के युद्ध]] के बहुत पहले, [[कलकत्ता]] में बन गया था। एक दूसरा थिएटर १७९५ ई. में खुला। इसका नाम 'लेफेड फेयर' था। इसके बाद १८१२ ई. में 'एथीनियम' और दूसरे वर्ष 'चौरंगी' थिएटर खुले।
 
इस प्रकार पाश्चात्य रंगमंच के संपर्क में सबसे पहले बंगाल आया और उसने पाश्चात्य थिएटरों के अनुकरण पर अपने नाटकों के लिए रंगमंच को नया रूप दिया। दूसरी ओर [[मुंबई|बंबई]] में [[पारसी धर्म|पारसी लोगों]] ने इन विदेशी अभिनयशालाओं के अनुकरण पर भारतीय नाटकों के लिए, एक नए ढंग की अभिनयशाला को जन्म दिया। [[पारसी रंगमंच|पारसी नाटक कंपनियों]] ने रंगमंच को आकर्षक और मनोरंजक बनाकर अपने नाटक उपस्थित किए।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[भारतीय लोकनाट्य]]
* [[हिन्दी रंगमंच]]
* [[रंगमंच]]
* [[पारसी रंगमंच]]
* [[नौटंकी]]
* [[यक्षगान]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
{{commons category|Theater of India}}
* [http://www.nsd.gov.in/ National School of Drama, NSD, Official website]
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[[en:Theatre of India]]
[[fr:Théâtre indien]]
[[fi:Abhinaya]]
[[fr:Théâtre indien]]